तीन दिन पुरानी बात है. मैंने सब्ज़ी वाले को फोन किया- आधा किलो नींबू चाहिए. वह हंसने लगा. नींबू कबसे नहीं ख़रीदा है? उसने बताया कि नींबू 280 रुपये किलो है और तीन सौ रुपये के पार जाना है. मैं हैरान था. बाद में पता चला कि नींबू कई जगह 300 रुपये किलो के पार बिक रहा है.
यह सच है कि नींबू किलो के भाव नहीं बिकता. वह कभी रुपये में चार आता था, बाद में पांच रुपये में चार आने लगा. पिछले कुछ दिनों में 10 रुपये में चार आ रहा था. लेकिन नींबू-पानी भी वह चीज़ है जो इस देश के ग़रीबों की सेहत दरुस्त रखने के काम आती रही. वह ग़रीब आदमी शायद नींबू ख़रीदना छो़ड चुका है और अमीर आदमी को बड़ी-बड़ी चीज़ों की परवाह है.
नींबू ही नहीं, फल भी इसी तरह महंगे हैं. सेब-संतरा-अंगूर तो पहले से वीआइपी थे, ककड़ी भी शतक बनाने के करीब है और अमरूद भी 100 के पार है. हालत ये है कि अब ग़रीब आदमी इस देश में फल नहीं खा सकता. यह स्थिति इसलिए ज़्यादा त्रासद है कि महज कुछ ही साल पहले इस देश के गरीबों को बहुत सारे फल मुफ़्त खाने मिल जाते थे. घरों और बागानों में आम, अमरूद, अनार के पेड़ होते थे. अरुंधती राय ने नर्मदा को लेकर लिखी अपनी किताब 'बहुजन हिताय' में एक बुज़ुर्ग से अपनी बातचीत का ज़िक्र किया है. वह उनसे पूछती है कि उन्होंने जीवन में कितनी तरह के फल खाए हैं. वह आदमी अपनी स्मृति से 41 तरह के फलों के नाम गिनाता है. आज हम इसकी कल्पना नहीं कर सकते. कहने की ज़रूरत नहीं कि यही हाल सब्ज़ियों का है.
लेकिन संसद में सरकार महंगाई पर बहस कराने को तैयार नहीं है. वह बस यूक्रेन युद्ध का हवाला दे रही है कि इसकी वजह से पेट्रोल़-डीज़ल महंगे हो गए. मगर यूक्रेन का मसला तो बीते डेढ़ महीने का है. उसके पहले भी पेट्रोल सौ के पार बिक रहा था. बस यूपी के चुनाव आए तो सरकार को ख़याल आया कि जनता पर बोझ बढ़ रहा है. उसके पहले तो अंतरराष्ट्रीय तेल बाज़ार में कच्चे तेल की क़ीमत भी कम थी. अब भी कच्चा तेल इतना महंगा नहीं है जितना यूपीए के कार्यकाल में था. लेकिन तब पेट्रोल के बढ़ते दाम और मनमोहन सिंह की उम्र को लेकर बीजेपी के नेता अशालीन टिप्पणियां करते थे और उनके समर्थक चुटकुले बनाया करते थे. यही नहीं, उन्हीं दिनों बीजेपी की कई महिला नेता महंगाई से इतनी परेशान थीं कि सब्ज़ियों की माला पहन कर जुलूस निकाला करती थीं.
लेकिन अब उन्हें महंगाई नहीं सताती है. उनकी सरकार बजट सत्र में महंगाई पर बहस कराने को तैयार नहीं होती. इस देश के मीडिया को भी महंगाई का खयाल नहीं आता. महंगाई का मतलब उसके लिए बस पेट्रोल-डीज़ल के बढ़ते दाम हैं. शायद उसे अपनी महंगी गाड़ियों के और महंगे पड़ने का खयाल सताता हो. जनता भी महंगाई की परवाह करती नहीं दीखती. क्या वह इतने पैसे कमाने लगी है कि उसे ये बढ़ते दाम न चुभें? या उसने खाने-पीने-जीने का अंदाज़ बदल लिया है?
कभी महंगाई पर इस देश में सरकारें बदली हैं. बीजेपी को याद होगा, 1998 में दिल्ली में मदनलाल खुराना की सरकार को प्याज के बढ़े दाम की क़ीमत चुकानी पड़ी थी. कभी वनस्पति घी और कभी चीनी के महंगे होने को लेकर राजनीतिक नारे बनते थे. लेकिन शायद अब एक 'न्यू नॉर्मल' हम सबकी प्रतिक्रियाएं तय कर रहा है. इस न्यू नॉर्मल में अब सौ रुपये तक पेट्रोल नहीं खलता. अब एक डॉलर के मुक़ाबले 76 को छूता रुपया परेशान नहीं करता. हम सब नया अर्थशास्त्र पढ़ने लगे हैं. अब हमें पता चला है कि पेट्रोल-डीज़ल महंगे होंगे तो सरकार को ज़्यादा टैक्स मिलेगा. सरकार की कमाई होगी तो देश का विकास होगा- सड़कें बनेंगी, पुल बनेंगे और स्कूल खुलेंगे. सरकार के पास पैसा नहीं होगा तो विकास कहां से होगा?
लेकिन अर्थशास्त्र की इस पढ़ाई में कई बातें छूट जा रही हैं. सरकार जितनी सरकारी संपत्तियां बेच रही है उसका पैसा कहां जा रहा है? आम तौर पर किसी भी आपदा के लिए प्रधानमंत्री राहत कोष होता है जो बरसों से सुचारू रूप से काम कर रहा है. लेकिन उससे अलग पीएम केयर्स फंड बनाया गया. इस फंड में कितने पैसे हैं और उसका क्या इस्तेमाल हो पाया- यह ठीक से किसी को नहीं मालूम. इसके अलावा सरकार ने विनिवेश के नाम पर बहुत बड़ी रक़म जुटाई. सरकारी परिसंपत्तियां बेची गईं, उनमें हिस्सा बेचा गया. फिर खाली पड़ी सरकारी संपत्ति को लीज़ पर देने की एक नई योजना सामने आई. बेशक, इन सबके असर से भारत समृद्ध हुआ है- लेकिन वह अमीर भारत की समृद्धि है. मंगलवाल को आई फ़ोर्ब्स की रिपोर्ट बताती है कि बीते एक साल में भारत के अरबपति-समुदाय में 166 नए अरबपति जुड़ गए. इस एक साल में उनकी कुल संपत्ति 26 फ़ीसदी बढ़ गई. जबकि इसी एक साल में हमने मध्यवर्ग को निम्नमध्यवर्ग में जाते देखा, बच्चों के स्कूल छूटते देखे, ग़रीब को और गरीब होते देखा, दुकानों के आगे भिखमंगों की बढ़ती कतार देखी जिनमें बहुत सारे ऐसे बच्चे थे जिन्हें स्कूलों में होना चाहिए था, अस्पतालों मे बेड न मिलने से और मिल जाने के बावजूद ऑक्सीजन की कमी से मरते लोग देखे.
मगर ये सब मुद्दे नहीं हैं. मुद्दा किसी अल ज़वाहिरी का बयान है जिसे किसी ने नहीं देखा है. मुद्दा गोरखनाथ मंदिर के सामने हथियार लेकर दौड़ते मुर्तज़ा का है जिसके बारे में उसके पिता बता चुके कि वह अवसाद में है. मुद्दा हिजाब है मुद्दा नमाज़ है, मुद्दा बार-बार दूसरों को देशभक्ति साबित करने की चुनौती है, मुद्दा अरबन नक्सल हैं, मुद्दा लिटररी नक्सल हैं, मुद्दा वे सब हैं जिनसे किसी भी ठोस सवाल से बचने में मदद मिलती हो.
सौ बरस से ऊपर हुए चार्ल्स डिकेंस ने एक उपन्यास लिखा था- द ब्लीक हाउस. उपन्यास के शुरू में पूरे लंदन में कोहरा छाया हुआ है. इसी कोहरे में एक जज एक फ़ैसला पढ़ने की कोशिश कर रहा है जो ऐसे केस के बारे में है जिसे लड़ने वाले भूल चुके हैं कि उसका मुद्दा क्या था. इस ब्रिटेन की संसद में सांसदों के नाम डूड़ल, फूडल, कूडल हैं- यानी सब एक जैसे जो घंटों किसी विषय पर बोल सकते हैं. उपन्यास में ऐसी समाजसेविकाएं हैं जिन्हें पड़ोस के बच्चों का दर्द नहीं दिखता, लेकिन जो अफ्रीका के बच्चों के लिए मदद भेजती हैं. उन्नीसवीं सदी का वह बेतुका ब्रिटेन जैसे अब भारत में घटित हो रहा है- लगभग उसी संसदीय लोकतंत्र की तर्ज पर, जिसे हमने वहीं से आयात किया है.
बेशक, आने वाले दिनों में ब्रिटेन बदला, वहां की संसदीय राजनीति सकारात्मक ढंग से बदली. क्या हम भी कल को बदलेंगे? दुर्भाग्य से यह उन्नीसवीं नहीं, इक्कीसवीं सदी है. शासकों ने लोकतंत्र का लबादा उतारने के परिणाम देख लिए हैं. अब वो लोकतंत्र के लबादे में ही बहुत सारे काम करते हैं. लेवित्स्की और ज़िब्लैट की किताब ‘हाउ डेमोक्रेसीज़ डाई' मूलतः अमेरिकी अनुभव पर केंद्रित है, लेकिन वह बताती है कि अब लोकतंत्र फौजी बूटों और संगीनों से कुचला नहीं जाता, उसे बिल्कुल लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं से नष्ट किया जाता है. हम अपने देश में शायद यही होता देख रहे हैं- और खरबपतियों की पूंजी शायद इस काम में नेताओं की मददगार है. फिलहाल सारे संसाधन उन्हीं के पास हैं- नींबू तक, जो ये लेख लिखे जाने तक 400 रुपये किलो का हो गया बताया जा रहा है.
प्रियदर्शन NDTV इंडिया में एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर हैं...
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