केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी का यह कहना सही है कि केंद्रीय विद्यालयों में तीसरी भाषा के रूप में जर्मन की पढ़ाई त्रिभाषा फॉर्मूले का उल्लंघन है और इसीलिए उन्होंने जर्मन हटा कर इसकी जगह संस्कृत को लाने का फ़ैसला किया है। लेकिन ऐसा करते हुए वे भूल गईं कि दरअसल संस्कृत भी त्रिभाषा फॉर्मूले की भावना से मेल नहीं खाती।
त्रिभाषा फॉर्मूले का मक़सद भारत की भाषिक विविधता और अलग−अलग भाषाभाषी समुदायों का सम्मान था। इसके तहत सभी लोगों को अंग्रेज़ी और हिंदी के अलावा एक तीसरी भाषा पढ़नी थी। पश्चिम बंगाल के लोग इसी के तहत बांग्ला पढ़ते हैं, महाराष्ट्र के लोग मराठी, गुजरात के लोग गुजराती और दक्षिण भारतीय लोग दक्षिण भारत की अलग−अलग भाषाएं।
इस भाषा नीति में भारत की विशाल हिंदी पट्टी के सामने यह सुविधा थी कि वह बाक़ी भारतीय भाषाओं में कोई भाषा चुन लेती। अगर हिंदीभाषी स्कूलों में तमिल, तेलुगू, मराठी, बांग्ला, उड़िया या दूसरी भारतीय भाषाएं सिखाने का इंतज़ाम होता तो बाक़ी इलाक़ों से इस हिंदी पट्टी का रिश्ता कहीं ज़्यादा अपनापे से भरा होता। दूसरे क्षेत्रों में भी हिंदी विरोध मंद पड़ता। लेकिन हिंदी वालों ने संस्कृत पढ़ने का फ़ैसला किया जो देश के किसी हिस्से में नहीं बोली जाती। उन्होंने उस उर्दू को भी नहीं चुना, जिसके बिना हिंदी खड़ी नहीं हो सकती। यह एक ऐसी बेईमानी थी जिसने देश की भाषिक एकता में एक बड़ी दरार पैदा की।
कहने का मतलब यह नहीं कि संस्कृत नहीं पढ़ाई जानी चाहिए। लेकिन संस्कृत का अध्ययन एक शास्त्रीय भाषा के तौर पर होना चाहिए जैसे पाली का होता है या प्राकृत या आदितमिल का हो सकता है।
संस्कृत बेशक बहुत सारी भारतीय भाषाओं के मूल में है, लेकिन उसे भारतीय भाषाओं की मां बताना दरअसल बीच के रिश्तों की कई कड़ियां काट देना है। संस्कृत हमारी एक पुरानी पूवर्जा है, जिसकी स्मृति हमें समृद्ध करती हैं, लेकिन उसे बिल्कुल करीब लाने की−भाषा में जबरन शामिल करने की कोशिश− भारतीय भाषाओं के संयुक्त परिवार की रिश्तेदारियां गड़बड़ा देती है।
मगर संस्कृति और राष्ट्रवाद की नितांत उथली समझ रखने वालों को और उसे बहुत आक्रामक ढंग से पेश करने वालों को भाषा और संस्कृति की यह बारीक समझ कौन दे। उन्हें बस राजनीति करना आता है और ऐसा करते हुए वे जर्मन को भी पराया बना डालती हैं और संस्कृत की भी सहज स्वीकार्यता को ग्रहण लगाती हैं।
जर्मन और संस्कृत एक ही परिवार की भाषाएं हैं। एक दौर में संस्कृत की बहुत सारी थाती को सहेजने में जर्मन विद्वानों ने भी काफी काम किया है। भारतीय भाषाओं के लिए तो मैक्समूलर का काम ऐतिहासिक है, लेकिन केंद्रीय विद्यालयों में पठनपाठन को अपनी राजनीति का अस्त्र बनाने वाली सरकारें यह सब नहीं देख सकतीं। वे संस्कृत और संस्कृति दोनों से प्रेम करने की बात कहती हैं, लेकिन दरअसल शत्रुता निभाती हैं।
This Article is From Nov 14, 2014
प्रियदर्शन की बात पते की : संस्कृत के प्रेमी या शत्रु
Priyadarshan
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Updated:नवंबर 19, 2014 15:34 pm IST
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Published On नवंबर 14, 2014 19:16 pm IST
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Last Updated On नवंबर 19, 2014 15:34 pm IST
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