अब इस समुदाय को कैसे पुकारें...?

इस अस्पृश्यता को तोड़ने की उम्मीद में गांधी जी ने उन्हें एक नाम दिया था - कहा था कि वे ईश्वर की संतान हैं.

अब इस समुदाय को कैसे पुकारें...?

फाइल फोटो

सरकार जिन्हें अनुसूचित जाति की श्रेणी में रखती है, वे कौन लोग हैं...? क्यों उनके लिए ऐसी सूची बनाने की ज़रूरत पड़ी...? क्योंकि समाज ने बरसों नहीं, सदियों तक उन्हें हाशिये पर रखा, अस्पृश्य बनाए रखा, उनसे अपने सबसे ज़रूरी - मगर हाथ गंदे करने वाले - काम करवाए. उनकी छाया तक को अपवित्र माना गया. वे अछूत और अस्पृश्य कहलाए. इस अस्पृश्यता को तोड़ने की उम्मीद में गांधी जी ने उन्हें एक नाम दिया था - कहा था कि वे ईश्वर की संतान हैं. उन्हें उम्मीद थी कि शायद इससे यह अस्पृश्यता का भाव टूटेगा, लेकिन इस मोड़ पर गांधी की सद्भावना के मुकाबले अम्बेडकर का यथार्थ बोध ज़्यादा प्रामाणिक साबित हुआ. अम्बेडकर ने कहा कि ऐसे नाम परिवर्तन से काम नहीं चलेगा. यह नाम भी धीरे-धीरे उसी अस्पृश्यता से जुड़ जाएगा. वास्तव में ऐसा हुआ भी. सरकार ने इस शब्द को भी प्रतिबंधित कर दिया.

लेकिन तब तक अनुसूचित जनजातियों की राजनीति काफी आगे बढ़ चुकी थी. वे गांधी के दिए नाम को नकार चुके थे. वे अपने यथार्थ को पहचानने और उससे मुठभेड़ करने की कोशिश कर रहे थे. उन्होंने एक ऐतिहासिक तथ्य की तरह इस बात को पहचाना कि उनका दलन हुआ है, दमन और शोषण हुआ है. इस दमन के ख़िलाफ़ उन्हें ल़ड़ना है. यह लड़ाई कई मोर्चों पर एक साथ चली. इस समुदाय ने अपनी कहानी लिखी, कविता लिखी, आत्मकथाएं लिखीं. मराठी में शरण कुमार लिंबाले की आत्मकथा 'अक्करमाशी' आई, तो तहलका मच गया. मराठी में पूरा एक राजनीतिक-साहित्यिक आंदोलन चल पड़ा. नामदेव ढसाल, लक्ष्मण गायकवाड, बेबी कांबले, दया पवार और ऐसे ढेर सारे लेखक सामने आए, जिनकी आज अखिल भारतीय स्वीकृति है. दूसरी भाषाओं में भी यह प्रक्रिया चली.

हिन्दी में भी इन समुदायों का साहित्य लगातार समृद्ध होता चला गया है. ओम प्रकाश वाल्मीकि, मोहनदास नैमिषराय, तुलसी राम, श्यौराज सिंह बेचैन, सूरज सिंह पालीवाल, सुशीला ठाकभौंरे, रजनी तिलक और अनिता भारती जैसे कई लेखकों ने समाज के उस सच को सामने रखा, जो अब तक बाकी लोगों के लिए अनजाना बना हुआ था. यही नहीं, उन्होंने मुख्यधारा की संवेदना और आलोचना पर भी सवाल खड़े किए. धर्मवीर जैसे आलोचक ने प्रेमचंद को कठघरे में ला खड़ा किया और कबीर के तमाम आलोचकों पर एक के बाद एक हमले किए.

साहित्य और विचार के अलावा राजनीति ने इस विमर्श में बड़ा हस्तक्षेप किया. अम्बेडकर की वैचारिक-सैद्धांतिक राजनीति को कांशीराम ने बिल्कुल व्यावहारिक रूप दिया और देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश ने इन समुदायों की पहली सरकार देखी. आज की तारीख़ में केंद्र की NDA सरकार और BJP की राजनीति को सबसे तीखी और उग्र चुनौती यही राजनीतिक धारा दे रही है. यह अनायास नहीं है कि 2019 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का विकल्प बन सकने वाले जो चेहरे साझा विपक्ष के गठबंधन में दिख रहे हैं, उनमें मायावती सबसे आगे हैं.

लेकिन जब यह राजनीति देश के भविष्य में एक अहम भूमिका अदा कर रही है, जब यह हमारे समाज को अपनी बद्धमूल धारणाओं से उबरने को मजबूर कर रही है, जब यह सांप्रदायिकता की राजनीति के ख़िलाफ़ सबको लामबंद करने में जुटी है, तब बॉम्बे हाइकोर्ट से चली सलाह और केंद्र सरकार के निर्देश ने उससे उसका नाम छीन लिया है. उसकी पहचान छीन ली है. कहा जा रहा है कि इन्हें अनुसूचित जाति के लोग कहा जाए, लेकिन अनुसूचित जाति के विशेषण में जो लाचारी और दयनीयता दिखती है, क्या वह इस समुदाय के मौजूदा राजनीतिक-सामाजिक उभार से मेल खाती है...? जब SC/ST एक्ट के प्रावधानों को सुप्रीम कोर्ट ने कुछ नरम कर दिया, तो देशभर में इसके ख़िलाफ़ आवाज़ उठी. हालत यह हुई कि सरकार को जल्द ही संशोधन विधेयक लाकर पुराना क़ानून बहाल करना पड़ा.

नया मामला SC/ST एक्ट की नरमी से कहीं ज़्यादा संगीन है. एक समुदाय से उसकी वह पहचान छीन लेना छोटी बात नहीं है, जिसने उसके भीतर अपने दमन का एहसास भी पैदा किया और उससे लड़ने की सामूहिक ताक़त भी दी. क्या कोई बॉम्बे हाइकोर्ट की इस सलाह के ख़िलाफ़ कहीं अपील करेगा, ताकि हम इस समुदाय को उसका नाम लौटा सकें...?


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