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This Article is From Jun 20, 2015

प्रियदर्शन की बात पते की : गरीब नहीं छोटे लोग

Priyadarshan, Saad Bin Omer
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  • Updated:
    जून 20, 2015 00:08 am IST
    • Published On जून 20, 2015 00:03 am IST
    • Last Updated On जून 20, 2015 00:08 am IST
हिंदुस्तान के अमीर लोग अपने गरीब लोगों का हिस्सा कैसे हड़पते हैं, इसकी मिसालें इन दिनों भरपूर हैं। गरीबों के लिए 12 रुपये की सालाना बीमा योजना को जिन करोड़ों लोगों ने लपक लिया, उनमें बहुत से खाते-पीते ही नहीं, लाखों कमाते लोग हैं जिनके पास निजी बैंकों के एसएमस की सुविधा है और इस एक सुविधा से महज 12 रुपये में उनके दो लाख रुपये पक्के हो जा रहे हैं।

दूसरी तरफ जो असली गरीब हैं, उनके लिए कई जगहों पर खाता खोलना मुश्किल काम है। लेकिन गरीबों के हक हड़पने की ज़्यादा शर्मनाक मिसाल दिल्ली के निजी स्कूलों में आई है जहां आर्थिक तौर पर कमज़ोर बच्चों के पच्चीस फ़ीसदी कोटे में ऐसे अमीर घरों के बच्चे पढ़ रहे हैं जो एक फ़र्जी सर्टिफिकेट के लिए कुछ लाख रुपये ख़र्च करने की हैसियत रखते हैं।

ये शिक्षा के उस मौलिक अधिकार का सीधे-सीधे मखौल है जिसमें हर किसी के लिए बराबरी की शिक्षा की कल्पना की गई है। लेकिन यह मामला एक कानून तोड़ने का नहीं है। सोचने की बात यह है कि जो लोग अपने बच्चों को इस बेईमानी से स्कूलों में डाल रहे हैं वे जीवन का पहला पाठ उन्हें पहले ही पढ़ा रहे हैं। इन बच्चों को दाखिला लेने से पहले मालूम हो चुका है कि सच्चाई और ईमानदारी का कोई मोल नहीं है- हर चीज़ बेईमानी और पैसे से हासिल की जा सकती है।

आने वाले पूरे जीवन में ये बच्चे बस यही पढ़ाई करेंगे कि पढ़ाई के इस्तेमाल से पैसा कैसे बनाया जा सकता है। वे इंजीनियर बनें, डॉक्टर बनें, अफ़सर बनें, मैनेजर बनें- जो कुछ भी बनें- लेकिन उनको मालूम होगा कि वे एक कामयाब इंसान बनने जा रहे हैं, बेहतर इंसान नहीं।

बेशक, इनमें कुछ ऐसे बच्चे भी होंगे जो आने वाले कल को अपने मां-बाप के फ़ैसले को कुछ अचरज से देखें और सोचें कि मां-बाप ने अपनी किन हसरतों की बलि पर उनकी मासूमियत को चढ़ा दिया। मशहूर लेखक निर्मल वर्मा ने कभी गरीबी और दरिद्रता का अंतर बताते हुए लिखा था कि गरीबी में एक तरह का स्वाभिमान होता है जबकि दरिद्रता में एक तरह का ओछापन।

इन दरिद्र अमीरों ने गरीबों का हक मार लिया है और उन्हें ये नहीं मालूम है कि जब वे दूसरों के हक मारते हैं तो अपने हिस्से की इंसनियत भी कुछ छोड़ रहे होते हैं- काश कि ये सबक देने वाला कोई स्कूल हम खोल पाते, तब हमारी जेबें शायद कम भरी होतीं, लेकिन तब हमारी जेलें भी कम भरी होतीं।

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