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This Article is From Dec 14, 2015

राकेश कुमार मालवीय : पढ़े-लिखे होने का क्या मतलब?

Rakesh Kumar Malviya
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    December 14, 2015 17:01 IST
    • Published On December 14, 2015 17:26 IST
    • Last Updated On December 14, 2015 17:26 IST
पंचायत चुनाव देश के सभी चुनावों से ज्यादा संवेदनशील चुनाव हैं। यह इसलिए कि यहां एक—एक वोट की कीमत विधानसभा—लोकसभा से ज्यादा भारी है। एक—एक वोट से यहां जीत और हार की लड़ाईयां देखी जाती हैं। जमीनी अनुभव भी यह है कि पंचायत चुनाव में कांटे की टसल होती है,  कौन किस करवट बैठेगा उस पर भी बारीक नजर रखी जाती है। इसलिए पंचायत चुनाव बेहद अहम हो जाते हैं।

हरियाणा सरकार ने पंचायत चुनाव अधिनियम में कुछ संशोधन किए हैं जिन पर अब देश के सर्वोच्च न्यायालय ने भी रजामंदी दी है। संशोधनों के हिसाब से सामान्य वर्ग के लिए दसवीं पास, दलित और महिला वर्ग के लिए आठवीं पास होना जरूरी किया गया है। इसके अलावा बिजली बिल का कोई भी बिल बकाया नहीं होना चाहिए। बैंक का लोन न चुकाने वाले और गंभीर अपराधों में चार्जशीट होने वाले लोग भी चुनाव नहीं लड़ पाएंगे। चुनाव लड़ने वाले के घर में शौचालय होना भी अनिवार्य किया गया है। (पढ़ें - विराग गुप्‍ता : हरियाणा सरकार के असहिष्णु कानून से संविधान को चुनौती!)

नेतृत्व के लिए ‘औपचारिक कागज’
सरकार के इस फैसले के खिलाफ जनहित याचिका लगाई गई। तर्क यह दिया गया कि इससे एक बड़ा वर्ग चुनावी प्रक्रिया में हिस्सेदार बनने से महरूम हो जाएगा। हरियाणा सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में कहा है कि उसके नए नियमों के मुताबिक 43 फीसदी लोग पंचायत चुनाव नहीं लड़ पाएंगे। हालांकि याचिकाकर्ता ने इस आकंड़े को सही नहीं  बताया है। उनका अनुमान इस आंकड़े से कहीं ज्यादा का है। आंकड़े चाहे जो भी कहते हों पर अदद तो यह है कि कोई एक भी व्यक्ति शिक्षा के आधार पर चुनाव लड़ने से क्यों वंचित हो ? यदि उसकी इस संवैधानिक और ज्यादा लोकतांत्रिक प्रक्रिया में भाग लेनी की इच्छा हो तो वह क्या केवल इसलिए इसे पूरी नहीं कर पाए कि उसके पास स्कूली शिक्षा का एक ‘औपचारिक कागज’ नहीं है।

क्या शिक्षा सिर्फ स्कूलों में मिलती है?
हमें साक्षर होने और शिक्षित हो जाने के बारीक, लेकिन बेहद जरूरी अंतर को समझना पड़ेगा। हर साक्षर व्यक्ति शिक्षित हो ही यह जरूरी नहीं और हर शिक्षित व्यक्ति साक्षर हो यह भी कतई जरूरी नहीं। मध्यप्रदेश का बालाघाट जिला बच्चों के टीकाकरण में अन्य साक्षर जिलों से आगे है। 2001 में यहां हजार पुरुषों पर 1022 स्त्रियां थीं उस वक्त यहां की साक्षरता दर 66 प्रतिशत पर अटकी थी। बस्तर के घोटुल को दुनिया का पहला व्यवस्थित को एड स्कूल कहते हैं। यह अब से कुछ साल पहले तक अपने स्वरूप में जिंदा था। हां यहां कोई दर्जा नहीं होता था,  लेकिन स्त्री—पुरुष संबंधों और जिंदगी जीने की शिक्षा उस दौर में कहीं और नहीं मिल पाती थी। यह अलग बात है कि बस्तर को तो हम अनपढ़ ही मानते रहे। हरियाणा के ही कई गांवों में अनपढ़ महिलाओं ने शराबबंदी जैसे काम अपने दम पर कराए हैं और पूरी दुनिया में उनका नाम हुआ है। शिक्षित और साक्षर होने के ऐसे पचासों उदाहरण देश में हैं। इसलिए इस आधार पर एक अधिकार को खत्म कर दिया जाना कहां तक उचित है?  

शत प्रतिशत लोग साक्षर नहीं हुए तो नाकामयाबी किसकी?
हम जब आजाद हुए तभी यह तय हुआ था कि देश को साक्षर बनाया जाएगा। कमोबेश आजादी के इतने साल बाद भी यदि हमारी साक्षरता की दर शत प्रतिशत तक नहीं पहुंची तो इसमें नाकामयाबी किसकी है? अदद तो यह कि आजादी के पचास से भी ज्यादा साल बाद आप देश में शिक्षा का अधिकार कानून लागू कर पाए। तो हम कैसे उम्मीद कर लें कि हर नागरिक कम से कम आठवी और दसवी दर्जा पास कर लेगा। क्या हम आज केवल अपनी साक्षरता की दर बढ़ाने के लिए इस तरह के निर्णय का सहारा लेंगे? इसके लिए जितने लोग जिम्मेदार हैं उतनी ही जिम्मेदार अब तक की व्यवस्था भी रही है। आखिर क्यों हम इतने साल बाद भी निरक्षर हैं? और क्या उन पर ध्यान दिया जा रहा है कि 2015 में भी कितने प्रतिशत बच्चे स्कूली शिक्षा व्यवस्था से बाहर हैं। और यह संशोधन सबसे पहले पंचायत पर ही क्यों। जबकि हमें पता है कि देश में गांव की हालत सबसे खराब है। सबसे कम शिक्षा का स्तर गांव में है।

खुले में शौच पर रोक के लिए क्या रेलगाड़ियां बंद करेंगे...
प्रधानमंत्रीजी के सपने को साकार करते हुए बड़ी ही तेजी से गांव—गांव में शौचालय बनाए जा रहे हैं। यह जरूर है कि पानी के अभाव में उनकी उपयोगिता नहीं हो पा रही। तब इस प्रक्रिया को पंचायत चुनाव पर ही सबसे पहले क्यों अपनाया जा रहा है। क्या इसकी शुरुआत पहले लोकतांत्रिक प्रक्रिया के दूसरे चुनावों से नहीं होनी चाहिए। क्या देश की सबसे बड़ी सेवा 'रेलवे' को बंद कर दिया जाएगा, क्योंकि खुले में शौच का सबसे बड़ा वाहक तो रेलवे ही है। हम रेल को चलने से क्यों नहीं रोक देते? क्या इस दिशा में किसी ने भी कोई पहल अब तक की है कि रेलगाड़ी की पटरियों को शौच मुक्त बनाया जाए। हम बुलेट ट्रेन तो चलाने वाले हैं, लेकिन जो रेलगाड़ियां चल रही हैं उनको सुधरने के लिए क्या कर रहे हैं?   

व्यवस्था सुधरे, संवैधानिक हक से वंचित करना अनुचित
दरअसल यह हमारे समाज की बुनियादी खामियां हैं। इसके लिए जितने जिम्मेदार ‘लोग’ हैं उतनी ही जिम्मेदार ‘व्यवस्था’ भी है। लोगों को अनपढ़ रह जाने में कोई मजा नहीं आता, लोगों को खुले में शौच करने का कोई शौक नहीं, बैंक का कर्जा करना ही कौन चाहेगा, और अंधेरे में दुनिया का कौन शख्स रहना चाहता है? जरूरत इस बात की है कि देश में ऐसी परिस्थितियों का निर्माण किया जाए, जिससे यह प्रक्रियाएं स्वत: ही ठीक होने लगें, न कि इसे किसी संवैधानिक हक से महरूम करके जबरदस्ती करवाया जाए।

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं। इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति एनडीटीवी उत्तरदायी नहीं है। इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं। इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार एनडीटीवी के नहीं हैं, तथा एनडीटीवी उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है।
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