बुधवार को ब्रिटेन की संसद में सर जॉन चिल्कॉट ने 6000 पन्नों की एक जांच रिपोर्ट तैयार की है। इसे 26 लाख शब्दों के सहारे लिखा गया है और 12 वॉल्यूम में बांटा गया है। सात साल की मेहनत के बाद आई इस रिपोर्ट का नाम है द इराक इन्क्वायरी। सर चिल्कॉट को कहा गया था कि वे 2001 से 2009 के बीच इराक को लेकर ब्रिटेन की नीतियों का अध्ययन करें और बतायें कि क्या 2003 में इराक पर हमला करना सही और ज़रूरी था। यह सवाल इसलिए उठा क्योंकि द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद ब्रिटेन पहली बार किसी संप्रभु राष्ट्र पर हमला करने, कब्ज़ा करने के युद्ध में शामिल हुआ था। निश्चित रूप से सद्दाम हुसैन क्रूर तानाशाह था जिसने इराक के पड़ोसी देशों पर हमला किया था, अपने ही लोगों को मरवाया था और संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की बंदिशों का पालन नहीं किया था। सर चिल्काट की रिपोर्ट इस नतीजे पर पहुंची है कि ब्रिटेन ने युद्ध में शामिल होने का फैसला करने से पहले शांतिपूर्ण विकल्पों का चुनाव नहीं किया। उस वक्त सैनिक कार्रवाई अंतिम विकल्प नहीं थी।
उस वक्त युद्ध के ख़िलाफ़ दुनिया भर में प्रदर्शन हो रहे थे। ब्रिटेन में ही दस लाख से अधिक लोग सड़कों पर उतर आए थे। युद्ध के ख़िलाफ बात करने वालों को आतंकवाद का समर्थक बताया जाता था। जॉर्ज बुश जिसे इतिहास ने गर्त में फेंक दिया वो आतंकवाद से लड़ने वाला मसीहा बताया जाता था। अब उसी अमेरिका के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार डॉनल्ड ट्रंप ने कहा है कि सद्दाम हुसैन बहुत बुरा आदमी था पर क्या आपको पता है उसने क्या सही चीज़ की। उसने आतंकवादियों को मारा। आज इराक आतंकवादियों का हावर्ड बना हुआ है। आतंक का हावर्ड। बुश से लेकर ट्रंप तक हम एक काम नहीं कर पाए। वो ये कि अपने राजनेताओं का स्तर ऊंचा नहीं कर पाए। मूर्खता ही सत्य है। तब भी खेल था इनके लिए, आज भी खेल है। तब ऐसी ही भाषा में बुश दुनिया को बता रहे थे। सद्दाम हुसैन के पास मानवता को नष्ट करने वाला रसायनिक हथियार हैं। जिसे अंग्रेज़ी में वेपन ऑफ मास डिस्ट्रक्शन कहा जाता है। चिल्काट ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि इराक के पास रसायनिक हथियार होने के ख़तरों के जिन दावों के आधार पर पेश किया गया उनका कोई औचित्य नहीं था। तमाम चेतावनियों के बाद भी आक्रमण के बाद के नतीजों का सही आंकलन नहीं किया गया। सद्दाम हुसैन के बाद क्या होगा इसकी कोई तैयारी नहीं थी। सरकार ने जो लक्ष्य बताये थे, उसे हासिल करने में नाकाम रही।
बुधवार को हाउस ऑफ कामंस में इस रिपोर्ट को लेकर खूब बहस हुई। आज लेबर पार्टी विपक्ष में थी मगर 2003 में लेबर पार्टी सत्ता में थी और 43 साल के टोनी ब्लेयर की खूब धूम थी। उन्हें टोनी टेफलान कहा जाता था, यानी जिनकी छवि इतनी चिकनी थी कि कोई आरोप चिपकते ही नहीं थे। मगर ईमानदारी की वो छवि भी धोखा साबित हुई और उसके नाम पर ब्लेयर ने एक मुल्क के लाखों लोगों को मरवाने के खेल में शामिल होने का फैसला किया। इसके लिए अपने मंत्रिमंडल से झूठ बोला। अपनी संसद से झूठ बोला। इसलिए मुमकिन है कि दुनिया के राष्ट्र प्रमुख अपने देश की जनता से झूठ बोलते हैं। जब भी नेता कहे कि वही देश है इसका मतलब है कि वो अब झूठ बोल रहा है।
फैसला ब्लेयर का और माफी मांगी लेबर पार्टी के नेता जेर्मी कोर्बिन ने। कोर्बिन ने कहा कि मेरी माफी इराक के लोगों से है, वहां सैंकड़ों जाने चलीं गईं, वो देश अभी भी युद्ध के नतीजों को झेल रहा है। कोर्बिन ने ब्रिटेन के उन सैनिकों के परिवार से भी माफी मांगी है जो इराक युद्ध में मारे गए या अपने अंगों को गंवा कर लौटे। कहा कि सैनिकों ने तो अपना फर्ज़ निभाया लेकिन एक ऐसे युद्ध के लिए जिसमें उन्हें भेजा ही नहीं जाना चाहिए था। कोर्बिन ने ब्रिटेन की उन लाखों जनता से भी माफी मांगी है जो समझते थे कि इस फैसले के कारण ब्रिटेन के लोकतंत्र का कद छोटा हुआ है।
उन लोगों की आशंका सही साबित हुई। इराक में मरे हुए लोगों की गिनती के लिए एक वेबसाइट वजूद में आ गई है। ये हुआ है बदलाव। इसके अनुसार 2003 से लेकर अब तक युद्ध और धमाकों में 16 लाख से अधिक नागरिकों की मौत हुई है। सैनिकों की संख्या इसमें जोड़ दें तो आपके दिमाग की मेमरी क्रैश हो सकती है। इसके बाद भी टोनी ब्लेयर कहते हैं कि ऐसा फैसला फिर लेंगे। बुधवार को जब इस रिपोर्ट पर बहस हुई तो ब्लेयर ने कहा कि दस साल ब्रिटेन का प्रधानमंत्री रहते इराक़ पर युद्ध का फ़ैसला मेरे लिए सबसे कठिन, सबसे बड़ा और सबसे दर्द भरा था। कृपया ये नहीं कहिए कि मैं झूठ बोल रहा था या फिर मेरी मंशा कुछ बेईमानी भरी थी। एक भी दिन ऐसा नहीं बीतता जब मैं ये नहीं सोचता कि क्या हुआ, अमेरिका की अगुवाई में आक्रमण में साथ देने का मेरा फ़ैसला सही था क्योंकि सद्दाम हुसैन के सत्ता में ना रहने के बाद दुनिया एक बेहतर जगह हो गई है।
क्या वाकई दुनिया बेहतर हुई है। ये सिर्फ ब्लेयर को दिख रहा है या आपको भी दिखता है। जिसका डर दिखा कर इराक पर युद्ध थोपा गया और लाखों लोग मार दिये गए, अब उसी देश की रिपोर्ट कह रही है कि उस डर का कोई औचित्य नहीं था। सद्दाम के पास रसायनिक हथियार होने की बात गलत थी। 18 मार्च 2003 का टोनी ब्लेयर का भाषण जो उन्होंने हाउस ऑफ़ कॉमन्स में दिया था, उसमें कहते हैं कि 'यह मुद्दा इतना ज़रूरी क्यों है? क्योंकि इसका नतीजा इराक़ी शासन की नियति से अधिक और इराक़ी जनता के भविष्य से अधिक तय करेगा जो सद्दाम के दौर में बुरी तरह पीड़ित हैं। ये तय करेगा कि इक्कीसवीं सदी में सुरक्षा से जुड़ी मुख्य चुनौती से ब्रिटेन और दुनिया कैसे निपटेगी। ये संयुक्त राष्ट्र का आगे का रास्ता तय करेगा, यूरोप और अमेरिका के रिश्तों को तय करेगा, यूरोपियन यूनियन के अंदरूनी रिश्तों को तय करेगा और ये भी कि अमेरिका बाकी दुनिया के साथ कैसे व्यवहार करे। ये अगली पीढ़ी के लिए अंतरराष्ट्रीय राजनीति के तौर तरीकों को तय करेगा।'
एक युद्ध से इतना कुछ तय होने वाला है जैसे ब्लेयर साहब पहली तारीख को झोला लेकर परचून की दुकान से राशन लाने निकले हों। ब्लेयर ने अपने मंत्रिमंडल से लेकर संसद तक को धोखे में रखा। अगर यू ट्यूब पर मौजूद प्रवचनों से प्रेरित होकर आतंकवाद फैलता है तो ब्लेयर जैसों के फैसले से दुनिया में जो आज तक तबाही मची है, उसे आप क्या कहना चाहेंगे। मार्च 2003 में ब्लेयर ब्रिटिश संसद में झूठ बोल रहे थे क्योंकि आठ महीना पहले ही जुलाई 2002 में वे अमेरिका के राष्ट्रपति बुश को लिख चुके थे कि "I will be with you, whatever." कुछ भी हो जाए मैं आपके साथ हूं। अब आइये मीडिया के खेल पर। मीडिया जब भी राष्ट्रवाद का नारा लगाए तब समझ जाइयेगा कि कुछ ऐसा खेल है जो आपकी समझ से बाहर है। अमेरिकी मीडिया सुपर पावर मुल्क होने के नशे की गोली बांट रहा था। उस वक्त मीडिया की कुछ हेडलाइन निकाली हैं।
पहले लंदन का एक अखबार है द सन। 2003 का सन का यह पहला पन्ना है। इसने लिखा था सन बैक्स ब्लेयर। ब्लेयर के हाथ में सन है और सन अखबार ब्लेयर के समर्थन में है। जब अखबार या टीवी प्रधानमंत्री का खुलेआम समर्थन का दावा करे तो बिना एनासिन खाए समझ जाइयेगा कि इसमें कोई खेल है। यही सन अखबार चिल्काट रिपोर्ट के बाद हेडलाइन बनाता है कि वेपन ऑफ मास डिसेप्शन। हिन्दी में मतलब सामूहिक धोखे का हथियार। भारत में कई मीडिया संस्थान ठीक यही कर रहे हैं।
ऐसा नहीं है कि अखबारों ने आलोचना नहीं की होगी मगर युद्ध का उन्माद मीडिया ने फैलाया। सुपर पावर का सपना भी उसी उन्माद का प्रोजेक्ट है। जो आपको रखेगा ग़रीब मगर दिखायेगा उड़ते हुए रॉकेट का सपना।
डेली मिरर ब्रिटेन का अखबार है। इस अखबार ने तब जो कहा था वो दस साल बाद सही निकला। 29 जनवरी 2003 के अखबार के पहले पन्ने पर छपा था, ब्लेयर की दोनों हथेलियां ख़ून से सनी हैं। लिखा था ब्लड ऑन हिज़ हैंड्स- टोनी ब्लेयर। चिल्काट रिपोर्ट से पहले ही अक्टूबर 2015 में ही डेली मिरर ने लिखा था दस साल बाद माफी मांगने का कोई मतलब नहीं। रिपोर्ट के बाद इस अखबार ने ब्लेयर के उस सीक्रेट कथन को लिखा है जो उन्होंने बुश से कहा था। मैं हर हाल में आपके साथ रहूंगा।
मुझे नहीं मालूम तब ब्रिटेन में आजकल टाइप के अंध राष्ट्रभक्त होते थे या नहीं। तब डेली मिरर को कितनी गाली पड़ी होगी। मगर मीडिया और कारपोरेट और राष्ट्रप्रमुखों के खेल को ठीक से समझना होगा। हालांकि ये खेल इतना बारीक होता है कि आपके लिए क्या मीडिया के लिए भी समझना आसान नहीं होता है।
इराक युद्ध ने मीडिया को भी बदल दिया था। युद्ध का लाइव कवरेज कराया गया। इम्बेडेड जर्नलिज्म का जुमला काफी चला था उस वक्त। टीवी के रिपोर्टर टैंकों में लादकर मोर्चे पर ले जाए गए और बूम बाम का कवरेज दिखाने लगे। रिपोर्टरों को बहादुरी का इनाम मिला, वे युद्ध कवरेज के विशेषज्ञ बने और बदले में लाखों लोग मर गए। पूरी दुनिया में इस युद्ध का सीधा प्रसारण हुआ था। कहां तो लोगों को रॉकेट और बम धमाकों से सहम जाना चाहिए था मगर टीवी ने उनके भीतर मिसाइल और टैंक के रोमांच भर दिये। चिल्काट रिपोर्ट के बाद ब्रिटेन के अखबार बदल गए हैं। The Times लिखता है Blair's Private war। Daily Star लिखता है Blair is world's worst Terrorist। Daily Mail - A monster of delusion.
यह रिपोर्ट इराक युद्ध के बारे में हमारी समझ बदलती है, अगर बदलती है तो उस समझ के आधार पर दुनिया कैसी होती, हम इसकी भी कल्पना करेंगे। प्राइम टाइम में। कई सवालों के साथ चिल्काट की रिपोर्ट को समझेंगे कि आखिर ये गेम था क्या जिसके बहाने हम पर इराक पर और उसके बाद के नतीजों पर पूरी दुनिया पर युद्ध थोपा गया-आतंकवाद थोपा गया।
(इस लेख से जुड़े सर्वाधिकार NDTV के पास हैं। इस लेख के किसी भी हिस्से को NDTV की लिखित पूर्वानुमति के बिना प्रकाशित नहीं किया जा सकता। इस लेख या उसके किसी हिस्से को अनधिकृत तरीके से उद्धृत किए जाने पर कड़ी कानूनी कार्रवाई की जाएगी।)