नमस्कार मैं रवीश कुमार। हम सब अपने−अपने शिक्षकों को तरह−तरह से याद करते हैं। कुछ श्रद्धा से तो कुछ बेहद तल्खी के साथ। शिक्षकों की भी दुनिया एकरस नहीं है। सरकारी स्कूलों के शिक्षकों की अलग दास्तान हैं तो प्राइवेट स्कूलों की अलग। सरकारी स्कूलों में भी स्थायी और कांट्रेक्ट पर पढ़ाने वाले शिक्षकों की कहानी अलग−अलग है। वैसे ही प्राइवेट स्कूलों में कुछ टीचर की तनख्वाह बहुत अच्छी है तो कुछ की बहुत खराब।
आए दिन हमारे टीचर अपनी मांगों को लेकर अलग-अलग राज्यों की विधानसभाओं के सामने लाठी खाते रहते हैं। चुनाव होता है तो टीचर के भरोसे। जनगणना होनी है तो टीचर के भरोसे। जितना समाज टीचर पर निर्भर नहीं है, उससे कहीं ज्यादा सरकार उन पर निर्भर है।
शिक्षक दिवस की औपचारिक भावुकता से अलग हटकर क्या हम अपने शिक्षकों को देख सकते हैं। मसलन समाज और सरकार से उनका रिश्ता कैसा है। उनकी अपनी समस्याएं क्या हैं। जिन सुविधाओं के बीच रहकर वो अध्यापन का काम कर रहे हैं और समाज में जिस तरह की सुविधाएं पनप रही हैं उनके बीच कोई तालमेल है या नहीं। कुल मिलाकर शिक्षक राष्ट्र के निर्माता हैं। देश की आत्मा हैं या चरित्र निर्माता हैं, टाइप की ललित निबंधीय उपमाओं से बाहर निकलकर हम एक सामाजिक तत्व के रूप में शिक्षक की भूमिका को कैसे देख सकते हैं।
अक्सर नेता 5 सितंबर के दिन या उसके आस-पास अपने टीचर होने के संस्मरण या एक टीचर को लेकर अपने संस्मरण या देश दुनिया के कुछ उल्लेखनीय शिक्षकों के योगदान को याद कर भावुक कर देते हैं। मगर, जब ये शिक्षक वापस अपने स्कूलों में लौटते हैं तो देश और समाज को कैसे देखते होंगे। समाज में इनके बारे में कैसी कैसी छवियां व्याप्त हैं। तो हमने सोचा कि राष्ट्रपति जिन शिक्षकों को शिक्षक दिवस के मौके पर सम्मानित कर रहे हैं उनके साथ खुल कर बातचीत की जाए। देखा जाए कि वो कितना खुलकर अपनी बात सामने रख पाते हैं।
अलग-अलग जगहों से दिल्ली आए कुछ शिक्षक आज हमारे साथ स्टुडियो में हैं। तो आप सब दर्शकों की तरफ से यहां मौजूद शिक्षकों को बधाई।
(प्राइम टाइम इंट्रो)