प्राइम टाइम इंट्रो : क्‍या घटती नौकरियों का जवाब बेसिक इनकम है?

प्राइम टाइम इंट्रो : क्‍या घटती नौकरियों का जवाब बेसिक इनकम है?

प्रतीकात्‍मक तस्‍वीर

क्या आप यूनिवर्सल बेसिक इनकम के बारे में जानते हैं? क्या सरकार सभी लोगों को बेसिक इनकम दे सकती है? बेसिक इनकम क्या है? क्या ये बेरोज़गारी भत्ता है? क्या ये वृद्धावस्था पेंशन है? क्या कोई सरकार करोड़ों लोगों को बेसिक इनकम दे सकती है?

दुनिया भर में इस पर बात होने लगी है. अभी कहीं दिया नहीं जा रहा है. तमाम योजनाओं को देखेंगे तो सरकार नागरिकों के एक तबके को मदद राशि देती है. लेकिन यूनिवर्सल बेसिक इनकम कुछ अलग जान पड़ता है. चंद लेख पढ़ कर लगा कि इसका मतलब यही है कि सरकार सभी को यानी ग़रीबी रेखा से नीचे के लोगों से लेकर हम आप जैसे लोगों को बेसिक इनकम दे. महीने के हिसाब से एक तय राशि.

इसी साल जून में इस बात को लेकर जनमत संग्रह हुआ कि बिना शर्त सभी को बेसिक इनकम देने के लिए संविधान में बदलाव करना चाहिए. वहां खूब बहस हुई, अभियान चला. सरकार और संसद ने विरोध किया कि इससे तो लोग काम नहीं करेंगे और एक दिन काम लायक लोग नहीं मिलेंगे. स्वीटरज़रलैंड यूरोप ही नहीं दुनिया का बेहतर जीवन स्तर वाला देश है. 80 फीसदी आबादी के पास काम है, ऐसे देश में यूनिवर्सल बेसिक इनकम को लेकर बहस हुई कि सभी नागरिक को हर महीने सरकार 2,524 डॉलर दे. जनमतसंग्रह में यह प्रस्ताव हार गया. 77 फीसदी वोट से यह प्रस्ताव रिजेक्ट हो गया. यूरोप के कई देशों में इस विचार पर बहस हो चुकी है. कई राजनीतिक दल हैं जो अब इसे अपने घोषणापत्रों में जगह देने लगे हैं. कनाडा, फिनलैंड और नीदरलैंड भी इस पर जनमत संग्रह कराने का विचार कर रहे हैं.

अभी अपने आप से माहौल में आप यही सुनते होंगे कि सरकार को लोक कल्याणकारी राज्य की धारणा से मुक्ति पा लेनी चाहिए. सरकार का काम है बिजनेस या रोज़गार का वातावरण पैदा करना. सरकार के खाते में सब्सिडी का हिस्सा कम से कम होना चाहिए लेकिन अगर सरकारें कभी इस नीति पर पहुंचती हैं कि सभी योग्य अयोग्य नागरिकों को बेसिक सैलरी जैसी कोई राशि दी जाएगी तो फिर सब्सिडी कम करने वाले तर्कों का क्या होगा. वो धारा इतनी मज़बूत हो चुकी है कि अब जब कोई यूनिवर्सल बेसिक इनकम की बात करेगा तो यही लगेगा कि कोई ख़्याली पुलाव पका रहा है. कोई पुराने ज़माने का कम्युनिस्ट होगा, या फिर सोशलिस्ट. पूंजीवाद पर चल चुकी दुनिया में यह ख़्याल कैसा अजीब है. मगर यह ख़्याल पनपा ही है अमीर देशों में जहां कम्युनिस्ट पार्टी का कोई आधार तक नहीं है.

अमेरिका के सिलिकॉन वैली की एक कंपनी है वाई कॉम्बिनेटर. ये फंडिंग कंपनी है. इसने कैलिफोर्निया में बेसिक इनकम को लेकर पायलट प्रोजेक्ट शुरू करने का ऐलान किया है. कंपनी का कहना है कि वो इस बात का अध्ययन करना चाहती है कि बेसिक इनकम का भुगतान कैसे होगा, इसका डेटा कैसे जमा होगा. कंपनी के प्रेसिडेंट का कहना है कि जिस तरह से टेक्नोलॉजी के कारण नौकरियां जा रही हैं, एक दिन बेसिक इनकम लागू करना ही पड़ जाएगा. एक आलोचना है कि इससे तो सरकार ग़रीबों को छोड़ मिडिल क्लास को पैसा देने लगेगी. नतीजे में हो सकता है कि ग़रीबी ही बढ़ जाए. ख़ैर वाई कॉम्बिनेटर कैलिफोर्निया के सौ परिवारों का चयन करेगी. चाहे वो नौकरी में हो या न हो. उन्हें हर महीने 1000 से 2000 डॉलर देगी. देखने के लिए कि उनका जीवन कैसे बदलता है.

आप भी मेरी तरह सोच रहे होंगे कि अगर सरकार सभी को बेसिक इनकम देने लगे तो कोई काम ही नहीं करेगा. लोग आलसी हो जाएंगे. इकोनॉमिक टाइम्स में कुछ दिन पहले स्वामीनाथन अक्लेश्वर अय्यर ने भी इस पर लिखा है. बीजेपी के सांसद वरुण गांधी ने इस मसले पर लिखा है. National Institue Of Public Finance and Policy के एमिरेटस प्रोफेसर सुदीप्तो मंडल ने भी दि वायर न्यूज़ पोर्टल पर लिखा है कि क्या यूनिवर्सल बेसिक इनकम के विचार का समय आ गया है.

अमेरिका की एक रूढ़ीवादी थिंक टैंक संस्था है Cato Institute, वहां के विद्वान Michael Tanner and Matt Zwolinski की दलील है कि अमेरिका का जो मौजूदा सामाजिक सुरक्षा सिस्टम है वो भयावह है. वहां के केंद्र और राज्य हर साल 1 अरब डॉलर इस पर खर्च करते हैं इसके बावजूद अमेरिका की 16 फीसदी आबादी ग़रीबी रेखा से नीचे रहती है. इसलिए मौजूदा सभी योजनाओं को बंद कर हर अमेरिकी नागरिक को साल में 10,000 डॉलर मिलना चाहिए. बशर्ते उसकी उम्र 21 साल की हो.

कई लोगों को लगता है कि इस स्कीम में झंझट कम है क्योंकि आप पात्रता की शर्तें नहीं लगाते कि इसे मिलेगा या इसे नहीं मिलेगा. हम अक्सर ये नहीं सोचते कि जिन्हें काम नहीं मिल रहा है उनकी हालत क्या होती है. भारत में मनरेगा जैसी योजना है जो कम से कम 100 से 150 दिनों के लिए रोज़गार देने की बात करती है. हकीकत में भले पूरी तरह से लोगों को रोज़गार न मिलता हो लेकिन क्या ये स्कीम यूनिवर्सल बेसिक इनकम जैसी योजना का छोटा रूप नहीं है. दुनिया की हर सरकार सबको काम देने की चुनौती से जूझ रही है. हाल ही में हमने प्राइम टाइम में इस पर चर्चा की थी कि भारत में 2015 में सिर्फ 1 लाख 35 हज़ार नौकरियों का ही सृजन हुआ. 2013 से 2015 के बीच भारी गिरावट आई है. हर दिन 550 नौकरियां खत्म होती जा रही हैं. इस साल इंजीनियरिंग कैंपस में नौकरियों में 20 प्रतिशत की गिरावट आ सकती है. काम कर सकने वाली आबादी का एक तिहाई बेकार है. 68 फीसदी कामगार परिवारों की मासिक कमाई 10,000 से अधिक नहीं है.

ये सारे आंकड़े अलग अलग अख़बारों की रिपोर्ट में छपे थे. विश्व बैंक ने भी एक रिपोर्ट जारी की है कि भारत में आने वाले दशकों में 69 फीसदी नौकरियां रोबोट के कारण खत्म हो जाएंगी. प्रणब बर्धन और विजय जोशी जैसे अर्थशास्त्रियों ने भी इसकी वकालत की है. इनका मानना है कि भारत में इस योजना को आज़माया जाना चाहिए. इसके मॉडल क्या होंगे, इसके लिए पैसा कहां से आएगा, ये सब सवाल तो हैं लेकिन हमारे दिमाग़ में मौजूदा ढांचा इस कदर घुस गया है कि यह विचार या तो बेकार लगता है या फिर समझ से बाहर.

टेक्नोलॉजी की दुनिया तेज़ी से बदल रही है. आप आए दिन अखबारों के रंगीन पन्नों में पढ़ते होंगे कि बिना ड्राईवर के कार और बस चलाने की टेक्नोलॉजी विकसित की जा रही है. यह ट्रायल अपने अंतिम चरण में है. एक तरफ भारत में ही ओला और उबर ने लाखों नए ड्राईवर पैदा कर दिये, दूसरी तरफ हम इन ट्रायल पर कितना यकीन करें कि ये जल्दी ही लाखों ड्राइवर की बिरादरी को ही खत्म कर देंगे. वैसे हम बिना गियर और क्लच वाली ऑटोमेटिक कार चलाने भी लगे हैं. एक और तकनीकि प्रयोग है आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का. इससे मशीन आदमी को शतरंज के खेल में हरा देती है. अमेरिका के वॉल स्ट्रीट में दो एक्सचेंज ऑपरेटर ने ऐलान किया है कि वे आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस टूल लॉन्‍च करने जा रहे हैं. जिसका काम होगा बाजार के उतार चढ़ाव पर नज़र रखना. तो क्या ड्राईवर के साथ-साथ शेयर बाज़ार के उस्ताद भी ग़ायब हो जाएंगे. आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस शेयर बाज़ार की बारीक धोखाधड़ियों को आसानी से पकड़ लेता है जिसे पकड़ने में वहां के उस्ताद से भी चूक हो जाती है. जब ये वॉल स्ट्रीट में आ जाएगा तो सोचिये वहां से भारत आते कितनी देर लगेगी.

टेक्नोलॉजी की रफ्तार तेज़ हो गई है और लोग भी. यूपी में सपा सरकार ने स्मार्टफोन का वादा किया तो लाखों लोगों ने वेबसाइट पर जाकर रजि‍स्ट्रेशन करा दिया. आए दिन केंद्र से लेकर तमाम सरकारें ऐप जारी कर रही हैं. बहुत से लोग इस टेक्नोलॉजी की दुनिया से अब भी बाहर हैं लेकिन बहुत से लोग जिसमें आम लोग भी शामिल हैं इसके दायरे में आते भी जा रहे हैं.

अगर आप ओला या उबर कार से चलते होंगे तो आपके ही शहर का वो पुराना ड्राईवर अब रास्तों को नहीं जानता है. स्मार्टफोन पर गूगल मैप जैसे जैसे रास्ता बताता है वैसे वैसे वो चलता है. जैसे वो दिल्ली का होकर दिल्ली में नहीं बल्कि जापान में कार चला रहा हो. आज ही मैंने अनुभव किया कि ड्राईवर ने अब रास्तों को याद करने की मानसिक प्रक्रिया को छोड़ दिया है. एक तरह से मशीन पर निर्भर होते होते आदमी भी मशीन हो रहा है. अगर गूगल मैप न हो और स्मार्टफोन न हो तो मुमकिन है कि बहुत से लोग शाम को अपने घर ही न पहुंच पाएं. धनतेरस की भीड़ में घूमते घामते दिल्ली से सोनिपत पहुंच जाएं और वहां अपने घर का पता ढूंढ रहे हों.

बहरहाल यूनिवर्सल बेसिक स्कीम पर बात करेंगे. नौकरियां नहीं होंगी ये चुनौती तो हर दौर की रही है लेकिन यूनिवर्सल बेसिक इनकम देने का आइडिआ ही अपने आप में किसी चुनौती से कम नहीं.


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