एक छोटी-सी आपबीती है। बेटे के स्कूल में पहली पेरेंट्स-टीचर्स मीटिंग थी। प्रिंसिपल हम सभी से मुखातिब थीं। उन्होंने पालकों (अभिभावकों) के सामने एक प्रस्ताव रखा - 'नए सत्र से हम कॉम्पीटिशन तो सारे करवाएंगे, लेकिन क्या ऐसा नहीं हो सकता कि जीते कोई नहीं, हारे कोई नहीं... सभी को प्राइज़ मिले... सभी को बराबर की शाबाशी मिले...'
इस विचार के समर्थन में कोई दो-चार ही हाथ खड़े हुए। अधिकतर पेरेंट्स का मानना था कि कॉम्पीटिशन होना चाहिए, किसी न किसी को पहले-दूसरे और तीसरे नंबर पर आना ही चाहिए। प्रिंसिपल महोदय का यह प्रस्ताव भरभराकर गिर गया।
...और अभी, जब परीक्षाएं चल रही हैं, हर दिन खबर आ रही है कि बच्चे आत्महत्या कर रहे हैं, उन पर भारी दबाव है। दबाव के कारण आत्महत्या जैसे कदम तक उठा रहे हैं... तो इसके बीज तो हमने खुद ही बोए हैं, हम खुद ही अपराधी हैं। कई बार तो ऐसा लगता है कि कॉम्पीटिशन बच्चों का नहीं, पालकों का अधिक हो रहा है। इज्जत दांव पर उनकी ज्यादा लगी है, बच्चों को मोहरा बना दिया गया है। कितना खतरनाक है यह...!
क्या नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो की 2014 रिपोर्ट में दर्ज यह आंकड़ा खतरनाक नहीं है, जो बताता है कि एक साल के दौरान देश में आत्महत्या करने वाले 10,900 लोग थे, जिनकी उम्र 18 साल से कम है।
यानी वे बच्चे हैं, जिनमें ज़िन्दगी को लेकर सबसे ज्यादा उमंग होती है, जिस अवस्था को हर कोई अपना गोल्डन पीरियड बताता है, उस उम्र में किसी फंदे पर लटक जाना...! बता दें कि आत्महत्या जैसे कदम उठाने वाले लोगों में तकरीबन छह प्रतिशत स्टूडेंट की श्रेणी में दर्ज हैं। सोचिए, 2014 में तकरीबन 1,121 बच्चे ऐसे थे, जो परीक्षा में असफल होने के कारण आत्महत्या कर बैठे! कौन है दोषी...? किन पर लगना चाहिए उनकी 'हत्या' का आरोप...? क्या इतना कमजोर हो चला है हमारा समाज, जो असफल बच्चों तक को दोबारा मौका नहीं दे सकता...?
अभी-अभी जब परीक्षाएं एकदम सिर पर होती हैं, और उम्मीदों का पूरा का पूरा बोझ अपनी संतानों, अपने विद्यार्थियों पर डाल दिया जाता हो, तब हर दिन अखबार में बच्चों से संबंधित एक खबर ऐसी ज़रूर पढ़ने को मिल जाती है।
एक बेटा है। म्यूजिक का मास्टर है। 10 साल की उम्र में उसने अपना बैंड बना लिया, लेकिन पता नहीं क्या हुआ। रातों-रात अपनी ज़िन्दगी खत्म कर ली। ऐसे एक-एक बच्चे की अपनी कहानी है, अपना टैलेंट है, अपनी दक्षता है, लेकिन यह तो हमारी ही नालायकी है, जो हम बच्चों को पहचान नहीं पाते। उनके हुनर को बाहर नहीं ला पाते। घर भी, बाहर भी, स्कूल भी। बच्चे जाएं तो जाएं कहां...?
याद आती है प्रोफेसर यशपाल की बात। एक कार्यक्रम में उन्होंने कहा था, 'वर्तमान शिक्षा प्रणाली बच्चों की स्वाभाविक अभिव्यक्ति पर ताले लगाती है...' यह कार्यक्रम होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम के तहत हुआ था। होशंगाबाद विज्ञान का एक अद्भुत प्रयोग था। यह पूरा पाठ्यक्रम स्थानीय परिवेश के मुताबिक तैयार किया गया था। बहुत रोमांचक होता था, मक्खी, तितली और मेंढक का जीवनचक्र पूरे होता देखना; साइकिल के रबर ट्यूब से गणितीय आकार बनाना; चित-पट दौड़ से 'संयोग और संभाविता' को समझना; पत्तियों का हरबेरियम बनाना; और परीक्षा। सबसे मजे की बात यह होती थी कि इस परीक्षा में किताब को ले जाने की छूट होती थी। हमने 'तारे जमीन पर' फिल्म में नवाचारी, बोझरहित और अपने मन की शिक्षा को कुछ रुपहले परदे पर जाना था, लेकिन वास्तव में ऐसा प्रयोग कई साल पहले बाकायदा 500 सरकारी स्कूलों में किया जा रहा था, और ऐसा नहीं हुआ कि होशंगाबाद विज्ञान पढ़ने वाले विज्ञान की पढ़ाई में पिछड़ गए हों।
लेकिन विज्ञान की यह पढ़ाई बंद हो गई, सरकारी आदेश से। कॉम्पीटिशन की दौड़ में यह आइडिया जमा नहीं। इसके पक्ष और विपक्ष में तमाम तंबू लगे, वाद-विवाद, विरोध और प्रतिरोध हुआ, लेकिन अब तो ऐसे नवाचारों को दायरा और भी सिमट गया है। गतिविधियां अब केवल समर कैम्प में अच्छी लगती हैं, इसलिए यदि आप बच्चों से ईमानदारी से पूछें भी तो वे बताएंगे कि 'उन्हें ज्यादा मजा स्कूल की जगह समर कैम्प में आता है, क्लासेस से ज्यादा उन्हें प्लेग्राउंड अच्छे लगते हैं,' इसीलिए क्योंकि हमारी शिक्षा व्यवस्था ने उन्हें बोझिल बना दिया है। क्लासेस बोझिल हों तो ठीक है, शिक्षकों का भी एक पक्ष हो सकता है, उनकी ट्रेनिंग में कमी हो सकती है, एक-एक शिक्षकों के माथे पूरा-पूरा स्कूल संभालने की चुनौती भी हो सकती है, प्रदेशों में ऐसा कोई प्रभावी सपोर्ट सिस्टम भी नहीं है, सिवाय एक टेलीफोन नंबर के, जहां बच्चे ऐसी मनोस्थिति से बाहर आ सकें... लेकिन प्लीज़... कम से कम उनके घर को तो ऐसा मत बनाइए कि बच्चे अपनी ज़िन्दगी ही खत्म कर बैठें...!
अंत में सचिन कुमार जैन की यह ताजा कविता बेहद मौजूं है...
बच्चो,
परीक्षा से
तुम डरना मत...
डरकर तुम
आत्महत्या मत करना...
तुम खूंखार पाठों से
मत डरना...
तुम मत डरना, यह जानकर
कि यह शिक्षा तुम्हें कुछ
सोचने का वक्त भी नहीं दे रही है...
बच्चो,
याद रखना,
हम नहीं बदलेंगे
शिक्षा की
ऐसी व्यवस्था को,
जो तुम्हें
आत्महत्या की तरफ ले जाती है...
बच्चो,
तुम बच सको,
तो ज़रूर बच जाना...
हमारा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है,
शिक्षा से हो रहे इस युद्ध में
तुम जीत सको...!
राकेश कुमार मालवीय एनएफआई के फेलो हैं, और सामाजिक मुद्दों पर शोधरत हैं...
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This Article is From Mar 04, 2016
'बच्चो, तुम बच सको तो ज़रूर बच जाना...'
Rakesh Kumar Malviya
- ब्लॉग,
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Updated:मार्च 04, 2016 13:39 pm IST
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Published On मार्च 04, 2016 11:06 am IST
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Last Updated On मार्च 04, 2016 13:39 pm IST
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