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This Article is From Nov 30, 2015

राकेश कुमार मालवीय : सातवां वेतन आयोग किसके लिए...?

Written by Rakesh Kumar Malviya
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    दिसंबर 23, 2015 14:15 pm IST
    • Published On नवंबर 30, 2015 11:39 am IST
    • Last Updated On दिसंबर 23, 2015 14:15 pm IST
#बिहारचुनाव, #दादरी, #बीफ, #असहिष्णु जैसे हैशटैग्स के बीच जब अचानक सातवां वेतन आयोग ट्रेंड होने लगा तो चौंकना स्वाभाविक था... यह आसमान से अचानक नहीं टपका, इसके पीछे लम्बी कवायद थी, लेकिन ऐसे समय में, जब इस पर न कर्मचारी संगठनों का कोई भारी दबाव हो, न जबरदस्त धरने, न लगातार प्रदर्शन, न हड़ताल - इसका आना पतझड़ में बारिश-सरीखा था... याद रखना होगा कि अपने देश में इन गतिविधियों के बिना कोई इतना बड़ा निर्णय नहीं ही लिया जाता है... तमाम 'लोकपाल' धरनों और दबावों के बावजूद इंतज़ार ही कर रहे हैं... इस परिदृश्य में सातवें वेतन आयोग की अनुशंसाएं चौंकाने वाली हैं... अलबत्ता कर्मचारी इससे भी खुश नहीं हैं, उन्हें इनसे ज़्यादा की उम्मीद थी, लेकिन मंद पड़ा बाज़ार तो ज़रूर ही खुश है, इसीलिए देश पर पड़ने वाले डेढ़ लाख करोड़ रुपये के भारी-भरकम बोझ की ठीक-ठाक समीक्षा भी नहीं आ पाई...

देश में केवल एक करोड़ कर्मचारी और पेंशनधारी हैं... राज्य सरकारों के कर्मचारियों का गणित तो अलग है ही... और जैसा कि परंपरा है, राज्य सरकारों के बाद राज्य के कर्मचारियों के दबाव के आगे सरकारों को वेतन-भत्ते बढ़ाने ही पड़ते हैं, तो इस तरह अनुमानित तौर पर देश की अर्थव्यवस्था पर तीन लाख करोड़ रुपये का अतिरिक्त बोझ पड़ने वाला है... क्या यह भारी-भरकम बोझ सरकारी व्यवस्था के भ्रष्टाचार को दो-चार फीसदी भी कम करेगा, क्या राजीव गांधी के ज़माने से रुपये में 15 पैसे जमीन तक पहुंचने की थ्योरी को जरा भी झुठलाने की गारंटी देगा...?

इस सवाल पर हम बाद में सोचेंगे, लेकिन इस वक्त अदद तो यही है कि आखिर केवल 50 लाख कर्मचारियों को खुश करने की कवायद क्यों, जबकि देश के सात करोड़ किसानों की हालत खस्ता है... क्या यह केवल इसलिए, क्योंकि नीतियां बनाने और निर्णय लेने की भूमिका में वे ही हैं... सांसद-विधायक अपने वेतन-भत्ते बढ़वा लेते हैं, कर्मचारी अपने वेतन-भत्ते बढ़वा लेते हैं, लेकिन समाज के उपेक्षित तबके किसान और मज़दूरों की चिंता कौन करेगा...? क्या यह एक प्रकार की असहिष्णुता नहीं है...?

यह समझना इतना कठिन भी नहीं है... पिछले दो दशकों में आर्थिक उदारीकरण के अनुभवों ने हमें सिखा दिया है... हमने देख लिया है कि बाज़ार किस तरह दबाव बनाकर काम करता है, और अपनी मनवा लेता है... हम समझ गए हैं कि निर्णय तो बाज़ार ही लेता है...

दरअसल सातवां वेतन आयोग लागू होने के बाद का जो मुनाफा है, वह कर्मचारियों के भले से ज़्यादा बाज़ार के भले की बात है... या तो ज़्यादा रकम करों के रूप में सरकार के पास वापस हो ही जाएगी, क्योंकि हमारे देश में कर बचाने की घातक परंपरा है, और उस रकम को हम तमाम निवेश करते हैं, अपनी सुविधा की चीजें बाज़ार से बटोरते हैं.... तो तय है कि भला तो बाज़ार का ही होगा... इस भले में कोई बुराई भी नहीं है, हम तो सातवें क्या आठवें, नौवें और दसवें वेतन आयोग की अभी से पैरवी करते हैं, लेकिन शर्त यही है कि समाज के उपेक्षित तबकों के बलिदान पर यह सब नहीं ही किया जा सकता, जिस देश में कर्ज़ से लदे हज़ारों किसानों ने आत्महत्या कर ली हो, जिस देश का मज़दूर भूखों मरने की कगार पर हो, जिस देश के लाखों नौजवान रोज़गार के लिए चप्पलें घिस रहे हों, उस देश में बजाय इसके कि कृषि के हालात ठीक किए जाएं, बजाय इसके कि मज़दूरों को सुरक्षा दी जाए, बजाय इसके कि नई नौकरियों की जगह बनाई जाए, देश पर इतना बड़ा बोझ लाद देना बेमानी है, यह देश में असमानता को खत्म करने की संविधान की मूल भावना से न्याय नहीं है...

क्या आपको पता है कि केंद्रीय कर्मचारियों को कितने तरह के भत्ते मिलते हैं... 196 तरह के वेतन-भत्तों में परिवार नियोजन से लेकर अपनी मूंछों को ठीक-ठाक रखने तक का भत्ता शामिल है... इनमें कई भत्ते तो ऐसे भी हैं, जो मौजूदा परिदृश्य में अप्रासंगिक भी हो चुके हैं, सातवें वेतन आयोग में ऐसे 52 भत्तों को हटाने की बात भी कही गई है, इसके बावजूद 63 प्रतिशत की बढ़ोतरी हो रही है... अनुमान लगाया जा रहा है कि नए वेतन आयोग के बाद 24,300 करोड़ रुपये का मौजूदा खर्च 12,000 करोड़ रुपये बढ़कर 36,000 करोड़ रुपये से भी ज़्यादा हो जाएगा... यह देश की सबसे बड़ी योजना मनरेगा के एक साल के बजट के लगभग बराबर होगा, जो देश के ग्रामीण क्षेत्रों में हर परिवार को 100 दिन का रोज़गार देने वाली योजना है...

सरकारों को मनरेगा का बजट ज़्यादा लगता है और उसे कम करने की बात भी पिछले सालो में आती रही है... इसी तरह वेतन पर भी सरकार को 39,100 करोड़ रुपये अधिक खर्च करने होंगे... पेंशन पर 33,000 करोड़ रुपये का बोझ बढ़ेगा... बता दें कि पिछले 15 सालों में सरकार का कुल वेतन बिल पांच गुना बढ़ गया है, और अनुमान है कि यह 1,49,524 करोड़ रुपये का होगा...

थोड़ा और आसानी से समझते हैं... इसके लिए ख्यात कृषि विश्लेषक देवेंद्र शर्मा का एक विश्लेषण मददगार होगा... उनके मुताबिक सरकारी मुलाज़िम के वेतन में पिछले 45 सालों में 120 से 145 गुना की वृद्धि हुई है... स्कूल टीचर का वेतन 280 से 300 गुना बढ़ा है... मध्य स्तर के कॉरपोरेट कर्मचारी की तनख्वाह 300 और उच्च स्तर के कर्मचारी की 1,000 गुना तक बढ़ी है... वहीं, इसी दौरान किसानों की स्थिति में कोई खास सुधार नहीं हुआ है... गेहूं के न्यूनतम समर्थन मूल्य में केवल 19 फीसदी की मामूली बढ़ोतरी ही हो पाई है, और न ही उन्हें मिलने वाली सब्सिडी में ही कुछ खास बढ़ा है... बकौल डॉक्टर शर्मा, अमेरिका में एक किसान परिवार को औसतन ढाई लाख रुपये की सब्सिडी मिलती है, जबकि हिन्दुस्तान में अब भी यह केवल 1,000 रुपये है...

मैं केंद्रीय और राज्य कर्मचारियों से माफी मांगता हूं... इस देश को चलाने में उनका बेहद महत्वपूर्ण योगदान है, और उन्हें अधिकतम वेतन और भत्ते पाकर अपना जीवन स्तर सुधारने, बेहतर बनाने, सुख-सुविधाएं हासिल करने का पूरा-पूरा हक है, लेकिन मेरा सवाल संविधान की मूल मंशाओं की रोशनी में केवल देश की नीतियों से है, देश की स्थितियों से है, जो देश के सबसे ज़्यादा सोचे जाने लायक समूह के बारे में सबसे कम सोचती दिखाई दे रही हैं...

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं। इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति एनडीटीवी उत्तरदायी नहीं है। इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं। इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार एनडीटीवी के नहीं हैं, तथा एनडीटीवी उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है।

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