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This Article is From Nov 18, 2014

प्रियदर्शन की बात पते की : पत्रकार होने की सज़ा

Priyadarshan
  • Blogs,
  • Updated:
    नवंबर 19, 2014 15:32 pm IST
    • Published On नवंबर 18, 2014 17:29 pm IST
    • Last Updated On नवंबर 19, 2014 15:32 pm IST

एक बार फिर पत्रकारिता ने फिर अपने छिले हुए घुटने देखे, ज़ख्मी कुहनियां देखी, कलाई पर बंधी पट्टियां देखी− ऐसे ही मौके ये बताने के लिए होते हैं कि भारतीय लोकतंत्र की बुनियाद पत्रकारिता के लहू से भी सींची जा रही है।

हालांकि टीवी चैनलों पर पत्रकारों की ये पिटाई देखकर कई लोगों को परपीड़क सुख का अनुभव हुआ होगा। पहली खुशी इस बात की हुई होगी कि इन मामूली प्रेस और चैनल वालों को पुलिस ने उनकी हैसियत बता दी। बता दिया कि वह जब चाहे उन्हें जानवरों की तरह खदेड़ कर पीट सकती है।

सतलोक आश्रम के वह लोग भी इस पिटाई पर खुश हुए होंगे जिनके बाबा की मनमानी मीडिया ने चलने नहीं दी। याद दिलाया कि एक आदमी प्रशासन और सरकार को अंगूठा दिखा रहा है और अदालत की तौहीन कर रहा है। पुलिस को मजबूर किया कि वह कार्रवाई करे।

मीडिया को इन सबकी मिली−जुली सज़ाएं झेलनी पड़ी। 50 बरस पहले मुक्तिबोध ने अपनी कविता 'अंधेरे में' में लिखा था− हाय−हाय मैंने उनको नंगा देख लिया, मुझको इसकी सज़ा मिलेगी ज़रूर मिलेगी। 50 साल बाद हमारे अंधेरे समय में मुक्तिबोध की ये भविष्यवाणी जैसे सच निकली। पत्रकारिता ने पिटते हुए लोग देखे, उन्हें घसीटती हुई पुलिस देखी और इन सबको कैमरे पर उतारने का दुस्साहस दिखाया। इसलिए पत्रकारों को दौड़ा−दौड़ा कर उनके कैमरे हाथ−पांव हौसले सब तोड़ने की कोशिश हुई।

पत्रकारिता इन दिनों ताकत और पैसे का खेल भी मानी जाती है− शायद इसलिए कि हमारे समय की बहुत सारी गंदगियां हमारी पत्रकारिता में भी दाख़िल हुई हैं। वह इन दिनों कमज़ोर आदमी की आवाज़ से ज़्यादा मज़बूत आदमी का बयान सुनने लगी है। लेकिन इन सबके बावजूद, सारी चमक−दमक और ताकत के सतही प्रदर्शन के बावजूद पत्रकारिता सबसे ज्यादा तब खिलती है जब वह इंसाफ़ के हक़ में खड़ी होती है, जब वह एक मगरूर बाबा को आश्रम में छुपने पर मजबूर करती है और एक बेशर्म व्यवस्था को कार्रवाई के लिए बाध्य करती है। फिर वह इस कार्रवाई के दौरान पिट रहे और घायल हुए शख़्स की घसीटी जाती तसवीर उतारती है।

अगर इस सच्चाई के हक़ में खड़े होने की सज़ा ये पिटाई है, तो पत्रकारिता को ये सज़ा बार−बार मंज़ूर है, क्योंकि यही उसे ताक़त और वैधता देती है, रघुवीर सहाय के शब्दों में इस लज्जित और पराजित समय में भी भरोसा देती है।

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