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This Article is From Aug 21, 2018

फिर इसके बाद ये पूछें कि कौन दुश्मन है...

Priyadarshan
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अगस्त 23, 2018 10:38 am IST
    • Published On अगस्त 21, 2018 17:02 pm IST
    • Last Updated On अगस्त 23, 2018 10:38 am IST
जोश मलीहाबादी का एक किस्सा मशहूर है. वह पाकिस्तान चले गए थे और लौटकर भारत आ गए. लोगों ने पूछा कि पाकिस्तान कैसा है. जोश साहब ने जवाब दिया, बाक़ी सब तो ठीक है, लेकिन वहां मुसलमान कुछ ज़्यादा हैं.

पुराने ज़माने के बहुत सारे लोग हैं, जो भारत और पाकिस्तान के बीच सारी जंग और कड़वाहट के बीच दोस्ताना माहौल के हामी रहे. सरदार अली ज़ाफ़री ने तमाम जंग के बीच जो लिखा था, वह आज की तारीख़ में बिल्कुल कुफ्र करार दिया जाता. अपनी नज़्म 'दोस्ती का हाथ' में उन्होंने लिखा था - ज़मीने पाक हमारे जिगर का टुकड़ा है / हमें अज़ीज़ है देहली ओ लखनऊ की तरह / तुम्हारे लहजे में मेरी नवा का लहजा है / तुम्हारा दिल है हसीं मेरी आरज़ू की तरह...'

अगर सरदार अली ज़ाफ़री ने आज यह नज़्म लिखी होती, तो उन्हें बहुत गालियां पड़तीं. क्योंकि जिस तरह जोश के देखे हुए पाकिस्तान में मुसलमान कुछ ज़्यादा थे, वैसे ही हमारे नए हिन्दुस्तान में हिन्दू कुछ ज़्यादा हैं. ये अपनी धार्मिक आस्थाओं वाले हिन्दू-मुसलमान नहीं हैं, बल्कि हिन्दुत्व और इस्लाम को न समझने वाले वे नए कठमुल्ले हैं, जो मुल्कों के नाम पर नफ़रत बांटने के कारोबार में ही अपने जीवन को सार्थक होता पाते हैं.

ऐसे ही नए हिन्दुस्तान में यह मुमकिन है कि कोई नवजोत सिंह सिद्धू पाकिस्तान में अगर वहां के सेनाप्रमुख से गले मिल ले, तो उसे यहां सफ़ाई देने की नौबत आ जाए. पाक सेनाप्रमुख कमर जावेद बाजवा से गले मिलकर सिद्धू ने कोई विदेश नीति तय नहीं कर दी. उन्होंने पाकिस्तान की करतूतों को सही भी साबित नहीं किया. उन्होंने सीमापार से पाक प्रायोजित आतंकवाद की भी वकालत नहीं की और न युद्धविराम उल्लंघन को सही ठहराया. उन्होंने बस, एक शालीन मुद्रा दिखाई. दिलचस्प यह है कि यह मुद्रा सिर्फ उनके राजनीतिक विरोधियों को नहीं, उनके अपने मुख्यमंत्री को भी रास नहीं आई. यह चीज़ बताती है कि भारत में ऐसी राष्ट्रवादी कट्टरता अब दल-विशेष का मामला नहीं रह गई है, नए हिन्दुस्तान की नई कसौटियां हैं, जिनमें हर किसी को ख़ुद को ज़्यादा से ज़्यादा हिन्दू और हिन्दुस्तानी साबित करना है. पाकिस्तान में भी इमरान ख़ान की जो नई तस्वीरें आ रही हैं, वे बताती हैं कि इमरान भी ख़ुद को ज़्यादा से ज्यादा मुसलमान और पाकिस्तानी साबित करने पर तुले हैं.

दिलचस्प यह है कि दोनों देश शांति की अपरिहार्यता को सबसे ज़्यादा रेखांकित करते हैं. इमरान भी उपमहाद्वीप के अमन से नीचे बात नहीं करते और भारतीय सत्ता-प्रतिष्ठान भी मानता है कि शांति ज़रूरी है. लेकिन इस शांति के रास्ते में बाधा युद्धविराम उल्लंघन या आतंकवाद को पाक समर्थन भर नहीं है, बल्कि वह डर है, जो किसी को नरम हिन्दुस्तानी या नरम पाकिस्तानी दिखने से रोकता है - भारत में रहकर पाकिस्तान से या पाकिस्तान में रह कर भारत से मोहब्बत की बात करना तो सीधे-सीधे जुर्म है. यह अलग बात है कि कुछ दीवाने दोनों तरफ़ ऐसे निकल आते हैं, जो अपने-अपने देशों में पराये देश से मोहब्बत करने पर गाली खाते हैं. इसी महीने पाकिस्तान के एक गायक आतिफ़ असलम ने न्यूयॉर्क में पाकिस्तान की आज़ादी के जलसे में हुए एक कार्यक्रम में हिन्दी फिल्मों के गीत गा दिए और अपने देश में ट्रोल किए गए. बेशक, वहां भी उनके समर्थक निकल आए, जिन्होंने कहा कि मौसिकी हिन्दुस्तानी या पाकिस्तानी नहीं होती.

पाकिस्तान या भारत समर्थक दिखने का यह डर इतना गहरा है कि यह पाकिस्तान के नए प्रधानमंत्री को भारतीय प्रधानमंत्री की ओर से भेजे गए बधाई पत्र को भी विवादों में डाल देता है. बताया गया कि प्रधानमंत्री मोदी की इस चिट्ठी में पाकिस्तान के साथ 'मीनिंगफुल एंड कंस्ट्रक्टिव एंगेजमेंट' की बात कही गई है. कूटनीतिक शब्दावली में 'एंगेजमेंट' का अर्थ संवाद भी होता है, तो पाकिस्तान के विदेशमंत्री ने इसे भारत की ओर बातचीत की पहल का न्योता बता दिया. इसके बाद भारत ने फौरन इसका खंडन किया और कहा कि वह दृष्टिकोण की बात कर रहा है, संवाद की नहीं. पाकिस्तान को भी कहना पड़ा कि मसला बातचीत का नहीं, दृष्टिकोण का है.

ज़ाहिर है, भारत यह साबित नहीं होने देना चाहता कि वह आतंकी हमलों को लेकर नरम पड़ा है और पाकिस्तान के साथ बातचीत के लिए तैयार है. आतंकवाद और बातचीत साथ-साथ नहीं चल सकते - यह भारत की जानी-पहचानी लाइन है. ज़ाहिर है, उसकी शर्त यह है कि पाकिस्तान पहले आतंकवाद रोके, तब उससे बात होगी. लेकिन अगर पाकिस्तान से बात तक नहीं हो सकती, तो उसे भारत के प्रधानमंत्री के शपथग्रहण समारोह में न्योता कैसे जा सकता है और कैसे भारतीय प्रधानमंत्री बिना किसी योजना के वहां के प्रधानमंत्री को जन्मदिन की बधाई देने जा सकते हैं...?

सिद्धू यही सवाल पूछ रहे हैं. इस पर BJP के प्रवक्ता संबित पात्रा का ऐतराज़ और दिलचस्प है. वह कहते हैं - सिद्धू खुद को प्रधानमंत्री या पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के बराबर न मानें. क्या भारतीय संविधान किसी प्रधानमंत्री को आम नागरिक से ज़्यादा विशेषाधिकार देता है...? प्रधानमंत्री के पास बस वही अधिकार होते हैं, जो जनता उन्हें देती है. वह सरकार का मुखिया होने के नाते बहुत सारे फ़ैसले कर सकते हैं, मगर संसद की मुहर के साथ ही. अंतरराष्ट्रीय कूटनीति के मामले में सरकारें इसीलिए संसद को भरोसे में लेकर चलती हैं. संबित पात्रा कहते हैं, सिद्धू विदेश नीति तय नहीं कर सकते.

लेकिन फिर पूछना होगा, क्या सिद्धू ने कोई विदेश नीति तय की है...? वह बस याद दिला रहे हैं कि जो रास्ता प्रधानमंत्री या पूर्व प्रधानमंत्री ने दिखाया है, वह उसी पर चल रहे हैं. सच तो यह है कि सिद्धू वह भी नहीं कर रहे हैं. सिद्धू बस अपने एक मित्र के कार्यक्रम में हिस्सा लेने गए और इत्तफाकन बाजवा से गले मिल आए.

प्रधानमंत्री जिस 'सकारात्मक नज़रिये' की बात कर रहे हैं, वह दरअसल इस खूबसूरत इत्तफ़ाक से ही बनता है. हिन्दुस्तान का एक आम नागरिक या स्टार या मंत्री वहां के उस सेनाप्रमुख को भी गले लगा सकता है, जिसकी नीति भारत-विरोध की रही है, यह छोटी बात नहीं है. इससे भारत का बड़प्पन झांकता है.

लेकिन अमन की ज़रूरत बताना और अमन के रास्ते से दूर भागना भारत और पाकिस्तान दोनों के नए 'हिन्दू-मुसलमानों' की मजबूरी है. सिद्ध की लानत-मलामत देख उनके पक्ष में बल्लेबाज़ी करने आए इमरान ख़ान ने उन्हें 'अमन का दूत' ज़रूर बताया, लेकिन कहना मुश्किल है कि वह भारत-विरोध की हाल में तेज़ हुई राजनीति को कुछ कम करेंगे. यही हाल भारत का है. पाकिस्तान विरोध नया फ़ैशन है, देशभक्त दिखने का सबसे आसान तरीक़ा है, ऐसे में कोई कैसे बातचीत की बात करे. क्या अब कोई अली सरदार ज़ाफ़री यह कह पाने की हैसियत में है कि 'तुम आओ गुलशने लाहौर से चमन-बरदोश / हम आएं सुबहे बनारस की रोशनी लेकर / हिमाला की हवाओं की ताज़गी लेकर / फिर इसके बाद ये पूछें कि कौन दुश्मन है...'

आज सरदार अली ज़ाफ़री होते, तो फ़ौरन मुसलमान क़रार दिए जाते - कोई यह नहीं देखता कि उनकी सारी उम्र तरक़्कीपसंद ख़यालों और संगठनों में बीती.

प्रियदर्शन NDTV इंडिया में सीनियर एडिटर हैं...

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