योगेंद्र यादव और पश्चाताप की गांधीवादी विरासत

किसान आंदोलन ने बीते एक वर्ष में कई भूलें की हैं. 26 जनवरी को लाल किले पर जो कुछ हुआ, उसने आंदोलन को काफी क्षति पहुंचाई थी. लखीमपुर कांड के बाद भीड़ की हिंसा और फिर गुरु ग्रंथ साहिब के अपमान के नाम पर एक शख्स की बर्बर हत्या वे बदनुमा दाग हैं जो किसान आंदोलन के पूरे वजूद पर सवाल खड़े करते हैं.

योगेंद्र यादव और पश्चाताप की गांधीवादी विरासत

संयुक्त किसान मोर्चा ने योगेंद्र यादव को एक महीने के लिए निलंबित कर दिया है. उनका कसूर यह है कि उन्होंने भीड़ के हाथों मारे गए बीजेपी कार्यकर्ता शुभम मिश्रा के परिवार में जाकर उनसे हमदर्दी जताई. योगेंद्र यादव ने इस निलंबन पर बहुत संयत प्रतिक्रिया दी है. उनका कहना है कि मोर्चे का फैसला सिर माथे पर है, लेकिन हमारे समय में बहुत स्थूल संवेदनाएं हावी हैं और सूक्ष्म एहसासों पर किसी की नज़र नहीं है. वह याद दिला रहे हैं कि गुरु गोविंद सिंह भी युद्ध के दौरान घायल दुश्मन को पानी पिलाने को इंसानियत का काम मानते थे और महाभारत में भी रात को युद्ध बंद हो जाता था. राम मनोहर लोहिया और किशन पटनायक के इस शिष्य को वैसे भी संभवत यह बात कचोट रही हो कि वह ऐसे आंदोलन का हिस्सा हैं जिसने जायज़ गुस्से में ही सही- लेकिन 4 लोगों की हत्या की है.

लेकिन एक और प्रसंग है जो इस घटना के संदर्भ में कहीं ज़्यादा मौजूं है. अमृतसर में जलियांवाला बाग हत्याकांड के बाद कांग्रेस का अधिवेशन हुआ था. उस अधिवेशन में जलियांवाला बाग हत्याकांड की तीखी निंदा का प्रस्ताव आया. लोगों ने पाया कि इस प्रस्ताव में उसके पहले अमृतसर में भीड़ की हिंसा में मारे गए अंग्रेज़ो की हत्या की भी निंदा है. इसको लेकर कांग्रेसियों में बहुत तीखा असंतोष पैदा हुआ. उन्होंने प्रस्ताव के हिस्से को खारिज कर दिया. उन्होंने कहा कि भारत मां का कोई बेटा ऐसा कोई प्रस्ताव तैयार नहीं कर सकता. लोगों को संदेह था कि यह प्रस्ताव एनी बेसेंट ने तैयार किया है. राजमोहन गांधी अपनी किताब 'मोहनदास' में केएम मुंशी के हवाले से इस प्रसंग की चर्चा करते हुए बताते हैं फिर अगले दिन महात्मा गांधी ने इस विषय पर बात की. उन्होंने कहा कि यह प्रस्ताव उन्होंने रखा है और बहुत विचार करके देखा कि सिर्फ़ भारत मां का बेटा ही ऐसा कोई प्रस्ताव रख सकता है.

हम चाहें तो इसे योगेंद्र यादव का 'गांधी लम्हा' कह सकते हैं- किसी आंदोलन के दौरान मनुष्यता की बुनियादी शर्त को बचाए रखने की वह कोशिश जो आंदोलन को और गरिमा देती है. चौरी चौरा की हिंसा के बाद गांधी ने इसलिए आंदोलन वापस ले लिया था कि उन्हें अहिंसा को दांव पर लगाकर कोई जीत नहीं चाहिए थी. अंग्रेज अगर पागल हो गए हैं तो उनके जवाब में भारतीय भी पागल हो जाएं- वे इसके ख़िलाफ़ थे.

इत्तेफाक से लखीमपुर खीरी और भी वजहों से लोगों को जलियांवाला बाग की याद दिला रहा है. दोनों तुलनाएं निःसंदेह उचित नहीं हैं. जलियांवाला बाग का हत्याकांड ब्रिटिश शासन के एक अफ़सर की नृशंस कार्रवाई था जिसमें हज़ारों लोग मारे गए. लेकिन लखीमपुर खीरी में जो कुछ हुआ वह भी सत्ता की हनक का एक ख़ौफ़नाक रूप था. आप विरोध में काले झंडे दिखा रहे लोगों पर गाड़ियां चढ़ा दें, यह किसी लोकतंत्र में क्या, किसी भी राजनीतिक सामाजिक व्यवस्था में स्वीकार्य नहीं हो सकता. इस घटना के जो वीडियो सामने आए हैं, उन्हें देखने के बाद यह दलील गले नहीं उतरती कि यह महज एक हादसा था. डरावनी बात यह है कि हादसे की दलील यही तक टिकी नहीं है. उसकी शुरुआत किसानों पर हमले का आरोप लगाने से हुई और गाड़ी ख़राब होने या ड्राइवर की तबीयत ख़राब होने के बहाने तक जाती दिखी.

जलियांवाला बाग और लखीमपुर को जोड़ने की एक वजह और भी है. लखीमपुर खीरी के आरोपियों के साथ यूपी पुलिस का बर्ताव जितना नरम है, उसे देख कर फिर से जनरल डायर के साथ ब्रिटिश सरकार के उदार रुख़ की याद आती है. लखीमपुर खीरी के मुख्य अभियुक्त के पिता अजय मिश्रा केंद्र सरकार में गृह राज्य मंत्री हैं, इस तथ्य से सरकार को शर्मिंदा होना चाहिए, लेकिन वह कतई नहीं है. प्रधानमंत्री मोदी उल्टे यूपी आकर सरकार की पीठ ठोक रहे हैं कि अब यहां माफ़िया गिरोह माफ़ी मांगते घूमते हैं.

तो अब लगभग साल भर से चल रहे किसान आंदोलन को यह समझ में आना चाहिए कि उसका सामना एक ऐसी सरकार से है जिसके लिए अपना अहंकार उसकी भावना से कहीं ज़्यादा बड़ा है. वह इस आंदोलन को बदनाम करने की पूरी कोशिश कर रही है. वह इसमें फूट डालने की भी कोशिश कर रही है. योगेंद्र यादव के निलंबन से आंदोलन नैतिक स्तर पर भी कमज़ोर होगा और रणनीतिक स्तर पर भी. क्योंकि अपनी बहुत सारी सीमाओं के बावजूद योगेंद्र यादव इस किसान आंदोलन के सबसे समर्थ प्रवक्ता हैं. संभव है उनके पीछे किसानों का विशाल जन समर्थन न हो, संभव है कि उनके पास लोगों को जुटाने के बहुत सारे साधन न हों, लेकिन वह आंदोलन की आवाज़ हैं- ऐसी आवाज़ जिसे ध्यान से सुना जाता है.

यह संदेह भी पूरी तरह बेजा नहीं है कि योगेंद्र यादव के निलंबन के पीछे संयुक्त किसान मोर्चा की अंदरूनी राजनीति भी हो. आखिर तीन दर्जन से ज़्यादा संगठनों और नेताओं का यह मोर्चा कई मामलों में एक-दूसरे से काफी भिन्न और असहमत राय भी रखता है. इसके भीतर भी अहंकार और अविश्वास के कई छोटे-छोटे टापू हैं. दरअसल एक वजह यह भी है कि योगेंद्र यादव जैसी कोई संयत आवाज बनी रहनी चाहिए जो सबको जोड़ सके.

किसान आंदोलन ने बीते एक वर्ष में कई भूलें की हैं. 26 जनवरी को लाल किले पर जो कुछ हुआ, उसने आंदोलन को काफी क्षति पहुंचाई थी. लखीमपुर कांड के बाद भीड़ की हिंसा और फिर गुरु ग्रंथ साहिब के अपमान के नाम पर एक शख्स की बर्बर हत्या वे बदनुमा दाग हैं जो किसान आंदोलन के पूरे वजूद  पर सवाल खड़े करते हैं. इस दौर में गांधी होते तो शायद वे यह आंदोलन वापस ले चुके होते. क्योंकि यह किसान आंदोलन का नैतिक बल ही होगा जो उसे आने वाले कल को कोई जीत दिला सकता है. यह आंदोलन दरअसल सिर्फ तीन कृषि कानूनों की वापसी की मांग का आंदोलन नहीं रह गया है, यह इस देश में लोकतंत्र के सम्मान का आंदोलन भी हो गया है.

इसलिए यह ज़रूरी है कि अगर किसान आंदोलन से चूकें हुई हैं तो उनका पश्चाताप भी हो. गांधी के आंदोलन में जगह-जगह ऐसे पश्चाताप दिखते हैं जो उनको और उनके संघर्ष को अनूठी मानवीय गरिमा प्रदान करते हैं.

योगेंद्र यादव ने शुभम मिश्र के घर जाकर एक तरह से इसी पश्चाताप की शुरुआत की थी. इसकी वजह से जीप से लोगों को कुचल कर मारने वाले मामले के न्याय का भी दबाव मज़बूत होगा. लेकिन योगेंद्र यादव को निलंबित कर किसान मोर्चा इस पश्चाताप का अवसर गंवा रहा है. उसे अपने फ़ैसले पर पुनर्विचार करना चाहिए. इससे उनके आंदोलन की आभा बढ़ेगी- बल्कि उसके भीतर मानवीयता के तत्व को लेकर एक पुनर्विचार भी शुरू होगा.

प्रियदर्शन NDTV इंडिया में एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर हैं...

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