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This Article is From Oct 30, 2019

कश्मीर की दीवार में कोई खिड़की नहीं रहती

Priyadarshan
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अक्टूबर 30, 2019 16:14 pm IST
    • Published On अक्टूबर 30, 2019 15:59 pm IST
    • Last Updated On अक्टूबर 30, 2019 16:14 pm IST

अगर कश्मीर में ज़मीन खरीदने और कश्मीरी लड़कियों से शादी करने का बाक़ी भारतीयों का उत्साह कुछ कम हुआ हो तो उन्हें अब इस पर भी सोचना चाहिए कि अनुच्छेद 370 को बेमानी बनाए जाने के क़रीब तीन महीने बाद कश्मीर के हालात क्या हैं? इसकी प्रामाणिक जानकारी देने वाले स्रोत फिलहाल बहुत कम हैं. केंद्र सरकार बिल्कुल खोखले प्रचार तंत्र के सहारे एक सुनहरी लेकिन अविश्वसनीय तस्वीर पेश कर रही है. मीडिया को अब तक वहां भीतर तक जाने या सच बोलने की इजाज़त नहीं है. छन-छन कर जो ख़बरें आती हैं, अगर वे आधी भी सच हों तो डराने वाली हैं. ऐसा लग रहा है जैसे अनुच्छेद 370 नाम की लकीर को मिटाने की कोशिश में भारत सरकार ने कश्मीर और बाक़ी भारत के बीच एक लोहे की दीवार खड़ी कर दी है.

जो बिल्कुल प्रामाणिक तथ्य हैं, उनके आधार पर कुछ अनुमान अवश्य लगाए जा सकते हैं. वहां तीन पूर्व मुख्यमंत्री अब भी कैद हैं. उनके साथ बहुत सारे दूसरे सामाजिक और राजनीतिक कार्यकर्ता और नेता बंद हैं, इसका प्रमाण हाइकोर्ट में रोज आ रही बंदी प्रत्यक्षीकरण की याचिकाएं हैं. लैंडलाइन और पोस्टपेड फोन शुरू किए जाने की घोषणाएं बता रही हैं कि हालात फिर भी सामान्य नहीं हैं, क्योंकि प्रीपेड मोबाइल फोन इस्तेमाल करने वाले लाखों लोग इससे वंचित रखे गए हैं. इन तीन महीनों में इंटरनेट बंद है. सिर्फ़ कल्पना की जा सकती है कि इस युग में इंटरनेट बंद होने का असली मतलब क्या है- बाक़ी दुनिया से पूरी तरह कट जाना. इस कटी हुई दुनिया के भीतर सरकार कभी स्कूल खोल रही है, कभी इम्तिहान ले रही है, कभी ब्लॉक चुनाव करवा रही है, कभी पुलिस की भर्तियां कर रही है- लेकिन हालात सामान्य होते नज़र नहीं आ रहे. पिछले कुछ हफ़्तों में अब बाहरी लोग लगातार निशाने पर आ रहे हैं. सेब का कारोबार खतरे में है.

ये एक तरह से 80 लाख की आबादी को एक बड़ी क़ैद में रखना है. उन्हें या तो सेना की मर्ज़ी पर या आतंकवादियों-अलगाववादियों के रहम पर रखना है. अगर वहां विश्वसनीय सामाजिक या राजनीतिक प्रतिनिधि क़ैद से बाहर होते तो शायद इस आबादी को उसकी लगातार बढ़ रही हताशा से बाहर निकालने का कुछ जतन करते. वे भारतीय लोकतंत्र के भीतर फिर भी कश्मीर के हिस्से की गुंजाइश बनाए रखते. सरकार को अगर उनसे फिर भी एतराज़ था तो वह मुख्यधारा के राजनीतिक दलों के सांसदों को वहां जाने की इजाज़त देती. लेकिन यह काम भी नहीं किया गया.राहुल गांधी को हवाई अड्डे से वापस किया गया. सीताराम येचुरी और ग़ुलाम नबी आज़ाद सुप्रीम कोर्ट की इजाज़त के बाद वहां जा सके. कुल मिलाकर कश्मीर को किसी भी तरह की राजनीतिक प्रक्रिया से अलग-थलग कर दिया गया. सरकार ने धारा 370 हटा दी, लेकिन दीवार खड़ी कर दी और इसी पर वह अपनी पीठ थपथपा रही है.

लेकिन इसके बाद सरकार ने जो कुछ किया है, वह ज़्यादा डर और अचरज पैदा करने वाला है. एक लॉबीइंग फ़र्म के तौर पर जानी जाने वाली संस्था के ज़रिए यूरोपीय संघ के 27 सांसदों को भारत आकर प्रधानमंत्री से मिलने और कश्मीर जाने का न्योता दिया गया. जो लोग आए, उनमें से 4 ने वहां जाने से इनकार कर दिया. एक ने बिल्कुल स्पष्ट कहा कि वह सरकार का माउथपीस बनने के लिए नहीं आए हैं, अगर उन्हें खुल कर लोगों से बात करने की इजाज़त नहीं दी गई तो वहां जाने का कोई फ़ायदा नहीं है. एक अन्य सांसद ने हैरानी जताई कि जब उन्हें वहां जाने दिया जा रहा है तो भारतीय सांसदों और नेताओं को क्यों नहीं?

भारत सरकार के स्तर पर अगर यह कूटनीति थी तो किसी फूहड़ पीआर एक्सरसाइज़ से भी बुरी थी. यह बात खुलने में जरा भी वक़्त नहीं लगा कि यूरोपीय संघ के सांसदों का यह दौरा यूरोपीय संसद का आधिकारिक दौरा नहीं है, बल्कि इन्हें इनकी निजी हैसियत से बुलाया गया है. यह बात भी स्पष्ट हो गई कि इन सांसदों का चुनाव उनके राजनीतिक रुझानों के आधार पर किया गया है जो मोटे तौर पर दक्षिणपंथी या धुर दक्षिणपंथी हैं. अब यह सवाल उठ रहा है कि एक लॉबीइंग फ़र्म को इतनी ताकत और हैसियत कैसे दे दी गई कि वह इन सांसदों को भेजी जा रही चिट्ठी में बताए कि वह इन्हें प्रधानमंत्री से मिलाएगी और कश्मीर ले जाएगी? यही नहीं, सवाल यह भी उठ रहा है कि इस समूचे तामझाम के पीछे किसका पैसा है?

लेकिन इस पूरी क़वायद का नतीजा क्या होता दिख रहा है? पहला अंदेशा तो यही है कि भारत सरकार ने अपनी ओर से इस मामले के अंतरराष्ट्रीयकरण की एक गुंजाइश पैदा कर दी है. जब आप बाहरी सांसदों को ऐसे माहौल में बुलाते हैं तो फिर उनको ही नहीं, दूसरों को भी टिप्पणी करने का हक़ मिल जाता है. फिर ज़रूरी नहीं कि ये सारे के सारे सांसद लगभग वही भाषा बोलें जो आप चाहते हैं. इनमें से एक सांसद ने बाक़यदा यह कह भी दिया कि अगर भारत और पाकिस्तान चाहें तो यूरोपीय संघ मध्यस्थता कर सकता है.

दूसरा नतीजा और उदास करने वाला है. सरकार के सबसे अहम मंत्रालयों को क़रीब से देखने वाले संवाददाता इस बात की पुष्टि कर रहे हैं कि इस पूरी क़वायद से विदेश मंत्रालय अनजान या दूर खड़ा है. ये सारे फ़ैसले प्रधानमंत्री कार्यालय के स्तर पर किए जा रहे हैं. यह बात भी हैरान करती है कि यूरोप से आए इन सांसदों को प्रधानमंत्री के अलावा राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार से मिलाया गया, विदेश मंत्री से नहीं. तो क्या वैदेशिक मामलों में भी पीएमओ विदेश मंत्रालय को किनारे कर रहा है?

अगर ऐसा है- जो बहुत सारे अन्य मामलों में भी दिखता है तो कई लिहाज से ख़तरनाक है. पिछले कुछ वर्षों के सारे चढ़ाव-उतार के बावजूद भारतीय विदेश नीति जिन लोगों के हाथों में रही है, उन्हें अंतरराष्ट्रीय कूटनीति की कहीं ज़्यादा समझ रही है और उसकी जटिलताओं से निबटने का कहीं ज़्यादा बेहतर अनुभव. यहां लेकिन इस अनुभव का लाभ तक लेने की कोशिश नहीं की गई, जिसका भी यह नतीजा है कि यह सारी क़वायद एक हास्यास्पद खेल में बदल गई. यह भारतीय लोकतंत्र के उस संसदीय ढांचे की भी अवहेलना है जिसमें कार्यपालिका को मंत्रिमंडल के तौर पर काम करना है जिसके प्रमुख प्रधानमंत्री होंगे. अभी तो ऐसा लग रहा है कि सारी शक्तियां सिर्फ प्रधानमंत्री कार्यालय में सीमित हो गई हैं और बाक़ी मंत्रालय- विदेश मंत्रालय तक- बेमानी बना दिए गए हैं. याद कर सकते हैं कि रफ़ाल सौदे को लेकर सामने आए कुछ दस्तावेजों में रक्षा मंत्रालय की यह शिकायत दिखी थी कि पीएमओ सौदे को लेकर समामांतर बातचीत कर रहा है और इसका असर मोलतोल की भारतीय क्षमता पर पड़ रहा है.

कश्मीर पर लौटें. अगर हम उसे अपना अभिन्न हिस्सा मानते हैं तो इसे साबित भी करना होगा. वह दीवार गिरानी होगी जो कश्मीर में बाकी भारत को- उसके राजनीतिक नुमाइंदों को आने-जाने से रोकती है. आप न कश्मीरियों पर भरोसा करें और न ही दूसरे लोगों पर- और इसके बावजूद कहते रहें कि कश्मीर अपना है तो यह भावुक दलील नहीं चलेगी. लेकिन यह दलील का नहीं, देश का मामला है- कश्मीर को खुली हवा में सांस लेने दीजिए, उसे बाक़ी दुनिया से बात करने दीजिए, थोड़ी-बहुत राजनीति करने दीजिए, गुस्से में कुछ बोलने भी दीजिए, तभी वह सामान्य होगा और हमारे क़रीब होगा. वरना ऐसे हालात जितने लंबे खिंचेंगे कश्मीर उतना ही पीछे खिसकता जाएगा. यूरोपीय सांसदों की हास्यास्पद यात्राएं सरकारी कोशिशों को अविश्वसनीय ही बनाएंगी. 
 

प्रियदर्शन NDTV इंडिया में सीनियर एडिटर हैं...

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