बताया जा रहा है कि छह फरवरी को कांग्रेस पंजाब में अपने मुख्यमंत्री पद के दावेदार की घोषणा करेगी. इसके लिए उसने टेलीफोन पर रायशुमारी कराई है. यही वह ढंग है जो उससे पहले आम आदमी पार्टी ने अपनाया है. लेकिन पंजाब में कांग्रेस को अपने मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार चुनने के लिए आम आदमी पार्टी जैसी मशक्कत क्यों करनी चाहिए? सतह पर यह बात बहुत आकर्षक लगती है कि पार्टियां जनता की राय लेकर अपने फ़ैसले करें, लेकिन क्या हमारी लोकतांत्रिक प्रणाली में जनता की राय लेने की एक आज़माई हुई व्यवस्था नहीं है जो चुनाव के ज़रिए ही सामने आती है? इस व्यवस्था में नियम और परंपराएं दोनों शामिल हैं. नियमतः विधानसभा के सदस्य मुख्यमंत्री का चुनाव करते हैं या लोकसभा के सदस्य प्रधानमंत्री का चुनाव करते हैं. हमारे यहां लोकसभा और विधानसभा सरकार से बड़ी होती है इसलिए इसे संसदीय प्रणाली कहा जाता है.
यह अलग बात है कि हमारी दलीय राजनीति की वजह से यह परंपरा बन गई है कि कई बार इसमें मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री पहले से घोषित कर दिए जाते हैं- इस समझ के साथ कि उस दल को बहुमत मिला तो उसके सदस्य इसी नेता का चुनाव करेंगे. इस आधार पर वोट भी मांगे जाते हैं. इसका एक बड़ा नुक़सान यह होता है कि क्षेत्रीय या स्थानीय प्रतिनिधित्व का प्रश्न पीछे छूट जाता है, कभी-कभी मुद्दे भी गौण हो जाते हैं, और व्यक्तिवादी राजनीति हावी हो जाती है. यह व्यक्तिवाद अतिरेक पर चला जाता है तो इसके नतीजे क्या होते हैं, यह हम कई नेताओं के संदर्भ में देखते रहे है.
पंजाब पर लौटें. आम आदमी पार्टी भारतीय राजनीति में एक नए प्रयोग की तरह आई. उसका कोई राजनीतिक अतीत नहीं है. उसकी कोई सांगठनिक विरासत नहीं है. इसलिए यह स्वाभाविक है कि वह अपने लिए इस विरासत का निर्माण करे. जनता के बीच जाकर ख़ुद को लोकतांत्रिक साबित करे. पंजाब में आम आदमी पार्टी के भीतर भगवंत मान की निर्विकल्प हैसियत सबको मालूम थी, उनके अलावा किसी और के मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनने की उम्मीद किसी को नहीं थी, मगर पार्टी ने जनता से रायशुमारी का दिखावा कर अपने लिए एक लोकतांत्रिक वैधता अर्जित कर ली.
लेकिन पंजाब में कांग्रेस को इसकी ज़रूरत नहीं थी. वह सत्ता में जनता की मुहर से ही है, उसके वोट से ही है. यह बात ठीक है कि वहां बीच में मुख्यमंत्री बदला गया- कैप्टन अमरिंदर सिंह को हटा कर चरणजीत सिंह चन्नी को लाया गया, लेकिन चरणजीत सिंह चन्नी को भी उन विधायकों का समर्थन हासिल है जिन्हें जनता ने ही चुना है. इस लिहाज से चन्नी मौजूदा विधानसभा में ही कांग्रेस के मुख्यमंत्री नहीं हैं, उन्हें आने वाले चुनावों में भी मुख्यमंत्री पद का चेहरा माना जाना चाहिए. जिस परंपरा ने राजनीतिक दलों को यह अधिकार दिया है कि वे चुनाव से पहले अपने मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार की घोषणा करें, उसी ने यह भी स्थापित किया है कि अमूमन किसी राज्य के मुख्यमंत्री को वहां अगले चुनाव का चेहरा भी माना जाता है. जहां यह नहीं होता, वहां मुख्यमंत्री बदल देने के संकेत प्रबल होते हैं और वे बदल दिए जाते हैं. बिल्कुल हाल में हमने असम में यह होते देखा है. वहां सर्वानंद सोनोवाल मुख्यमंत्री थे जिन्हें अगले चुनाव में बीजेपी ने चेहरा नहीं बनाया. चुनाव के बाद हेमंत बिस्वा शर्मा मुख्यमंत्री हो गए.
पंजाब में कांग्रेस यह संदेश नहीं देना चाहती इसलिए वह मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करने को मजबूर है. लेकिन इसकी ज़रूरत क्यों पड़ी? क्योंकि यह सबको पता है कि नवजोत सिंह सिद्धू ख़ुद को इस पद का दावेदार मानते हैं. बल्कि कई बार उनके तेवर देखकर लगता है कि वे जबरन यह पद छीन लेंगे. पंजाब में जब राहुल गांधी की रैली में चन्नी और सिद्धू दोनों ने मुख्यमंत्री पद का चेहरा चुनने का अधिकार राहुल गांधी के पास छोड़ा तब भी सिद्धू यह कहना नहीं भूले कि उन्हें बस घोड़ा बनाकर छोड़ न दिया जाए. इसके पहले कैप्टन अमरिंदर सिंह के साथ सिद्धू का जो लंबा टकराव चला, उसमें यह बात कहीं छुपी हुई नहीं रही कि सिद्धू की महत्वाकांक्षा पंजाब का मुख्यमंत्री होने की है.
सिद्धू की महत्वाकांक्षा जो भी हो, लेकिन कांग्रेस नेतृत्व उनमें ऐसी कौन सी खूबी देख रखी है कि उनके लिए एक जमे-जमाए मुख्यमंत्री को भी कुरबान कर दिया और दूसरे मुख्यमंत्री को भी वह सम्मान देने में हिचक रहा है जिसके वे हकदार हैं? सिद्धू के बारे में कैप्टन अमरिंदर सिंह कहते रहे हैं कि वे 'निरंकुश प्रक्षेपास्त्र' हैं- अनगाइडेड मिसाइल- और सिद्धू ने एकाधिक अवसरों पर यह साबित भी किया है. कैप्टन अमरिंदर के बहिर्गमन और चरणजीत सिंह चन्नी के ताजपोशी के तत्काल बाद कुछ नियुक्तियों को लेकर सिद्धू ने जिस तरह प्रदेश अध्यक्ष पद से इस्तीफ़ा देकर सबको चौंका दिया था, वह ऐसा ही अनिर्देशित क़दम था. यह अच्छा हुआ कि तब कांग्रेस आलाकमान ने उन्हें मिलने का समय न देकर यह संदेश दे दिया कि अब सिद्धू की हर हरकत का समर्थन नहीं किया जा सकता. यही नहीं, गुरु ग्रंथ साहब के अपमान के आरोप में जब अलग-अलग घटनाओं में दो लोगों को मार दिया गया, तब भी सिद्धू की प्रतिक्रिया बिल्कुल अलोकतांत्रिक और कट्टरता को बढ़ावा देने वाली रही. उन्होंने ऐसा अपमान करने वालों को चौराहे पर फांसी देने की मांग कर डाली.
दूसरी तरफ़ चरणजीत सिंह चन्नी लगातार सब्र और संयम से काम लेते नज़र आ रहे हैं. सिद्धू के इस्तीफ़े वाले प्रकरण को चन्नी ने अपनी समझदारी से सुलझाया- यह भी नज़र आता रहा. मुख्यमंत्री बनने के बाद से चरणजीत सिंह चन्नी लगातार अपनी सादाबयानी और सहजता से लोगों के दिल जीत रहे हैं. प्रधानमंत्री की सुरक्षा में लापरवाही को लेकर जो बड़ा संकट खड़ा हुआ और जिसमें आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति अपने अतिरेक पर जा पहुंची, उसमें भी चरणजीत सिंह चन्नी धीरज के साथ खड़े रहे, बहुत सादे लहजे में बताते रहे कि प्रधानमंत्री के न आने से उन्हें भी मायूसी हुई है, कि उनका दौरा होता तो पंजाब को कुछ मिलता ही, कि वे खुद भी प्रधानमंत्री से कुछ मांगने का मन बना कर बैठे थे. कैप्टन और सिद्धू जैसे बड़बोले नेताओं के बीच चन्नी की उपस्थिति एक स्वागत योग्य बदलाव नज़र आती है.
लेकिन चरणजीत सिंह चन्नी की इस सादगी और सहजता का मतलब यह नहीं है कि कांग्रेस लगातार सिद्धू का मन और मान रखते हुए चन्नी के नाम की घोषणा को टेलीफोन सर्वे की राजनीति के हवाले कर दे. अगर इस टेली-रायशुमारी में चन्नी के पक्ष में फ़ैसला नहीं आया तो कांग्रेस को ठीक-ठाक नुक़सान हो सकता है, क्योंकि चन्नी की ताजपोशी ने जो सामाजिक समीकरण बनाया है, वह उनके न होने से बिखरेगा. लेकिन चन्नी का नाम आता भी है तो भी इस देरी की क़ीमत कांग्रेस को कुछ चुकानी पड़ेगी. पंजाब एक समय उसके लिए ख़ाली मैदान माना जा रहा था, लेकिन सिद्धू-चन्नी के टकराव, कैप्टन और बीजेपी के समझौते, और आम आदमी पार्टी के उभार ने अचानक इस ख़ाली लगते मैदान में कई कंकड़ बो दिए हैं. इन कंकड़ों पर कांग्रेस सिद्धू की हड़बड़ी के साथ दौडे़गी तो अपने ही पांव लहूलुहान कर लेगी. उड़ते, जलते, तपते, जूझते पंजाब को एक शांत-संयमित नेतृत्व मिले, यह कांग्रेस की ज़िम्मेदारी है. सवाल ये है कि क्या कांग्रेस को अपनी इस ज़िम्मेदारी का एहसास है?
प्रियदर्शन NDTV इंडिया में एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर हैं...
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