न्यूजीलैंड के खिलाफ सेमीफाइनल मुकाबले में महेंद्र सिंह धोनी जिस तरह रन आउट हुए, उसका रिप्ले फिर से देखिए. देखिए कि गुप्तिल ने कहां जाकर गेंद पकड़ी और कैसे उसे थ्रो किया. दरअसल यह गुप्तिल की किस्मत रही कि उनका थ्रो सीधे स्टंप में लगा और धोनी रन आउट हो गए. खुद गुप्तिल ने ही अगले दिन यह बात भी मानी. धोनी की जगह कोई और खिलाड़ी होता तो भी वह इस थ्रो पर रन आउट हो गया होता. धोनी दरअसल एक रन को दो रन में बदल रहे थे. यह काम वे पहले भी करते रहे हैं. जो महान खिलाड़ी उन पर धीमे होने का इल्ज़ाम लगा रहे हैं, वे शायद अपने पूरे करिअर में उतने तेज़ नहीं रहे जितने धोनी उस दिन थे.
यह इस बात की दलील नहीं है कि महेंद्र सिंह धोनी को अभी रिटायर नहीं होना चाहिए. धोनी 15 साल से अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में हैं. उसके पहले कई साल उनको स्थानीय क्रिकेट में काटने पड़े. बल्कि उनका यह सफ़र मुंबई, दिल्ली और चेन्नई-बेंगलुरु के खिलाड़ियों के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा लंबा रहा, क्योंकि वे एक ऐसे शहर से थे जहां से चमकने वाली बिजली भारतीय क्रिकेट का मक्का-मदीना बने शहरों तक पहुंचते-पहुंचते खत्म हो जाती थी. जाहिर है, खेल ने उनसे दूसरों के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा क़ीमत वसूली होगी. एक दिन उनको भी रिटायर होना है और वह कोई ऐसा दिन हो जब उनके खेल की आभा शिखर पर हो तो इससे अच्छा कुछ नहीं हो सकता. आप खेल तब छोड़ें जब लोग आपसे हाथ जोड़कर मैदान से बाहर निकलने का अनुरोध करने लगें तो इसमें कोई बड़प्पन नहीं है, बल्कि एक तरह की अवमानना ही है.
इसलिए यह टिप्पणी यह समझाने के लिए नहीं लिखी जा रही कि महेंद्र सिंह धोनी को अभी रिटायर नहीं होना चाहिए- यह फ़ैसला उनको करना है और वे देर-सबेर कर लेंगे- लेकिन यह बताने के लिए लिखी जा रही है कि हमारे यहां चल रहे क्रिकेट विश्लेषण किस क़दर टी-20 और आइपीएल की धूम-धड़ाका संस्कृति से आक्रांत हैं. इस विश्लेषण के राष्ट्रीय दबाव का खमियाजा पहले भी कई खिलाड़ियों को भुगतना पड़ा है. अंबाटी रायडू को महज कुछ पारियों के प्रदर्शन के आधार पर इस तरह ख़ारिज कर दिया कि उन्होंने क्रिकेट की दुनिया को ही अलविदा कह दिया. एक दौर में राहुल द्रविड़ और इस दौर में चेतेश्वर पुजारा को वनडे मैचों के लिए नाक़ाबिल मान लिया गया. जबकि जिसने चेतेश्वर पुजारा का खेल देखा है, वह बहुत सहजता से बता सकते है कि वे जितने ठोस बल्लेबाज़ हैं, उतने ही बेहतरीन स्ट्रोक प्लेयर भी. वे वनडे टीम में भी चौथे नंबर के ऐसे ठोस बल्लेबाज हो सकते हैं जो किसी संकट में पारी को संभाल सकते हैं और किसी आपातकाल में टीम को बेहतरीन रन रेट दे सकते हैं.
लेकिन वनडे या टी-20 को लोगों ने बस धूम-धड़ाके का खेल मान लिया है. वे जैसे यह मान कर चलते हैं कि जो भी खिलाड़ी हर ओवर में दो-चार चौके-छक्के लगाने का दमखम न रखता हो, वह सच्चा अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी है. हार्दिक पांड्या या ऋषभ पंत बेशक बहुत अच्छे बल्लेबाज होंगे, लेकिन ज्यादातर लोग इन पर इनकी लप्पेबाज़ी की वजह से फ़िदा हैं. इस लप्पेबाज़ी के अभ्यास ने वर्ल्ड कप सेमीफ़ाइनल में हमें जो नुक़सान पहुंचाया, उसके दोषी दरअसल वे खिलाड़ी नहीं, वे विश्लेषक हैं जिन्होंने इनसे बिल्कुल चमत्कार की उम्मीद लगा रखी थी.
विश्व कप 2019 में भी धोनी के प्रदर्शन को लोग ऐसी ही कसौटी पर कस रहे हैं. जो लोग इस बात पर झुंझला रहे हैं कि उन्होंने इंग्लैंड के खिलाफ़ आखिरी ओवरों में जीतने की कोशिश नहीं की, वे यह नहीं समझ पा रहे कि उस दिन अंग्रेज़ों की गेंदबाज़ी के आगे वह लक्ष्य लगभग नामुमकिन हो चला था. बैट भांज कर विकेट गवां देने वाली हाराकिरी की नई संस्कृति में अगर धोनी नहीं ढले हैं, अगर उन्होंने हिसाब लगा लिया कि यह मैच जीतना संभव नहीं होगा और यह भी देख लिया कि इस हार के बहुत बुरे नतीजे नहीं होने जा रहे हैं और उन्होंने पारी चलाए रखना बेहतर समझा तो इसमें कुछ भी गलत नहीं है. न्यूज़ीलैंड के खिलाफ़ बहुत मुश्किल हालात से टीम को बाहर निकाल कर लाने का श्रेय उन्हीं को जाता है. रन रेट भी उनके नियंत्रण में था. बस क्रिकेट जिस अनिश्चितता का खेल माना जाता है, उसके वे शिकार हो गए, नहीं तो बहुत संभव था कि वे भारत को फाइनल तक ले जाते.
दरअसल इस मैच में ऋषभ पंत और हार्दिक पांड्या को धोनी से पहले उतारने का फ़ैसला उसी दृष्टि का नतीजा था जिसमें हम क्रिकेट को सिर्फ चौके-छक्कों का खेल मान बैठे हैं. ये दोनों चाहे जितने भी प्रतिभाशाली हों, फिलहाल इतने अनुभवी नहीं हैं कि अपना ताप देर तक बनाए रख सकें- मूलतः ये दोनों दस पंद्रह ओवर तक के भीतर चालीस-पचास रन बना देने वाले खिलाड़ी हैं- बेशक इस लिहाज से बेहद उपयोगी कि आखिरी लम्हों में किसी मैच का रंग बदल डालें.
लेकिन इस आख़िरी अंक तक पहुंचने से पहले ही उनकी भूमिकाएं शुरू हो गईं. जाहिर है, अपना खेल खेल लेने के बाद दोनों पैवेलियन लौट गए. अब सिर्फ कल्पना की जा सकती है कि अगर धोनी चौथे नंबर पर आए होते और धीरे-धीरे टीम को एक मुकाम तक लाने के बाद आउट भी हो गए होते तो बचा-खुचा काम निबटाने के लिए ऋषभ और पंड्या जैसे बल्लेबाज़ हमारे पास होते.
वह कहानी अब बदली नहीं जा सकती. लेकिन आने वाली कहानियों के किरदारों का हम खयाल रख सकते हैं. सवाल धोनी का नहीं, भारतीय टीम के चुनाव का है. भविष्य की टीम बनाने की कोशिश में हम वर्तमान की टीम न खो दें. ऑस्ट्रेलिया ने करीब 20 साल तक क्रिकेट की दुनिया पर राज किया तो इसलिए भी कि वे सिर्फ तात्कालिक प्रतिभा के बल पर खिलाड़ियों को चुनते और बाहर नहीं करते रहे. माइक हसी जैसे नायाब खिलाड़ी को टेस्ट खेलने के लिए तीस साल से ज्यादा की उम्र तक इंतज़ार करना पड़ा.
भारत जैसे हड़बड़ाया हुआ है कि वह एक टीम तोड़ कर दूसरी टीम बना ले. कहना मुश्किल है, इसके लिए प्रतिभाशाली खिलाड़ियों से सजी बेंच का दबाव ज़्यादा है या ऐसे क्रिकेट जानकारों का, जो क्रिकेट को तमाशे की तरह देखते हैं और सोचते हैं कि धीमे खेलने वाला खिलाड़ी पुराने दौर का खिलाड़ी है. न्यूज़ीलैंड के विलियम्सन तेज़ खेलने वाले बल्लेबाज़ नहीं हैं, लेकिन उन्होंने वर्ल्ड कप में जो करिश्मा किया, उसकी वजह से न्यूजीलैंड लगभग वर्ल्ड कप जीत गया. गुप्तिल को लगातार ख़राब प्रदर्शन के बावजूद न्यूजीलैंड टीम ने बनाए रखा और सेमीफाइनल में एक रन आउट से ही उन्होंने कमाल कर दिया.
भारत के विद्वान चयनकर्ता होते तो विलियम्सन और गुप्तिल दोनों को टीम से बाहर कर चुके होते. दरअसल ऐसी चयन दृष्टि का खमियाजा सिर्फ धोनी को ही नहीं, उन युवा खिला़डियों को भी भुगतना पड़ेगा जिनके कंधों पर अभी से कुछ अतिरिक्त बोझ आ जाएगा. क्योंकि फिर इसी आधार पर उन्हें बाहर करने की मुहिम चल पड़ेगी. फिलहाल टीम जो भी चुनें, ये न कहें कि धोनी धीमे हो गए हैं.
प्रियदर्शन NDTV इंडिया में सीनियर एडिटर हैं...
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