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This Article is From Feb 08, 2018

...वे अब महादेवी वर्मा से टैक्स लेंगे

Priyadarshan
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    February 08, 2018 14:54 IST
    • Published On February 08, 2018 14:54 IST
    • Last Updated On February 08, 2018 14:54 IST
आज के राजनीतिक-सामाजिक माहौल में किसी नगर निगम से यह उम्मीद करना एक तरह का अन्याय है कि वह अपने लेखकों-कलाकारों या संस्कृतिकर्मियों को भी पहचानेगा. इस बात से क्या होता है कि महादेवी वर्मा हिन्दी लेखक भर नहीं, आधुनिक भारत की उन मनीषी महिलाओं में रही हैं, जिनका नाम कई पीढ़ियां गौरव से लेती रही हैं और इलाहाबाद वह शहर है, जिसे कभी भारत की साहित्यिक राजधानी माना जाता था. इलाहाबाद नगर निगम ने महादेवी वर्मा से उनके निधन के 30 साल बाद 44,000 रुपये का मकान कर मांगा है और खुद पेश होने को कहा है, वरना यह मकान ज़ब्त हो जाएगा.

बहुत संभव है कि महादेवी वर्मा के निधन के बाद जो ट्रस्ट बना, उसके वारिसों ने इस बात पर कभी ध्यान न दिया हो कि इस घर की मिल्कियत का हस्तांतरण करवाया जाए. यह भी संभव है कि इन वर्षों में मकान का 44,000 रुपये टैक्स इकट्ठा हो गया हो, लेकिन यहां मसला यह नहीं है कि यह टैक्स मांगा जाना चाहिए या नहीं, बस यह है कि हम अपनी विरासत के प्रति, अपने पुरखों के प्रति, अपने साहित्यिक-सांस्कृतिक अग्रजों के प्रति संवेदनशील हैं या नहीं. हम किस स्मृतिविपन्न समय में जी रहे हैं कि उस लेखक तक की हमें स्मृति नहीं है, जो हमारे शहर की पहचान रहा है...?

निःसंदेह, यह दुर्घटना सिर्फ़ महादेवी के साथ नहीं हुई है, इलाहाबाद में निराला और पंत के साथ भी हुई है, बनारस में प्रेमचंद और प्रसाद के साथ हुई है, दिल्ली में मीर और ग़ालिब के साथ हुई है और बिहार में दिनकर और रेणु के साथ हुई है. इस सूची में कई और शहर और नाम जोड़े जा सकते हैं. बेशक, दिल्ली के बल्लीमारान में कुछ बरस पहले ग़ालिब के घर को स्मारक मे तब्दील किया गया, लेकिन उसे देखकर ख़ुशी कम, मायूसी ज़्यादा होती है. इसी तरह इलाहाबाद के दारागंज में निराला की स्मृति को और लमही में प्रेमचंद की स्मृति को बचाने के जतन जारी हैं, लेकिन ज़्यादातर ये काम उनके वारिसों द्वारा ही किए जा रहे हैं, उसमें व्यापक समाज का योगदान नहीं है.

महादेवी पर लौटें. जब वह जीवित थीं और राजस्थान गई हुई थीं, तब वहां के मुख्यमंत्री जगन्नाथ पहाड़िया ने एक कार्यक्रम में उनके दुरूह होने, समझ में न आने की बात कही थी. इसके बाद जगन्नाथ पहाड़िया की जो थू-थू हुई, वह जीवनभर उनके साथ चिपकी रही. हालांकि पहाड़िया को शायद यह भी लगा कि उनके हरिजन होने की वजह से इसे मुद्दा बनाया गया है.

लेकिन यह महादेवी की लोकप्रियता और स्वीकृति थी, जिसका सम्मान इंदिरा गांधी तक करती थीं. कहते हैं, कभी संजय गांधी ने महादेवी से अवमाननापूर्ण व्यवहार किया था, जिसके लिए इंदिरा गांधी ने उनसे क्षमा मांगी. यह भी कहते हैं कि अपने विक्षिप्त दिनों में अपनी सनकों के लिए मशहूर निराला अगर किसी के सामने सीधे हो जाते थे, तो वह महादेवी थीं.

इस महादेवी को अब इलाहाबाद भूल गया, तो उसका बहुत ज़्यादा कसूर नहीं है. अब कोई किसी को याद नहीं करता. महादेवी दुरूह कवयित्री हैं, अब कम पढ़ी जाती हैं, लेकिन जो ज्यादा पढ़ा जाता है, उसका क्या हाल है...? जिस रहीम के दोहे हर कोई दोहराता है, उनका मकबरा दिल्ली के निज़ामुद्दीन में सन्नाटे में खड़ा है, यह किसको मालूम है. मध्य प्रदेश में दुष्यंत कुमार के घर की हालत देखकर अफ़सोस होता है.

महादेवी को आधुनिक मीरा कहते रहे. उनकी कविता में दुख और करुणा के प्राधान्य को रेखांकित किया गया. 'मैं नीर भरी दुख की बदली' को उनकी कविता के प्रतीक वाक्य में बदल दिया गया. लेकिन यह सच है कि महादेवी में जितना दुख था, जितनी करुणा थी, जितना जल था, जितने आंसू थे, उससे ज़्यादा आग, चिन्गारियां और मोती थे - 'आज जिस पर प्रलय विस्मित, मैं लगाती चल रही नित, मोतियों की हार और चिन्गारियों का एक मेला, पंथ रहने दो अपरिचित, प्राण रहने दो अकेला...'

लेकिन सवाल है, महादेवी दुख की कवयित्री हों या विद्रोह की, आंसुओं की हों या मोती की - उन्हें हम क्यों याद करें...? यही सवाल दूसरे लेखकों के संदर्भ में भी पूछा जा सकता है. मीर की सादाबयानी का, गालिब की विडंबना का, प्रसाद के सभ्यता विमर्श का, निराला के स्वाभिमान का, मुक्तिबोध की वेदना का हमारे लिए क्या मतलब है...? हम एक ऐसे इकहरे समय में रह रहे हैं, जब सारे मतलब पैसे से सधते हैं. हर सरोकार के साथ एक सवाल जुड़ा रहता है - इसका हमें क्या फ़ायदा है...? फ़ायदे के बिना अब हम कुछ नहीं करते, वह फ़ायदा भी बहुत तात्कालिक-त्वरित होना चाहिए, देर से या दूर से मिलने वाला फ़ायदा फ़ायदेमंद नहीं है.

इस मुद्रामुखी, फ़ायदापसंद सभ्यता का एक ख़तरनाक पहलू यह है कि हम पहले से कम मनुष्य रह जा रहे हैं - किन्हीं आदर्शवादी इकहरे अर्थों में नहीं, शुद्ध संवेद्यता के स्तर पर. हम चीज़ों को महसूस नहीं कर पा रहे. कविता या साहित्य या कलाएं अलग से कुछ नहीं करते - वे हमें जीवन की तहों से परिचित कराते हैं - रंगों के भीतर छुपे रंगों से, ध्वनियों के भीतर छुपी ध्वनियों से, आकारों में छुपे निराकार से, दृश्यों में छुपे अदृश्य से. इससे जीवन की हमारी समझ बढ़ती है, संवेदना बढ़ती है, स्मृति का संसार बढ़ता है, अपने सार्थक होने का एहसास बड़ा होता है.

दुर्भाग्य से यह सब हमारे समय और समाज में छीजता जा रहा है. हम या तो सिर्फ़ नेताओं को जानते हैं या कारोबारियों को, हमारे लिए बस सफलता मूल्यवान है और सफलता का इकलौता मतलब ज़्यादा से ज़्यादा पैसा है. इसलिए सारी पढ़ाई, सारा उद्यम इसी पैसे के लिए हो रहा है. इसमें लोग अपने मां-पिता को याद नहीं करते, महादेवी को कौन करे. इलाहाबाद ने सिर्फ़ इस प्रवृत्ति की नए सिरे से याद दिलाई है. इसकी निंदा भी एक कर्मकांड भर लगती है.

लेकिन यह फिर भी ज़रूरी है - ताकि कोई कसक, कोई पीड़ा सिर उठाए और याद दिलाए कि जीवन सिर्फ भूलने का नाम नहीं है. हमारी कवयित्री कह गई है - 'दूसरी होगी कहानी, शून्य में जिसके मिटे स्वर, धूलि में खोई निशानी...'

प्रियदर्शन NDTV इंडिया में सीनियर एडिटर हैं...

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