केंद्रीय सरकार में खाद्य प्रसंस्करण राज्यमंत्री साध्वी निरंजन ज्योति ने जो अभद्र भाषा इस्तेमाल की है, उस पर उन्होंने माफ़ी मांग ली है। लेकिन क्या यह सिर्फ़ अभद्र भाषा का मामला है?
दिल्ली के जिस भाषण में उन्होंने यह भाषा इस्तेमाल की उसी में अगली सांस में ये कहती नज़र आईं कि जो अपने−आप को राम की संतान नहीं मानता वह इस देश में रहने का अधिकारी नहीं है। यह वक्तव्य दरअसल हिंदुत्ववादी राजनीति के उस उग्र इकहरेपन का आईना है, जिसमें न हिंदुत्व की समझ दिखती है, न भारतीयता की। क्योंकि साध्वी ज्योति यह भूल गईं कि जिसे वह हिंदुत्व मानती हैं और जिसे अपनी राजनीति के तहत एक जीवन शैली बताती हैं उसके भीतर भी कई वर्ग हैं, जो शायद राम जितनी ही आस्था दूसरों में रखते हैं।
जब हिंदुत्ववादी राजनीति राम पर अतिरिक्त ज़ोर देती है तो वह राम को भी छोटा करती है और शैव शाक्त बौद्ध जैन जैसी कई दूसरी परंपराओं के भीतर एक तरह का अनमनापन पैदा करती है। राम भी एक नहीं हैं। तुलसी के राम अलग हैं और कबीर के राम अलग हैं। कबीर ख़ुद को राम की लुगाई बताते हैं। गांधी के राम भी अलग हैं। लेकिन बीजेपी के राम इन सब रामों से अलग हैं। वे अतिरिक्त आक्रामक हैं और उनके भक्त उनके लिए कृष्ण, शिव, दुर्गा, काली सबको अपदस्थ करने की कोशिश करते दिखाई पड़ते हैं।
हिंदुत्व की सुंदरता और शक्ति इस बहुलतावादी परंपरा में ही निहित है। यह सागर इतनी सारी बूंदों से बना है कि अलग−अलग कालों में संस्कृतियों की कई लहरें आईं और इनके भीतर अपनी जगह बनाती रहीं। जाहिर है इस परंपरा में बहुत सारी कीच भी चली आई, जिसे हम अपने आलोचनात्मक विवेक से दूर कर सकते हैं करते रहे हैं।
लेकिन यह सुंदरता और शक्ति सबसे ज़्यादा इन्हीं वर्षों में क्षीण पड़ी हैं, जब साध्वी ज्योति जैसे भक्त राम और हिंदुत्व दोनों पर अधिकार जमाने में लीन रहे हैं। ये राम को एक देश−या भारत− तक सीमित करके उन्हें भी छोटा करते हैं।
सच यह है कि भारत के बाहर भी बहुत सारे समाज और देश ऐसे हैं जहां राम की स्मृति बड़ी समादृत है और जो ख़ुद को राम की परंपरा का हिस्सा मानते हैं, अपने−आप को उनकी मानस संतान के रूप में देखते हैं।
साध्वी ज्योति जैसी नेत्रियां जब राम और भारत को जोड़ देती हैं, एक से जुड़ने की शर्त को दूसरे में होने की पात्रता बना देती हैं तो अचानक राम भी छोटा हो जाता है और देश भी। क्योंकि यह देश भी एक नहीं बहुत सारी परंपराओं से बना है। इसमें भी वैष्णव, शैव, शाक्त, सनातनी, बौद्ध, जैन, मुस्लिम, पारसी, ईसाई और न जाने कितनी परंपराओं की स्मृति मौजूद है। ये परंपराएं आपस में टकराई भी हैं और एक−दूसरे की ताकत भी बनी हैं।
आज़ादी की लड़ाई में ये सारी परंपराएं साथ आईं तो एक विशाल भारत बना जिसने अपनी निहत्थी आस्था से अंग्रेज़ों को बाहर कर दिया। इस विशाल भारत को जिस सांप्रदायिकता ने तोड़ा और बांटा उसके एक सिरे पर अगर मुस्लिम लीग खड़ी है तो दूसरे सिरे पर संघ परिवार और उससे जुड़े दूसरे संगठन जो राष्ट्र को धर्म की बड़ी संकरी परिभाषा में बांध देना चाहते हैं।
वे हिंदुत्व की उदार कथाओं का भी अपनी ओछी राजनीति के लिए किस तरह इस्तेमाल करना चाहते हैं ये केंद्र सरकार के एक और मंत्री गिरिराज सिंह का बयान बताता है, जिसमें उन्होंने मोदी को राम और केजरीवाल को मारीच बताया है। ये मंत्री अपनी भाषा वापस ले लेंगे, लेकिन क्या अपनी मानसिकता भी बदलेंगे?
This Article is From Dec 02, 2014
प्रियदर्शन की बात पते की : अभद्र भाषा नहीं, मानसिकता का सवाल
Priyadarshan, Saad Bin Omer
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Updated:दिसंबर 02, 2014 21:48 pm IST
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Published On दिसंबर 02, 2014 21:26 pm IST
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Last Updated On दिसंबर 02, 2014 21:48 pm IST
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