विज्ञापन
This Article is From Dec 26, 2018

पार्कों में नमाज़ और उद्धत बहुसंख्यकवाद

Priyadarshan
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    दिसंबर 26, 2018 17:21 pm IST
    • Published On दिसंबर 26, 2018 17:21 pm IST
    • Last Updated On दिसंबर 26, 2018 17:21 pm IST

अगर आप वह वीडियो देखेंगे और सुनेंगे, तो हैरान रह जाएंगे. नोएडा सेक्टर 58 के पार्क में पांच-छह दाढ़ी-टोपी वाले लोग गोल घेरे में बैठकर कुछ पैसा जुटा रहे हैं, कुछ चटाइयां बिछी हुई हैं, एक कर्कश आवाज़ उनसे लगभग बदतमीज़ी से जवाब तलब कर रही है - कहां से आए हो, यहां क्यों आए हो, किससे पूछकर यहां बैठ गए, पुलिस से परमिशन ली है, क्या गड़बड़ करना चाहते हो...? जवाब देने वाले सहमे हुए हैं. वे यह तक नहीं पूछ पा रहे कि अगर वे चार-पांच लोग एक जगह बैठ कर नमाज़ पढ़ने का ही इंतज़ाम कर रहे हैं, तो कौन सा जुर्म कर रहे हैं.

सवाल पूछने वाला और जवाब देने वाले - दोनों भारत के नागरिक हैं. फिर वह कौन सी बात है, जो एक को यह हिम्मत दे रही है कि वह इन लोगों के कामकाज का हिसाब मांगे और दूसरों को इस क़दर कमज़ोर बना रही है कि वे ठीक से जवाब तक देने की हालत में नहीं हैं...? क्या बस इसलिए कि सवाल पूछने वाला हिन्दू है और जवाब देने वाले मुसलमान हैं...?

ध्यान से देखें तो यह सिर्फ उद्धत-उद्दंड बहुसंख्यकवाद की अकड़ है, जिसके आगे दूसरे सहमे हुए हैं. इसी बहुसंख्यकवादी अकड़ से एक शख्स बुलंदशहर में एक इंस्पेक्टर से सवाल पूछता है, एक भीड़ पुलिस टीम को दौड़ाकर मारती है और अंततः इंस्पेक्टर को मार दिया जाता है. इस अकड़ को खुराक कहां से मिलती है, यह आने वाले दिनों में पता चल जाता है, जब सूबे के मुख्यमंत्री को यह हत्या भीड़ की हिंसा नहीं लगती और इस हत्या के आरोपी सरेआम घूमते रहते हैं, वीडियो जारी करते रहते हैं, उन्हें गिरफ़्तार तक नहीं किया जाता.

यह बहुसंख्यकवादी अकड़ कभी सलमान को, कभी शाहरुख़ को और कभी नसीरुद्दीन शाह को उनकी एक वैध चिंता भर के लिए ट्रोल करती है, गालियां बकती है, पाकिस्तान जाने की सलाह देती है और उनका मज़ाक उड़ाने के लिए उनको टिकट के पैसे भी भेजने का नाटक तक करती है.

इस अकड़ को सिर्फ़ सत्ता का नहीं, बहुसंख्यक समाज का भी समर्थन मिलता रहता है. वह बहुत मासूमियत से सार्वजनिक जगहों पर नमाज़ की बहस शुरू करता है और इस बात की अनदेखी करता है कि इस नमाज़ पर ऐतराज़ कौन कर रहा है, उसके तौर-तरीक़े क्या हैं. वह सिर्फ़ नमाज़ पर ऐतराज़ कर रहा है या अपने समाज के लोगों की नागरिकता पर संदेह कर रहा है, उनके परायेपन की ओर इशारा कर रहा है...?

यह बहुत मासूम तर्क है कि सार्वजनिक जगहों पर नमाज़ नहीं होनी चाहिए, लेकिन सार्वजनिक जगहों पर फिर कोई धार्मिक गतिविधि क्यों होनी चाहिए...? बड़ सावित्री की पूजा क्यों होनी चाहिए, लाउडस्पीकर लगाकर जगराते क्यों होने चाहिए, नदी-पोखर-तालाब किनारे छठ क्यों होने चाहिए, दुर्गा पूजा, सरस्वती पूजा या गणेश पूजा पर विसर्जन जुलूस क्यों निकलने चाहिए, सड़कों पर शामियाने क्यों लगने चाहिए, बारात क्यों निकलनी चाहिए...?

यह सब बेतुके सवाल लगेंगे. सच तो यह है कि भारत जिस सांस्कृतिक सार्वजनिकता में सांस लेता है, उसमें ऐसी सार्वजनिक धार्मिकता बिल्कुल सहज स्वीकार्य है. तमाम तरह के पर्व-त्योहार, धार्मिक जुलूस इस परम्परा का हिस्सा हैं. इनका कोई बुरा भी नहीं मानता. उल्टे लोग सड़क किनारे कामकाज रोक कर जुलूस को जाता देखते हैं, उसका आनंद तक लेते हैं. मोहर्रम पर होने वाले सांप्रदायिक तनाव के बावजूद मोहर्रम के जुलूस भी भारतीय स्मृति का हिस्सा हैं. बेशक हाल के दिनों में इस संस्कृति में कई प्रदर्शनप्रिय विकृतियां भी चली आई हैं, लेकिन यह सब भी स्वीकार कर लिया जाता है.

ऐसे माहौल में अचानक नमाज पराई क्यों हो गई, जबकि उसमें बहुत समय नहीं लगता - और मोटे तौर पर सार्वजनिक जीवन में ख़लल नहीं पड़ता. सैद्धांतिक तौर पर यह बात सही हो सकती है कि सार्वजनिक जगहों को ऐसी गतिविधियों से दूर रखा जाए, लेकिन क्या हम वाकई सार्वजनिक जगहों के ऐसे दुरुपयोग को लेकर आहत होते हैं...? गाज़ियाबाद के जिस इलाक़े में पिछले 17 साल से मैं रह रहा हूं, वहां हमारे देखते-देखते दर्जन भर से ज़्यादा मंदिर खड़े हो गए. ये सारे मंदिर सार्वजनिक जगहों पर अवैध कब्ज़े से ही बने हैं - इनकी वजह से एक पार्क कई हिस्सों में बंट चुका है. इसे लेकर कभी कोई विवाद नहीं दिखा. किसी ने यह सवाल नहीं उठाया कि पार्क की ज़मीन पर ये मंदिर कैसे बनते चले गए हैं. किसी ने नहीं पूछा कि पार्क की जगह क्यों छीन ली गई. बहुसंख्यक समाज के उदार नुमाइंदों से आप पूछें, तो वे सिर हिलाते हुए मानेंगे कि ऐसा नहीं होना चाहिए, लेकिन यहां उनकी सैद्धांतिक मुद्रा किसी कार्रवाई में नहीं बदलेगी.

अब उद्धत बहुसंख्यकवाद पर लौटें. ये कौन लोग हैं, जो इन दिनों भारतीयता के, राष्ट्रीयता के, सार्वजनिक जगहों पर क्या होना चाहिए और क्या नहीं - इस हिसाब-किताब के ठेकेदार बने हुए हैं...? ध्यान से देखें तो यह वह बेरोज़गार, बेमक़सद आवारा भीड़ है, जिसके ख़तरों से बरसों पहले हरिशंकर परसाई हमें चेता चुके हैं. राम मंदिर और गोरक्षा जैसे आंदोलन इस बेरोज़गार-बेमक़सद भीड़ को काम भी देते हैं और मक़सद भी. जिस देश को वे ठीक से समझते नहीं, जिस देश में अन्यथा अपनी सामाजिक-आर्थिक हैसियत पर वे कुछ कुंठित जीवन जीने को मजबूर होते हैं, वहां अचानक वे एक संगठन से जुड़ जाते हैं, कुछ नेताओं से परिचित हो लेते हैं, सत्ता का कुछ संरक्षण हासिल कर लेते हैं. उन्हें राजनीति में भी अपना भविष्य दिखने लगता है. अचानक उनके भीतर अपनी धार्मिक पहचान का झूठा गर्व जाग उठता है, एक विकृत सी देशभक्ति जाग उठती है, जिसके निशाने पर पहले पाकिस्तान, फिर मुसलमान, फिर उदारवादी तत्व और फिर अंततः वे सारे लोग होते हैं, जो उनके संरक्षकों की नीति और नीयत के ख़िलाफ़ कुछ बोलते हैं.

यह बहुसंख्यकवादी हेकड़ी क्या-क्या कर सकती है, यह पिछले दिनों में हमने ख़ूब देखा है. उत्तर प्रदेश से बिहार तक जो डरावनी मॉब लिंचिंग चल पड़ी है, वह इसी हेकड़ी का नतीजा है.

नोएडा में भी कुछ लोगों को नमाज़ पढ़ने से रोकने की कोशिश दरअसल नमाज़ से नहीं, नमाज़ अदा करने वालों से परेशानी का नतीजा है. लेकिन फिलहाल जो उदार तत्व इस हेकड़ी का समर्थन कर रहे हैं, उन्हें नहीं मालूम कि दुनियाभर में यह बहुसंख्यकवाद भस्मासुर साबित हुआ है - वह एक दिन उन्हीं को खाने के लिए आगे बढ़ेगा - तब पछताने का भी समय नहीं रह जाएगा.

प्रियदर्शन NDTV इंडिया में सीनियर एडिटर हैं...

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति NDTV उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं. इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार NDTV के नहीं हैं, तथा NDTV उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है.

NDTV.in पर ताज़ातरीन ख़बरों को ट्रैक करें, व देश के कोने-कोने से और दुनियाभर से न्यूज़ अपडेट पाएं

फॉलो करे:
Listen to the latest songs, only on JioSaavn.com