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This Article is From Aug 26, 2014

प्रियदर्शन की बात पते की : आडवाणी युग का अंत

Priyadarshan
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  • Updated:
    नवंबर 19, 2014 15:40 pm IST
    • Published On अगस्त 26, 2014 20:11 pm IST
    • Last Updated On नवंबर 19, 2014 15:40 pm IST

साल 1990 में एक ट्रक को रथ की शक्ल देकर सोमनाथ से अयोध्या तक की यात्रा पर निकले लालकृष्ण आडवाणी ने क्या कभी सोचा होगा कि उनके रथ का जो सारथी है, वही एक दिन उनको रथ से उतार देगा? क्या 2002 में जब उन्होंने नरेद्र मोदी को राजधर्म न निभाने पर वाजपेयी के कोप से बचाते हुए अभयदान दिया होगा, तो सोचा होगा कि कभी नरेंद्र मोदी ही उनको परदे के पीछे पहुंचाने का काम करेंगे?

इसमें शक नहीं कि भारतीय राजनीति में आडवाणी की शख्सियत कई विडंबनाओं से बनी शख्सियत है। अपनी ऊर्जा और अपने आंदोलन से उन्होंने बीजेपी को शिखर तक पहुंचाया, लेकिन कभी ख़ुद शिखर तक नहीं पहुंच पाए। तब माना गया कि वाजपेयी की उदार छवि ने उन्हें आडवाणी से बड़ा नेता बना दिया। लेकिन जब ख़ुद आडवाणी ने उदार होने की कोशिश की तो पार्टी ने उनके साथ बहुत सख्त सलूक किया। और जब पार्टी अपने दम पर बहुमत में आई तो इस पार्टी में आडवाणी की हैसियत ऐसे बुज़ुर्ग की रह गई जिसको सब मान देते हैं, लेकिन जिन पर कोई ध्यान नहीं देता।

वैसे इस विडंबना को ठीक से देखें तो ये उनकी निजी नहीं राजनीतिक विडंबना भी है। सच तो ये है कि आज नरेंद्र मोदी की सख्त और कट्टर छवि ठीक वैसी है, जैसी कभी आडवाणी की हुआ करती थी। ये इतिफाक से ज़्यादा राजनीतिक प्रशिक्षण और विरासत का नतीजा है कि आडवाणी और मोदी दोनों खुद को लौह पुरुष पटेल की छवि में देखते हैं।

फिर यह आडवाणी ने ही सिखाया कि दिल्ली क़रीब दिखे तो अयोध्या को भूल जाना चाहिए। आज अटल और आडवाणी से मुक्त बीजेपी एक नई पार्टी है− ये नरेंद्र मोदी के युग की बीजेपी है, जो राम मंदिर, अनुच्छेद 370 या समान नागरिक संहिता की बात नहीं करती। वह विकास की पैकेज में लपेट कर उस आक्रामक हिंदुत्व की बात करती है, जिसे अपने दबदबे के अलावा कुछ मंज़ूर नहीं। उसे राष्ट्रवाद चाहिए, लेकिन दकियानूसी और स्वदेशी परंपराएं नहीं, बल्कि ऐसा राष्ट्रवाद चाहिए जो बाज़ार को रास आए।

इस बीजेपी में व्यवहार के आधार पर सिद्धांत गढ़े जाते हैं, सिद्धांत की कसौटी पर व्यवहार नहीं। ये नई बीजेपी नरेंद्र मोदी से ही शुरू होती है और उन्हीं पर ख़त्म होती है− पार्टी के भीतर के बाकी संगठन भी उन्हीं की हसरत और सियासत को आकार देने के लिए हैं। आडवाणी को ये इशारा बार−बार दिया गया कि अब वह पार्टी में शोभा की वस्तु हैं, जिनके पांव छुए जाएंगे, लेकिन जिनसे राह नहीं पूछी जाएगी। फिर भी आडवाणी रास्ता दिखाने पर अड़े रहे। पार्टी ने आख़िरकार उन्हें ही रास्ता दिखा दिया।

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