वह एक जुगुप्सा पैदा करने वाला दृश्य है. इसलिए नहीं कि इसमें गांधी को गोली मारने का अभिनय किया जा रहा है, बल्कि इसलिए कि यह इतनी कल्पनाशून्यता के साथ किया जा रहा है कि इसमें कहीं कोई विचार नहीं दिखता- गांधी को मारने का विचार तक नहीं. यह एक फूहड़ तमाशा है जिसके कुछ गिने-चुने तमाशबीन हैं.
दुर्भाग्य से यह तमाशा भी 'हिट' हो जाता है. सिर्फ एक खंबे से दूसरे खंबे तक दौड़ता-भागता, हांफता और मुर्दा विचारों पर किसी गिद्ध की तरह झपटता मीडिया इस दृश्य को भी लपक लेता है. पाखंडी राजनीति अचानक गांधी के प्रति उदार हो उठती है और इन तमाशाइयों को गिरफ़्तार करने की मांग शुरू हो जाती है.
तमाशा करने वालों का मकसद इतने भर से सध जाता है. अब उनकी एक राष्ट्रीय पहचान है. कल तक बिल्कुल गुमनाम रहे दो विचारविहीन लोग अब देश को बता रहे हैं कि उन्हें गांधी की हत्या के नाटक का कोई पछतावा नहीं है और उन्हें अफसोस है कि इस देश में देशद्रोह की बात करने वाले आजाद घूम रहे हैं, जबकि उन्हें गिरफ्तार किया जा रहा है.
क्या अब हम संतुष्ट हैं? आखिर गांधी का अपमान करने वाले, उनके प्रति हिंसा भाव रखने वाले पकड़े गए हैं. जाहिर है, इसका जवाब 'हां' में नहीं हो सकता. क्योंकि अचानक हम पाते हैं कि जिस गांधी को न जाने हम कब का खो चुके, उन्हें बचाने की हड़बड़ी में हमने उनके तथाकथित हत्यारों को अखिल भारतीय प्रसिद्धि दे डाली है और दूसरों को भी ये आइडिया कि गांधी को मार-मारकर मशहूर हुआ जा सकता है.
लेकिन क्या यह गांधी को मारने की पहली कोशिश थी? यह तो बस एक पैरोडी थी जिससे गांधी या उनके विचार का कुछ नहीं बिगड़ना था. जबकि हमारे पूरे सार्वजनिक जीवन में गांधी विचार की हत्या तरह-तरह से करने की कोशिश की जा रही है. जो गांधी के विरोधी हैं, वे तो यह काम कर ही रहे हैं, खुद को गांधी भक्त बताने वाले भी चुपचाप यही काम कर रहे हैं. बल्कि इस देश में बड़ी चालाकी के एक आसान गांधी को- एक कटे-छंटे बोंसाई गांधी को- बचाया जा रहा है और मुश्किल गांधी को किनारे कर दिया जा रहा है. आसान गांधी वह है जो हमें 'लगे रहो मुन्नाभाई' जैसी फिल्मों में दिखता है. यह गांधी छोटे-छोटे अन्यायों का प्रतिरोध करता है, अहिंसा और सत्याग्रह के सहारे अपनी लड़ाइयां लड़ता है और एनजीओनुमा संगठनों ही नहीं, राजनीतिक दलों को भी लड़ने का एक तरीका सिखाता है.
लेकिन यह असली गांधी नहीं है. असली गांधी हमसे बहुत कुछ मांगता है. असली गांधी हमारी उपभोक्तावादी जीवन शैली की आलोचना करता है. असली गांधी वकीलों और डॉक्टरों से दूर रहने की सलाह देता है, असली गांधी मौजूदा मुहावरे में लगभग 'विकास विरोधी' है. उसे हमारी चमक-दमक वाली जीवन शैली से परहेज है. अर्थव्यवस्था को लेकर उसका लगभग यूटोपियाई नज़रिया है. असली गांधी हमारे सामने जीने की इतनी कड़ी कसौटियां रख देता है कि हम छिटक कर दूर हो जाते हैं. यह गांधी हमें पचता नहीं है, जंचता नहीं है.
यह गांधी आत्मनिरीक्षण के किन्हीं क्षणों में हमारे भीतर सिर उठाता है तो हम उसे मार डालते हैं. दरअसल यह वह असली गांधी है जिसकी हत्या पर हमें चिंतित होना चाहिए. लेकिन हम चिंतित तब होते हैं जब एक नकली गांधी पर नकली गोली चलाई जाती है.
गांधी की हत्या के और भी तरीके हैं. उनका अंधानुकरण भी उनको निर्जीव मूर्ति में बदलने का- और इस तरह उनकी हत्या करने का- एक और तरीका है. गांधी जी के जीवन काल में उनके ऐसे अंधभक्त नहीं थे. उनके सबसे करीबी लोग भी उनसे असहमत हुआ करते थे. सुभाष चंद्र बोस की गांधी के तौर-तरीकों से असहमति तो जग जाहिर है, जवाहरलाल भी उनसे असहमत रहा करते थे. बाबा साहब अंबेडकर तो असहमत थे ही. कई मुद्दों पर गांधी टैगोर से और टैगोर गांधी से असहमत थे. इन असहमतियों ने गांधी को बनाया भी. गांधी लगातार अपने उत्तर काल में पिछले गांधी से असहमत होते दिखाई पड़ते हैं. धर्म और वर्ण संबंधी उनकी धारणाएं बिल्कुल पूरी तरह बदलती दिखाई पड़ती हैं. यह इसलिए संभव हुआ कि गांधी को महात्मा कहने के बावजूद, उनकी मनुष्यता को बार-बार कसौटी पर कसा जाता रहा. उस दौर के हालात भी ऐसे थे जो उनके लिए नई-नई कसौटियां बनाते रहे.
लेकिन आज गांधी से कोई असहमत नहीं है. क्योंकि गांधी अनुसरण की नहीं, पूजा की वस्तु हैं. पूजा मूर्तियों की होती है, पुतलों की होती है. इसलिए पुतलों पर गोली चलती है तो हमें गुस्सा आता है. असली गांधी के मारे जाने पर हम जरा भी बेचैन नहीं होते. शायद इसलिए कि हमारी श्रद्धा भी नकली है, हमारा गुस्सा भी नकली है. हम विरोध करने वाले मनुष्य नहीं, क्रोध करने वाले पुतले हैं. यह स्थिति हमारी राजनीति की भी है, हमारे मीडिया की भी. उसका तेज जैसे खत्म हो गया है. उसे गांधी से नहीं, गांधी के पुतले से मतलब है, क्योंकि उसकी रिपोर्टिंग आसान है, यह साबित करना आसान है कि गोलियों से गांधी को मारा जा रहा है.
और जो लोग गांधी को मार कर शोहरत हासिल कर रहे हैं, उनके निशाने असल में दूसरे हैं- कहीं ज्यादा खतरनाक. गांधी पर गोली चला कर उन्होंने एक विचारधारा की वैधता हासिल कर ली है- अब वे देश और धर्म के नाम पर किसी को भी गोली मार सकते हैं. जब वे यह काम करेंगे, तब उनके हाथ में नकली बंदूकें नहीं होंगी. तब भी शायद हम समझ नहीं पाएंगे कि कैसे अपनी नासमझी में हमने कुछ गोडसे और पैदा कर दिए हैं.
प्रियदर्शन NDTV इंडिया में सीनियर एडिटर हैं...
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