माफ कीजिएगा कि मैं 66वें गणतंत्र दिवस को 'गनतंत्र' दिवस कह रहा हूं, लेकिन क्या करूं, एक दशक से ज्यादा हो गया गणतंत्र दिवस समारोह में जाते हुए। हर बार तलाशने की कोशिश करता हूं कि राजपथ की सरकारी चमकदमक में आम आदमी का गणतंत्र कहीं दिखे। पहले तो राजपथ के किसी कोने पर स्थित गलियारों में कभीकभार आम आदमी का चेहरा दिख जाता था, लेकिन इस बार वह भी शायद ही नजर आए। हां, हर बार से अधिक इस बार बस गन ही गन जरूर दिखेंगी... एक से बढ़कर एक... सुना है, गन का साथ देने के लिए विदेशी डॉग भी आए हैं।
गणतंत्र का सीधा मतलब है गण का तंत्र, यानि आम आदमी का सिस्टम, लेकिन क्या आम आदमी इस बार नजर आएगा, उस पर किसी का ध्यान है...? आखिर वह परेड देखने कैसे आ पाएगा, क्योंकि उस दिन राजपथ की ओर वही गाड़ी जा सकती है, जिसके पास परेड के पास होंगे। जनता की मेट्रो तो सुरक्षा का हवाला देकर कई घंटे पहले ही बंद कर दी जाएगी। अब वह जमाना भी लद गया, जब गांव और दूर देहात से लोग पैदल परेड देखने आते थे। हां, अगर आप प्रधानमंत्री हों या ओबामा के साथ हों तो कोई पास नही मांगेगा। सारी व्यवस्था तो इसी को लेकर हो रही है कि ओबामा को परेड देखने में कोई दिक्कत न हो।
सुरक्षा के नाम पर पूरे राजपथ की किलेबंदी कर दी गई है। आम आदमी के जा पाने का सवाल ही नहीं उठता, क्योंकि पहले तो उसे दिल्ली की कड़कड़ाती और हड्डी जमा देने वाली ठंड में सुबह 6-7 बजे तक कई किलोमीटर दूर से पैदल चलकर राजपथ तक आना होगा फिर उसके पास अपना कोई न कोई पहचानपत्र भी होना चाहिए। तब भी अगर वह राजपथ के आसपास पहुंच पाता है तो वह परेड खत्म होने के अंतिम छोर पर कहीं खड़ा हो पाएगा, जहां वह क्या देख पाएगा, आप खुद समझ जाइए। वैसे, लगता है कि सरकार भी राजपथ पर आमजन की अधिक भागीदारी नहीं चाहती, तभी तो न अखबार में, न टीवी चैनलों पर और न ही सरकार के फिलहाल सबसे प्रिय माध्यम रेडियो में, इस बात के इश्तिहार दिए जाते हैं कि आम आदमी चाहे तो इसमें शामिल हो सकता है।
यह कहने की जरूरत नहीं कि इस गणतंत्र दिवस पर सबसे ज्यादा मुश्किल या परेशानी आम जनता को होने वाली है, जैसे मेट्रो को कई घंटे पहले बंद कर देना, उस वक्त कई शहरों के लिए रेल, बस और हवाई सेवाएं बंद हो जाएंगी। साथ ही अन्य दूसरी परेशानियां होंगी सो अलग। ओबामा के आने से देश का मान तो बढ़ेगा, लेकिन असल कीमत तो आम आदमी को चुकानी होगी।
जब देश ने पहली बार 1950 में गणतंत्र दिवस मनाया था, तो सही मायने में केवल और केवल आम जनता की भागीदारी थी। उस वक्त सिस्टम, यानि व्यवस्था का अतापता नहीं था, लेकिन लगता है, जैसे-जैसे लोकतंत्र परिपक्व होता चला गया, गणतंत्र के इस पर्व में तंत्र हावी होता चला गया और गण पीछे छूटता चला गया। वर्ष 1962 में हुए गणतंत्र दिवस समारोह के लिए पहली बार टिकट बिकना शुरू हुआ।
वैसे क्या गणतंत्र दिवस जैसे राष्ट्रीय पर्व को जनता उतने ही उत्साह से मना पाती है, जितना होली और दीवाली जैसे त्योहार मनाती है। आज अगर लोग सड़क पर निकलें तो उन्हें बंद रास्तों, छावनी बनी दिल्ली और दिल तोड़ देने वाली पुलिसिया तलाशी से इतना परेशान किया जाता है कि वे इस दिन घर से निकलना ही पसंद न करें।
गणतंत्र दिवस के मौके पर होने वाले इस सालाना जलसे में राजपथ पर जहां तमाम राज्यों की तरह-तरह की झांकियां और कलाकार अपने रंग बिखेरेंगे, वहीं देशभर से चुने गए बहादुर बच्चों की शान भी देखते ही बनेगी। तीनों सेनाओं और अर्द्धसैनिक बल के जवान अपनी ताकत, अस्त्र-शस्त्रों और जोश के जरिये एक बार फिर विश्वास दिलाएंगे कि देश उनके हाथों में सुरक्षित है, लेकिन अफसोस, आम जनता, जिसके लिए यह सारा तामझाम होता है, वही इस सबको देखने से शायद महरूम रह जाएगी।
अब तो ऐसा लगने लगा है कि देश का यह सबसे बड़ा राष्ट्रीय पर्व कहीं अपनी गरिमा खोकर महज सरकारी औपचारिकता बनकर न रह जाए। आने वाली पीढ़ी इसे टेलीविजन या इंटरनेट पर ही देखकर ही संतोष न कर ले। लेकिन हम तो चाहते हैं कि चलिए राजपथ पर भले ही सरकारी तामझाम की वजह से आप न जा पाएं, लेकिन जहां कहीं भी मौका मिले, खुलकर गणतंत्र दिवस मनाएं... आखिर यह हमारा, हमारे लिए और हमारे द्वारा वर्षों की गुलामी सहने और अनगिनत कुर्बानियां देने के बाद हासिल आज़ादी को जनतंत्र में बदलने का सबसे बड़ा पर्व जो है।
This Article is From Jan 22, 2015
राजीव रंजन की कलम से : 'गनतंत्र' दिवस बन गया है गणतंत्र का सबसे बड़ा पर्व...
Rajeev Ranjan, Vivek Rastogi
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Updated:जनवरी 22, 2015 20:40 pm IST
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Published On जनवरी 22, 2015 20:38 pm IST
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Last Updated On जनवरी 22, 2015 20:40 pm IST
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