रविवार को टी-20 वर्ल्ड कप में भारत-पाकिस्तान का मैच देखते हुए एक दिलचस्प साम्य पर ध्यान गया. भारतीय प्रशंसकों ने जो टी शर्ट पहन रखी थी, उस पर भी पेप्सी का विज्ञापन था और पाकिस्तान समर्थकों ने भी जो शर्ट पहन रखी थी उस पर भी पेप्सी बनी हुई थी. यानी मैच भारत जीते या पाकिस्तान- अंततः यह पेप्सी की जीत थी.
खेलों पर बाज़ार के इस नियंत्रण के खेल को कुछ और करीब से समझने की कोशिश करें तो पता चलेगा कि बाज़ार लगभग हमारे पूरे जीवन को नियंत्रित कर रहा है. पहली नज़र में यह बाज़ार सारे मूल्यों से निरपेक्ष नज़र आता है- यानी धर्म, जाति, रंग या भाषा के भेदभाव से परे- लेकिन उसकी यह सयानी निरपेक्षता चुपचाप उन सारे आवेगों और उन्मादों को हवा देती चलती है जिससे उसका मुनाफ़ा सधता है. पाकिस्तान में यह बाजार पाकिस्तानी राष्ट्रवाद का जुनून तैयार करता है और भारत में भारतीय राष्ट्रवाद का. यह बाज़ार दिवाली भी मनाता है, ईद भी और क्रिसमस भी. यह सबको माल बेचने के त्योहार में बदलने की कोशिश करता है. इस कोशिश में आधुनिक दिखने की, सबको साथ लेकर चलने की एक नीतिगत रणनीति भी नज़र आती है कभी-कभी जो बाज़ार को उलटी पड़ जाती है.
मसलन पिछले दिनों 'फैब इंडिया' ने सोशल मीडिया पर अपने नए कलेक्शन 'जश्ने रिवाज़' की घोषणा की. लेकिन यह 'जश्ने रिवाज़' होता क्या है? पहली बात तो यह कि सही शब्द 'रिवाज़' नहीं, 'रिवाज' है- यानी ज में नुक़्ता नहीं आता. दूसरी बात यह कि जश्न का रिवाज तो होता है, रिवाज का जश्न नहीं होता, त्योहार की रवायत होती है, रवायत का त्योहार नहीं होता. दरअसल यह एक अर्थहीन पद था जो मूलतः हिंदी-उर्दू के भाषिक संस्कार से अपरिचित अंग्रेज़ीदां लोगों ने एक सांस्कृतिक अवसर के कारोबारी इस्तेमाल के लिए गढ़ा. संकट यह है कि जिस सूक्ष्मता से ये अपरिचित थे, उससे उनके विरोधी भी अपरिचित थे. उनको इसमें हिंदू संस्कृति की भावना का अतिक्रमण नज़र आने लगा. उनको लगा कि ये हिंदी त्योहारों का इस्लामीकरण करने की कोशिश है. यह एक हास्यास्पद तर्क था लेकिन इतने भर से फैब इंडिया के हाथ-पांव फूल गए और उसने विज्ञापन वापस ले लिया.
समकालीन और आधुनिक दिखने की बाज़ार की चाहत और हर बदलाव को संदेह से देखने वाली परंपरा की दृष्टि के बीच टकराव का ताज़ा मामला डाबर का विज्ञापन है. इस विज्ञापन में एक समलैंगिक दंपती करवा चौथ का पर्व मना रहे हैं. दो लड़कियों के प्रेम का यह सुंदर दृश्य है. लेकिन इससे मध्य प्रदेश के गृह मंत्री नरोत्तम मिश्र की भावना आहत हो गई है. उन्हें लग रहा है कि ये विज्ञापन और फिल्में बनाने वाले हिंदू भावनाओं का खयाल नहीं रखते. बहरहाल, डाबर ने भी अब उनकी भावनाओं का सम्मान रखते हुए इस विज्ञापन को वापस ले लिया है.
निस्संदेह ऐसा नहीं होना चाहिए था. समलैंगिकता धीरे-धीरे हमारे समाज में स्वीकृत अवधारणा हो रही है. किसी भी लोकतांत्रिक समाज के भीतर ऐसे संबंधों को मान्यता दी जा रही है. लेकिन क्या डाबर को इस लोकतांत्रिकता या आधुनिकता की फ़िक्र थी? अगर होती तो करवा चौथ को लेकर चल रही बहस पर भी उसकी नज़र होती. करवा चौथ पितृसत्तात्मकता को मज़बूत करने वाला त्योहार है- यह भी एक आधुनिक दृष्टि है.
लेकिन बाज़ार के खेल और परंपरा की ज़िद के बीच विज्ञापन बनाने या वापस लेने का मामला इतना सरल नहीं है. इसने दरअसल आधुनिकता को भी व्यर्थ बना दिया है और परंपरा को भी. सबकुछ क्रय-विक्रय के लिए है या फिर इस्तेमाल के लिए. इस इस्तेमाल का दूसरा सिरा पूंजी नियोजित राजनीति में मिलता है जो तरह-तरह के उन्माद का भयानक सांप्रदायिकीकरण करने पर तुली है.
जिस क्रिकेट मैच से यह बात शुरू हुई थी, वहीं लौटते हैं. इस मैच में भारत बुरी तरह हारा. खेल में हार-जीत लगी रहती है. कभी-कभी आप शानदार ढंग से जीतते हैं और कभी बुरी तरह हारते हैं. लेकिन इस हार की कसक बिल्कुल राष्ट्रवादी रुदन में बदल गई. बाज़ार ने पिछले दिनों कुछ ऐसा ही माहौल बनाया था. बताया जा रहा था कि भारत की टीम कितनी मज़बूत है, कि भारत वर्ल्ड कप में पाकिस्तान से एक मैच भी नहीं हारा, कि भारत के अनुभवी गेंदबाज़, भारत के महान बल्लेबाज़- सब मिलकर वर्ल्ड कप जीतने वाले ही हैं. 24 अक्टूबर को दरअसल भारत-पाकिस्तान के बीच एक मैच नहीं हो रहा था, एक तरह से वह युद्ध लड़ा जा रहा था जो भारत और पाकिस्तान के उन्मादी अवाम के दिल में बरसों से बसाने की कोशिश की जा रही है. भारत यह युद्ध जीत जाता तो यह मोदी की जीत होती और इमरान की हार होती. लेकिन भारत के खिलाड़ियों ने यह सुनहरा मौक़ा उनसे छीन लिया. बहरहाल, अभी बहुत सारे मुक़ाबले बाकी हैं और संभव है कि भारतीय क्रिकेटर भारतीय क्रिकेट प्रेमियों को गर्व करने और नेताओं को बधाई देने के अवसर मुहैया कराएं.
लेकिन भारत हारा क्यों? वह पूरे मैच में कहीं भी संघर्ष करता नज़र क्यों नहीं आया? क्योंकि उस पर थकान हावी दिख रही थी. यह थकान किस बात की थी? कहीं आईपीएल की तो नहीं? चाहें तो याद कर सकते हैं कि इसी आइपीएल में शामिल होने की हड़बड़ी में भारतीय खिलाड़ियों ने इंग्लैंड का दौरा अधूरा छोड़ दिया. दोनों देशों के बीच आखिरी टेस्ट मैच खेला नहीं जा सका. अब आइपीएल में अपनी सारी ताक़त लगा चुकने के बाद वहां के स्टार बुमरा, भुवनेश्वर और शमी यहां गेंदबाज़ी करने आए तो उन्होंने पाया कि पाकिस्तान के खिलाड़ी उनसे आउट होने को तैयार नहीं हैं.
यानी बाजार के शिकार सब हैं. मगर सबसे ज़्यादा कौन है? इस हार के लिए सबसे ज़्यादा ट्रोल मोहम्मद शमी को किया जा रहा है. यानी फिर वह नंगी सांप्रदायिकता अट्टहास करती सामने आ गई है जो फिलहाल इस मुल्क को चलाने का दम भरती है. मोहम्मद शमी अपनी धार्मिक पहचान के लिए पाकिस्तान पक्षधर बताए जा रहे हैं. वैसे यह सांप्रदायिक खेल भी पुराना है, लेकिन बार-बार इसलिए लौट आता है कि इन वर्षों में उदारीकरण के अनाप-शनाप पैसे से पोषित, हिंदू-विकास के पक्षधरों द्वारा प्रायोजित राजनीति चरम बहुसंख्यकवाद की ओर बढ़ रही है जिसमें लगभग हर मामले को सांप्रदायिक चश्मे से देखा जा रहा है.
राहत की बात बस इतनी है कि क्रिकेट के खिलाड़ी अपने खेल का धर्म नहीं भूले हैं. भारतीय क्रिकेट टीम इस मौक़े पर अपने तेज़ गेंदबाज़ मोहम्मद शमी के साथ खड़ी है. वह शमी के आलोचकों को धिक्कार रही है. इसी तरह भारत-पाक मैच को उन्माद में बदलने वालों को विराट कोहली की वे तस्वीरें हैरान कर रही हैं जिनमें वे पाकिस्तान के खिलाड़ियों के साथ बहुत आत्मीय ढंग से गले मिल रहे हैं. कम लोगों को पता होगा कि कल अर्धशतक लगाने वाले रिज़वान सहित कई पाकिस्तानी खिलाड़ी विराट कोहली के फैन हैं और रिज़वान तो उनको अपना आदर्श बताकर पाकिस्तान में ही ट्रोल हो चुके हैं. इसके पहले जब नीरज चोपड़ा ने भाला फेंक में ओलिंपिक का सोना जीता था तब भी कुछ लोग पाकिस्तान के खिलाड़ी को ट्रोल करने की कोशिश में थे. नीरज चोपड़ा ने उन्हें सख़्त शब्दों में फटकार लगाई थी.
इत्तिफ़ाक से जिस दिन भारत पाकिस्तान से वर्ल्ड कप में अपनी हार का ज़ख़्म भुलाने की कोशिश कर रहा है, उसी दिन आइपीएल में दो नई टीमों के शामिल होने का एलान हुआ है. अब अगले आइपीएल में लखनऊ और अहमदाबाद की टीमें भी हिस्सा लेंगी.
यानी बाज़ार का खेल चलता रहेगा. एक तरह से चलते रहना भी चाहिए. आख़िर बाज़ार ही हम लोगों की रोज़ी-रोटी भी जुटाता है, हमारे मनोरंजन का सामान भी. लेकिन यह देखना होगा कि बाज़ार को हम कहां-कहां कितनी-कितनी इजाज़त देंगे. हमारा लोकतंत्र बाज़ार को चलाएगा या बाज़ार हमारे लोकतंत्र को चलाएगा? फिलहाल स्थिति यही दिख रही है. बाज़ार और सत्ता का गठजोड़ लगातार लोकतंत्र को कमज़ोर कर रहा है, उसे बस आवरण की तरह इस्तेमाल कर रहा है. इस आवरण के पीछे खेल को तमाशे में बदला जा रहा है, तमाशे के भीतर धर्म की पहचान की जा रही है, फिल्मकारों पर कीचड़ फेंकी जा रही है, विज्ञापनों को वापस लेने पर मजबूर किया जा रहा है. बाज़ार की नकली आधुनिकता और उसके विरुद्ध खड़ी कठमुल्ला ताक़तों की परंपरा की स्थूल समझ- यह दोनों आपस में कहीं गलबहियां डाले चल रहे हैं और कहीं एक-दूसरे से उलझे हुए हैं. स्वस्थ परंपरा भी रुद्ध है और सहज आधुनिकता भी स्थगित. ऐसे में खेल हो, फिल्म हो या विज्ञापन- सब जगह तरह-तरह की विडंबनाएं ही हमारे लिए बच जाती हैं.
प्रियदर्शन NDTV इंडिया में एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर हैं...
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