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This Article is From Nov 27, 2015

प्राइम टाइम इंट्रो : कितनी पार्टियों ने अंबेडकर की मानी?

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    दिसंबर 23, 2015 14:23 pm IST
    • Published On नवंबर 27, 2015 21:22 pm IST
    • Last Updated On दिसंबर 23, 2015 14:23 pm IST
संविधान दिवस के मौके पर संसद के दोनों सदनों में बहस अच्छी हुई, मगर कई बार यह बहस डॉक्टर आंबेडकर पर दावेदारी की होड़ में बदलती लगी। सबने अपने अपने हिसाब से डॉक्टर आंबेडकर के कथनों का चुनाव किया, और ज्यादातर मौके पर उनका इस्तेमाल दूसरे पर हमला करने में किया गया।

मैंने सभी के भाषण तो नहीं सुने पर जो मूल स्वर निकल कर सामने आया उससे नहीं लगा कि कोई मुख्य वक्ता डॉक्टर आंबेडकर के विचारों के संदर्भ में खुद को फेल भी बता रहा था। सब खुद को सफल और दूसरे को असफल बता रहे थे। गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने कहा कि डॉक्टर भीमराव आंबेडकर ने कभी नहीं सोचा कि भारत में हमारी उपेक्षा हुई है, भारत में मुझे समय समय पर अपमान झेलना पड़ा है, तिरस्कार झेलना पड़ा है, मैं भारत छोड़कर दुनिया के कहीं दूसरे देशों में चला जाऊंगा।

शायद गृहमंत्री आमिर खान की पत्नी किरण की चिंता वाली बात के संदर्भ में कह रहे थे। पर क्या यह सवाल नहीं पूछा जाना चाहिए कि क्या डॉक्टर भीमराव आंबेडकर ने कभी सोचा होगा कि उनके बनाए संविधान के तहत चुनकर आने वाले सांसद अपने विरोधियों को पाकिस्तान भेजने की बात करेंगे। आप इन चेहरों को जानते होंगे जिन्होंने कभी राजनीतिक विरोध तो कभी खान पान के आधार पर विरोधी से लेकर समुदाय विशेष को पाकिस्तान भेजने की बात करते रहे हैं।

क्या डॉक्टर आंबेडकर कभी ऐसा कहते। सोशल मीडिया में तो लोग अभियान चलाने लगे कि आमिर ख़ान की फिल्में नहीं देखेंगे और वे जिस कंपनी के ब्रांड अंबेसडर हैं उसका मोबाइल ऐप अपने फोन से हटा देंगे। यह वही छूआछूत है जो समाज में दलितों को चलने के लिए अलग रास्ता तय करता है और दलित दुल्हे को घोड़ी से उतार देता है। क्या डॉक्टर आंबेडकर छूआछूत की इस नई प्रवृत्ति का कभी समर्थन करते।

डॉक्टर आंबेडकर को पढ़ना चाहिए। वे भावुकता, व्यक्ति पूजा से ऊपर उठकर तार्किकता पर ज़ोर देते थे। उनकी यही खूबी थी जिसके कारण उन्होंने हिन्दू धर्म तो छोड़ दिया मगर देश नहीं छोड़ा। डॉक्टर आंबेडकर को समझना और उनका नाम लेकर राजनीतिक नारे लगाना दोनों दो चीज़ें हैं। अगर आंबेडकर के रास्ते पर चलने का दावा सब कर ही रहे हैं, तो फिर ऐसा क्यों हैं कि एक साल में दलितों के प्रति हिंसा 19 फीसदी बढ़ जाती है।

2013 में दलितों के खिलाफ हिंसा की 39,408 मामले दर्ज किये गए जो 2014 में बढ़कर 47,064 हो गए।
2013 में दलितों महिलाओं से बलात्कार के 2,073 मामले दर्ज हुए जो 2014 में बढकर 2,233 हो गए।

दलित हिंसा के मूल में जातिगत प्रभुत्व और नफरत की बड़ी भूमिका है। जिन वक्ताओं ने यह कहा कि डॉक्टर आंबेडकर ने बहुत अपमान झेले उन्होंने यह सवाल क्यों नहीं उठाए कि आज भी दलितों को इस तरह से अपमान क्यों झेलने पड़ते हैं। क्या किसी बड़े वक्ता ने जातिवाद पर हमला बोला। प्रधानमंत्री ने सही कहा कि किसी को आरोप लगाना हो तो डॉक्टर आंबेडकर की बातों का इस्तेमाल कर रहा है और किसी को बचाव करना हो तो डॉक्टर आंबेडकर की बातों का सहारा लेता है।

राजनीति में भक्ति को लेकर डॉक्टर आंबेडकर ने कहा था कि भारत में, भक्ति या जिसे हम समर्पण का मार्ग या नायक पूजा कहते हैं का राजनीति में रोल होता है। दुनिया के किसी हिस्से में इस कदर नहीं होता जितना भारत में होता है। धर्म में भक्ति हो सकता है आत्मा की मुक्ति का मार्ग हो लेकिन राजनीति में भक्ति या नायक पूजा पतन और तानाशाही की ओर ले जाती है

इसी बात को मैं यूं कहता हूं कि राजनीति में किसी का फैन नहीं होना चाहिए। आप दर्शकों से विशेष गुज़ारिश करना चाहूंगा कि समय निकालकर लोकसभा और राज्य सभा की वेबसाइट पर ज़रूर जायें और तमाम भाषणों को पढ़ें। देश और राजनीति के बारे में सोचने समझने के लिए काफी बौद्धिक खुराक मिलेगा। अब आते हैं आज के विषय पर। गृहमंत्री राजनाथ सिंह के भाषण से ही प्रेरित या कहिए कि उत्प्रेरित है आज का विषय। उनके भाषण का एक अंश इस तरह से है

बाबा साहब भीमराव आंबेडकर ने इसलिए सोशलिज्म और सैकुलरिज्म, इन शब्दों का प्रयोग नहीं किया था कि वे मानकर चलते थे कि यहभारत की जो मूल प्रकृति ह, भारत का जो मूल स्वभाव है, उसमें ही यह समाहित है, अलग से इसका प्रिएम्बल में उल्लेख करने की कोई आवश्यकता नहीं है। आज की राजनीति में सर्वाधिक दुरुपयोग यदि किसी शब्द का हो रहा है। यह दुरुपयोग रुकना चाहिए॥ सेक्युलर शब्द का जो औपचारिक अनुवाद है वह है पंथनिरपेक्ष,धर्मनिरपेक्ष नहीं। इस हकीकत को भी वह समझते थे इसलिए सेक्युलर शब्द का प्रयोग भारत के प्रियैम्बल में बाबा साहब भीमराव आंबेडकर ने नहीं किया था।

सवाल सेकुलर शब्द के दुरुपयोग का है या उसकी भावना का। 90 के दशक में सेकुलर के मुकाबले स्युडो सेकुलर की सोच आई तो इन दिनों सेकुलर के मुकाबले सिकुलर शब्द को उतारा गया है। राजनीतिक गठबंधनों और गलतियों को सेकुलरिज्म से जोड़ा गय, तुष्टीकरण से जोड़ा गया, अल्पसंख्यक तुष्टीकरण की पहचान हुई तो बहुसंख्यक तुष्टीकरण को भी राजनीतिक आधार दिया गया। सेकुलरिज्म का अगर दुरुपयोग हुआ है तो क्या स्युडो सेकुलरिज्म के नाम पर क्या कोई नई राजनीतिक व्यवस्था बनी जहां धर्म के नाम पर किसी को धमकियां न दी जाती हो। किसी को डराया नहीं जाता हो।

आप ही बतायें बिहार के चुनाव में बीजेपी का गौ मांस का मुद्दा उठाना या मतदान से एक दिन पहले अखबारों में गाय का विज्ञापन देना सेकुलरिज्म है या सिकुलर कामा है। यह तस्वीर बंगाल की है। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का जमीयत उलेमा हिंद की रैली में हिस्सा लेना सेकुलरिज्म है या सिकुरज़्म है। टोपी उतार देना सेकुलर है या मंदिर में जाकर चंदन दान कर देना। हमारे नेता धर्म और राजनीतिक को मिक्स करते रहे हैं।

आप किसी भी सरकार और किसी भी दौर की घटना उठा कर ले लीजिए,जब भी कोई संगठन किसी भी धर्म से जुड़ा हो, वो आस्था और धर्म के सवाल को लेकर सामने आ जाता है तो हमारी कानून व्यवस्था की सांसे फूल जाती हैं। सरकारें  आस्था की दावेदारी करने वालों का साथ देने लगती हैं और व्यक्ति अकेला और असहाय पड़ जाता है। जयपुर में जब कलाकारों ने प्लास्टिक की गाय गुब्बारे के सहारे हवा में लटकाया तो कुछ अज्ञात लोग नाराज़ हो गए।

कलाकारों का कहना था कि वे ऐसा कर यह बताना चाहते हैं कि शहरों में गाय की कितनी हालत खराब है। चारे की लिए घास नहीं मिलती, हमारी गायें पॉलिथीनि की थैलिया खाने के लिए मजबूर है। पुलिस का कहना था कि जिस तरह से गाय लटकाई गई है उससे निगेटिव मैसेज जा रहा है। यही नहीं विरोध करने वाले लोग कौन थे किसी को पता नहीं मगर वो आए और गाय को उतार कर पूजा अर्चना कर गए।

उसी तरह केरल की यह खबर है कि जब पत्रकार वी पी राजीना ने फेसबुक पर लिखा कि मदरसे के बारे में अपने बचपन का अनुभव लिख दिया। राजीना का कहना था कि उस मदरसे में उसके और उसके क्लासमेट का यौनशोषण हुआ था।  में बच्चों के साथ यौन शोषण हुआ है। राजीना ने अपना अनुभव बयान किया था। बजाए उनकी बात को सुनने या सुनकर पहल करने के धमकियां दी जाने लगीं। कई लोगों ने फेसबुक से शिकायत कर उनका अकाउंट बंद करवा दिया।

लोकसभा में एक और सांसद के भाषण की चर्चा हुई है। बीजेडी सांसद तथागत सत्पथी ने कहा कि मारा समाज बहुलतावादी है और सेकुलर शब्द का हिन्दी में अनुवाद क्या है, इससे मुझे कोई मतलब नहीं है। अगर हम हिन्दी भाषी नहीं है तो इसका अर्थ यह नहीं कि हम भारतीय नहीं है। धर्म निरपेक्ष समाज में यदि हम अपने बच्चों को स्वस्थ परंपराओं की विरासत सौंपना चाहते हैं तो समय आ गया है कि जब हम अपने अहंकार का त्याग करें।

प्रधानमंत्री ने भी आज कहा कि अल्पमत पर बहुमत नहीं थोपा जाएगा। सेकुलर शब्द शायद इसी भाव की तलाश का एक मार्ग है। तो हम प्राइम टाइम में बात करेंगे कि सेकुलर शब्द के अर्थ, दुरुपयोग और चुनौतियों पर। आप जानते हैं कि प्रस्तावना में सेकुलर और सोशलिस्ट शब्द बाद में जोड़ा गया था।

पर जब हम सेकुलर शब्द को चुनौती देते हैं तो नया शब्द खोज रहे होते हैं या उस राजनीति पर प्रहार कर रहे होते हैं जो सांप्रदायिकता का विरोध करती है। सिकुलर या स्युडो सिकुलर सांप्रदायिकता का विरोध करने वाली राजनीति के भीतर मौजूद सांप्रदायिकता को उभारने का हथियार है या यह बताना कि तुम जो करते हैं हम तो वही करते हैं। लेकिन दलों की लड़ाई में आवाम क्यों कंफ्यूज हो कि उसे सेकुलर होना चाहिए या नहीं। उसे होना ही चाहिए।

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं। इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति एनडीटीवी उत्तरदायी नहीं है। इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं। इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार एनडीटीवी के नहीं हैं, तथा एनडीटीवी उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है।

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