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This Article is From Jan 22, 2020

निर्भया के इंसाफ़ की गरिमा बनाए रखें- उसे जल्दबाज़ी भरे प्रतिशोध में न बदलें

Priyadarshan
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    दिसंबर 12, 2020 01:07 am IST
    • Published On जनवरी 22, 2020 16:33 pm IST
    • Last Updated On दिसंबर 12, 2020 01:07 am IST

निर्भया की मां आशा देवी का दुख निस्संदेह बहुत बड़ा है. इस दुख को समझना मुश्किल नहीं है. उनकी बेटी के साथ बहुत बर्बर और घृणित व्यवहार हुआ और उसके मुजरिमों को अब तक सज़ा नहीं मिली है. लेकिन सांत्वना की बात इतनी भर है कि ये मुजरिम सजा के बिल्कुल आख़िरी सिरे पर हैं, ख़ुद को मिले अंतिम क़ानूनी विकल्पों का इस्तेमाल कर रहे हैं और इनकी सज़ा के लिए गिनती के दिन रह गए हैं. यही नहीं, न्याय से जुड़ी संस्थाएं जितनी तेज़ी से न्याय की इस प्रक्रिया को आगे बढ़ा रही हैं, वह रफ़्तार किसी और केस में दिखाई नहीं पड़ती.

इस लिहाज से आशा देवी यह संतोष भी कर सकती हैं कि उनकी बेटी के इंसाफ़ का हश्र वह नहीं हुआ जो हर साल निर्भया जैसी हज़ारों लड़कियों का होता है. वे घरों से, सड़कों से उठा ली जाती हैं, बलात्कार के बाद फेंक दी जाती हैं और इंसाफ़ के नाम पर एक बहुत निष्ठुर और संवेदनहीन व्यवस्था उनको ही बहुत देर तक मुजरिम ठहराने में लगी रहती है.

निर्भया के साथ अगर ऐसा कुछ नहीं हुआ तो इसलिए कि वह सिर्फ़ आशा देवी की बेटी नहीं रह गई थी, इस देश की बेटी बन गई थी. 16 दिसंबर, 2012 की वह दर्दनाक वारदात हर किसी ने अपने भीतर सिहरते हुए महसूस की थी और तभी तय किया था कि इस मामले को इंसाफ़ के किसी मोड़ तक पहुंचाकर ही वे दम लेंगे. उस समय चले आंदोलन का ही असर था कि निर्भया का न्याय इस तेज़ी से इस नतीजे तक पहुंच पाया. निर्भया एक प्रतीक बन गई- स्त्री के सम्मान की, स्त्री के अधिकार की और न्याय की उस बुनियादी अवधारणा की, जिसमें किसी के साथ अन्याय न हो. निर्भया मामले के बाद चले आंदोलन ने ही यह सुनिश्चित किया कि स्त्री सुरक्षा से जुड़े क़ानून बदले जाएं.

वे कौन लोग थे जिन्होंने उस वक़्त यह आंदोलन चलाया था? वही दिल्ली के अलग-अलग विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाली- जेएनयू, जामिया, और दिल्ली यूनिवर्सिटी से निकल कर आई लड़कियां जो अपनी लैंगिक बराबरी के लिए लगातार लड़ रही हैं, इंदिरा जय सिंह जैसी वही मानवाधिकारों से जुड़ी विभूतियां जो किसी की कुछ न लगते हुए भी हर लड़ाई में अपना हाथ बंटाने चली आती हैं. इनमें तरह-तरह की लड़कियां थीं- कुछ जो मानती थीं कि निर्भया के मुजरिमों को बिल्कुल सड़क पर फांसी दे देनी चाहिए, और कुछ जो मानती थीं कि इन्हें भारतीय क़ानून के मुताबिक सज़ा मिले और कुछ ये भी मानती थीं कि सारे गुस्से के बावजूद इन लोगों की सज़ा उम्रक़ैद ही होनी चाहिए, फांसी नहीं.

लेकिन सात साल बाद जब निर्भया का न्याय बिल्कुल आख़िरी मंज़िल पर है तो अचानक आशा देवी इन मानवाधिकारवादियों को धंधा करने वाला बता रही हैं. क्या 2012 में जो मानवाधिकारवादी लड़कियां सड़क पर उतरी थीं, वे मानवाधिकारों के नाम पर कोई धंधा कर रही थीं? क्या अगर ये लड़कियां न होतीं तो आशा देवी यह लड़ाई अपने बूते यहां तक खींच कर ले आतीं? जाहिर है, आशा देवी को यह समझना होगा कि निर्भया बस उनकी बेटी नहीं है, वह इस देश में स्त्री अधिकार की ही नहीं, स्त्री आंदोलन की भी प्रतीक बन गई है. उसका इंसाफ बेहद ज़रूरी है- लेकिन उसे इंसाफ़ की तरह ही आना चाहिए- किसी घायल मां के हिंसक प्रतिशोध की तरह नहीं. मगर पिछले कुछ दिनों से अचानक बहुत सारे लोग निर्भया के मुजरिमों को जल्दी से जल्दी फांसी पर लटकाने की मुहिम के समर्थक बन गए हैं. अचानक उन्हें इस देश की न्याय व्यवस्था के अलग-अलग चरण बहुत ढीले-ढाले लगने लगे हैं. उन्हें लग रहा है कि सात साल में इंसाफ़ नहीं हुआ तो कब होगा.

लेकिन इस देश में सात साल में कौन सा इंसाफ़ होता है? यह सच है कि मुक़दमों का बहुत देरी तक चलते रहना कोई बहुत अच्छी बात नहीं है. लेकिन ये मुक़दमे दो वजहों से टलते रहते हैं- एक तो अदालतों और जजों की कम संख्या, दूसरे कई मामलों में जान-बूझ कर ली जाने वाली तारीख़ें. मुक़दमों को टालते रहने का यह काम ज़्यादातर अमीर आरोपियों की ओर से होता है जिनके वकील क़ानून की एहतियाती धाराओं का अपने पक्ष में इस्तेमाल करते हैं. निर्भया के मामले में ये दोनों बातें नहीं हो रहीं. उल्टे हम पा रहे हैं कि क़ानून पर अमल सुनिश्चित करने वाली संस्थाओं को अर्ज़ियों के निबटारे में जो शालीन धीरज दिखाना चाहिए, वह भी नहीं दिखाया जा रहा. रिव्यू पिटीशन या क्यूरिटिव पिटीशन या मर्सी पिटीशन आ रही है और बिना वक़्त लगाए ख़ारिज कर दी जा रही है. जाहिर है, कोशिश उस मामले में जल्द से जल्द न्याय दिलाने की है जिसकी हूक पूरे देश ने महसूस की है.

बेशक, निर्भया के आरोपियों के वकील यह कोशिश कर रहे हैं कि वे अपने लिए उपलब्ध सभी कानूनी विकल्पों का युक्तिपूर्वक इस्तेमाल कर अपने मुवक्किलों को अधिकतम समय तक फांसी के फंदे से दूर रख सकें. एक तरह से देखें तो इस वजह से मुजरिमों को जो अतिरिक्त समय मिल रहा है, उसमें भी एक प्राकृतिक न्याय छुपा हुआ है- मारे जाने में जितनी यातना है, मारे जाने का इंतज़ार करने में शायद उससे ज़्यादा.

लेकिन इसे न्याय में विलंब का मामला मान कर न्याय की प्रक्रियाओं पर ही सवाल खड़े करेंगे तो शायद उस ज्यादा बड़े लक्ष्य को ओझल कर देंगे जो निर्भया के इंसाफ़ के साथ जुड़ा हुआ है. अब निर्भया का इंसाफ़ एक लड़की का इंसाफ़ नहीं रह गया है, वह आशा देवी की बेटी के इंसाफ़ का मामला भी नहीं रह गया है, वह भारत में लैंगिक बराबरी और इंसाफ़ का मामला हो गया है. बहुत सारे उत्साही लोग हालांकि अभी ही इस बात का महत्व ठीक से न समझते हुए निर्भया के मामले में फांसी-फांसी की ऐसी रट लगाए हुए हैं जिससे न्याय का बुनियादी औचित्य ही क्षतिग्रस्त होता नजर आता है.

इसलिए आशा देवी को कुछ सब्र रखना होगा. उनके दुख का समंदर बहुत गहरा है. लेकिन यह एक सार्वजनिक दुख भी है. इसमें यह पीड़ा भी शामिल है कि बलात्कार के बहुत सारे मामलों में सज़ा होना तो दूर, वे अदालत तक भी नहीं पहुंच पाते. इसके अलावा इसमें यह समझ भी शामिल है कि सज़ाएं जितनी कड़ी होती जाती हैं, उतनी ही दूर होती जाती हैं. यह भी कि कम से कम फांसी की सज़ा किसी मानवीय व्यवस्था में उचित नहीं मानी जाने लगी है. निर्भया को जो कुछ भुगतना पड़ा, उसमें कम बर्बर व्यवहार गुजरात की बिलकिस बानो को नहीं भुगतना पड़ा. लेकिन वह अपने मुजरिमों की उम्रक़ैद से ही संतुष्ट है. जेसिका को गोली मारने वाले मनु शर्मा ने कुछ साल पहले एक इंटरव्यू में यह कहा था कि जेसिका तो एक दिन में ख़त्म हो गई, वह रोज़ सज़ा काट रहा है. नीतीश कटारा की हत्या के मुजरिम विकास यादव को उम्रक़ैद ही मिली है. कई साल पहले जब यह केस चल रहा था और विकास यादव के पीछे उसके बाहुबली राजनीतिक पिता की ताक़त थी तो किसी ने नीतीश की मां नीलम कटारा से पूछा था- क्या उन्हें उम्मीद है कि उन्हें इंसाफ़ मिलेगा? उन्होंने कहा था, इंसाफ़ मिलता नहीं, होता है- और उन्हें भरोसा है कि इंसाफ़ होगा.

दरअसल यही असली भरोसा है- इंसाफ़ होने का भरोसा. हमारी तरह के लोग कुलदीप सेंगर जैसे अपराधी के लिए भी फांसी की नहीं, उम्रक़ैद की ही सज़ा मांग सकते हैं. क्योंकि न्याय की अवधारणा को भी अंततः एक मर्यादा में रहना चाहिए- उसे किसी की जान लेने के अमानवीय विकल्प तक नहीं जाना चाहिए.

(प्रियदर्शन NDTV इंडिया में सीनियर एडिटर हैं...)

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