प्राइम टाइम इंट्रो : दिखने लगे ग्लोबल वॉर्मिंग के नतीजे

प्राइम टाइम इंट्रो : दिखने लगे ग्लोबल वॉर्मिंग के नतीजे

प्रतीकात्‍मक तस्‍वीर

याद कीजिए आप एक हफ्ते में कितनी बार बोलते हैं कि मौसम में बहुत बदलाव हो गया है. बारिश या तो नहीं होती है, होती है तो बाढ़ का कहर पैदा कर देती है. कई जगहों पर नए नए रिकॉर्ड बन रहे हैं. गर्मी के भी. बारिश के भी और सूखे के भी. जिन शहरों को हमने सबसे सुरक्षित माना है, वही अब बैठे बैठे डूब जा रहे हैं. उत्तर भारत के लोग आए दिन फेसबुक पर लिखते रहते हैं कि दस पंद्रह साल पहले दुर्गापूजा के समय हम फुल स्वेटर पहना करते थे, यहां तो दुर्गा पूजा समेत अक्टूबर बीत गया मगर गर्मी है कि कंफ्यूज़ कर दे रही है. कभी एसी चलाओ तो कभी पंखा मत चलाओ. इसका मतलब है कि हम इस बदलाव को तब भी महसूस करते हैं जब शहर में बाढ़ का कहर न हो या जंगलों में दावानल न हो. सैंकड़ों लोगों की मौत के बाद, हज़ारों घरों के ढहने के बाद हम थोड़े दिन बाद स्थिति सामान्य मान लेते हैं और फिर अपनी दुनिया में खो जाते हैं.

लेकिन जिस दुनिया में हम खो जाने का भ्रम पाल रहे हैं दरअसल उस दुनिया को हमने बहुत पहले खो दिया है. मूल बात ये है कि हमने इस धरती को रहने लायक छोड़ा नहीं है. संयुक्त राष्ट्र की एक संस्था है जो दुनिया भर में ग्रीन हाउस गैस के उत्सर्जन यानी एमिशन या पैदा होने की मात्रा पर नज़र रखती है. इसका नाम है World Meteorological Organization (WMO). इसकी एक रिपोर्ट के अनुसार हम जिनता समझते हैं, स्थिति उससे भी अधिक भयाकन है. यानी अब हम अपने जीवनकाल में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा को कम होते हुए नहीं देख सकेंगे क्योंकि वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड का कंसंट्रेशन यानी जमावड़ा 400 पार्ट्स पर मिलियन (ppm) के स्तर को पार कर चुका है. पहले भी CO2 का कंसंट्रेशन 400 को पार कर चुका है लेकिन तब कुछ सीमित इलाकों में कुछ महीने के लिए था. पहली बार ऐसा हुआ है कि पूरी दुनिया के स्तर पर पूरे साल भर के लिए इसकी मात्रा 400 पीपीएम पार कर गई है.

यह बताया गया है कि धरती पर इससे अधिक कार्बन डाइआक्साइड कभी भी इस स्तर पर नहीं पहुंचा है. तब भी नहीं जब क़रीब 3.8 अरब साल पहले पहला बैक्टीरियम बना होगा या ये कहें कि धरती पर जीवन की उत्पत्ति हो रही होगी. काफी टेक्निकल हो गया ये मामला तो लेकिन अगर हम ये कहें कि इसके कारण दुनिया भर में हर साल ढाई लाख लोगों की मौत होने लगेगी. जो ज़िंदा रहेंगे उनमें से 12.2 करोड़ ग़रीबी की हालत में धकेल दिये जाएंगे. गर्मियां और भी ज़्यादा गर्म होंगी, बाढ़ और भी ज़्यादा भयानक होंगी और समुद्र ज़मीन का और बड़ा हिस्सा निगल लेगा.

हम बार बार सुनते हैं कि कार्बन डाइऑक्साइड का स्तर औद्योगिक दौर के स्तर तक ले जाना है. धरती का तापमान उस समय के तापमान से 2 डिग्री सेल्सियस से अधिक नहीं बढ़ना चाहिए. ओद्योगिक युग मने अठारहवीं सदी और अभी है इक्कीसवीं सदी का सोलहवां साल. अठारहवीं सदीं में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा आज की तुलना में आधी से कुछ अधिक ही थी. तब कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा थी 278 पीपीएम. यह एक आदर्श मात्रा थी जिसके कारण समुद्र, वातावरण और जैवमंडल के बीच संतुलन बना हुआ था. जैवमंडल मने धरती और वायु यानी वो जगह जहां हम और आप, तमाम तरह के जीव जंतु रहते हैं. औद्योगिक क्रांति से हमने तेल, कोयला वग़ैरह का ख़ूब इस्तमाल करना शुरू कर दिया. जिसके कारण कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा बढ़ने लगी और प्रकृति का संतुलन ख़त्म होने लगा. 2015 में कार्बन डाइऑक्साइड का कंसंट्रेशन औद्योगिक दौर से पहले के मुक़ाबले 144% ज़्यादा हो गया.

ग्रीन हाउस गैस का ज़िक्र आप बार बार सुनते होंगे. कार्बन डाइऑक्साइड, मीथेन और नाइट्रस ऑक्साइड को ग्रीन हाउस गैस कहा जाता है. ग्रीनहाउस गैस में 65 फीसदी हिस्सा कार्बन डाइऑक्साइड का होता है. कार्बन डाइऑक्साइड वातावरण में रह जाता है. आम तौर पर समुद्र, जंगल, पेड़ पौधे, शाक सब्ज़ियां कार्बन डाइऑक्साइड को सोख लेते हैं. नई रिपोर्ट कह रही है कि कार्बन डाइऑक्साइड सोखने की इनकी क्षमता अब कम होती जा रही है. अभी तो ये दुनिया के आधे कार्बन डाइऑक्साइड सोख लेते हैं मगर ख़तरा इस बात का है कि इनकी ये क्षमता भी अपने अधिकतम स्तर पर पहुंचने के कगार पर है. मतलब अब इनसे ये उम्मीद नहीं रखनी चाहिए कि हमारे गुनाहों पर पर्दा डाल कर हमें बचा लेंगे. एक और जानकारी के मुताबिक 1990 से 2015 के बीच हमारे क्लाइमेट में वॉर्मिंग इफेक्ट यानी गर्मी क़रीब 37 फीसदी बढ़ी.

पेरिस समझौते के तहत दुनिया में ग्लोबल वॉर्मिंग का स्तर औद्योगिक दौर से पहले के मुक़ाबले सिर्फ़ 2 डिग्री सेल्सियस से कम रखने की संभावना भी बहुत कम हो गई है. कहा गया है कि तमाम देशों की सरकारों को पेरिस समझौते को तेज़ी से लागू करना होगा. वर्ना हम धरती को सुरक्षित स्तर पर नहीं पहुंचा सकेंगे. World Meteorological Organization (WMO) सूचनाओं के आदान प्रदान और कौन देश क्या कदम उठा रहा है इसकी जानकारी के लिए एक ग्लोबल डेटा सिस्टम भी बना रहा है. अगर आप दिल्ली या उसके आस पास के शहरों में रहते हैं तो इन दिनों पर दिवाली गिफ्ट से भरी कारों से सड़कें जाम मिलेंगी और सांस लेने के लिए जो हवा है वो ख़राब मिलेगी.

System of Air Quality and Weather Forecasting and Research (SAFAR) के मॉनीटरिंग सिस्टम्स के मुताबिक दिल्ली के एयर क्वॉलिटी इंडेक्स पर पीएम 2.5 का स्तर 321 microgram per cubic metre हो गया है. बुधवार सुबह शाहदरा, शांतिपथ और आनंद विहार में पीएम 2.5 का स्तर 350 ug/m3 तक पहुंच गया था जबकि पीएम 2.5 60 माइक्रोग्राम प्रति क्यूबिक मीटर से ज़्यादा नहीं होना चाहिए. आपको याद ही होगा कि इसी साल जनवरी में दिल्ली में कई जगहों पर एयर क्वालिटी इंडेक्स 430 से 435 माइक्रोग्राम प्रति क्यूबिक मीटर के आस पास हो गया था. तब दिल्ली में कितना हंगामा हुआ था. दिल्ली सरकार को भी ऑड इवन का फॉर्मूला लेकर आना पड़ा था. फेसबुक पर दिल्ली के वायु प्रदूषण पर नज़र रखने वाले एक ग्रुप एयरवेदा ने कहा है कि दीवाली से तीन दिन पहले से आपका बच्चा एक दिन में चौदह सिगरेट के बराबर धुआं ग्रहण करेगा. फिलहाल कारण तो ट्रैफिक के कारण है और बादलों के घिरने से भी प्रदूषक तत्वों का जमावड़ा बढ़ा है.

चीन न सही, भारतीय पटाखे भी तो जलाएंगे. इससे भी प्रदूषण का स्तर पांच गुना हो जाएगा. कई लोग कहते हैं कि त्योहारों की रौनक पर नज़र लगा रहे हैं. दरअसल एक दिन से प्रदूषण इसलिए भी बढ़ता है कि दिल्ली की सड़कों पर ट्रैफिक तो रोज़ ही प्रदूषण पैदा कर रहा है. आप ट्रैफिक कम नहीं कर सकते, आप पटाखे बंद नहीं कर सकते, तो समाधान क्या है. वैसे बहुतों ने पटाखों का इस्तमाल कम कर दिया है या बंद कर दिया है. बाकी शहरों में भी स्थिति ख़राब है. वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा अधिक से भी अधिकतम हो गई है, ये जाएगी नहीं तो होगा क्या. हम इस पर तो बात कर ही सकते हैं क्योंकि ये तो ग्लोबल औसत है.


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