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This Article is From Jun 03, 2016

प्राइम टाइम इंट्रो : सत्याग्रह के नाम पर गुंडागर्दी

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जून 03, 2016 21:26 pm IST
    • Published On जून 03, 2016 21:26 pm IST
    • Last Updated On जून 03, 2016 21:26 pm IST
राजनीति से यह सवाल करेंगे तो जवाब नहीं मिलेगा। इतने हंगामे के बाद जब सशक्त लोकपाल नहीं आया और कई वर्षों की लड़ाई के बाद भी पुलिस सुधार के कदम अधूरे रह गए तो फिर बात किससे की जाए। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद अनगिनत चर्चाओं का हाल हम देख चुके हैं। थोड़े-थोड़े अंतराल के बाद प्रशासन और पुलिस के खोखले हो जाने की कहानी सामने आती है और ग़ायब हो जाती है। हरियाणा में ही जब प्रकाश सिंह कमेटी की रिपोर्ट आई कि किस तरह प्रशासन या तो हिंसक भीड़ का साथ दे रहा था या उनके साथ मिला हुआ था, थोड़े दिनों बाद सार्वजनिक रूप से उस रिपोर्ट की ऐसी निंदा होने लगी जैसे हिंसा प्रकाश सिंह रिपोर्ट के कारण हुई है। इसलिए उत्तर प्रदेश पुलिस को ख़ुद से यह सवाल पूछना होगा कि वे कब अपने पेश की व्यवस्था को व्यवस्था का रूप दे पायेंगे।

आईपीएस अधिकारी मुकुल द्विवेदी और सब इंस्पेक्टर संतोष यादव की तस्वीरों को यूपी पुलिस वाले जल्दी भूल जायेंगे। थोड़े दिनों बाद चुनाव आएगा और कानून व्यवस्था के नाम पर हंगामा होगा। फिर चुनाव हो जाएगा और व्यवस्था वैसी की वैसी रह जाएंगी। 2013 में प्रतापगढ़ में एक गांव की भीड़ ने पुलिस के एक ईमानदार डीएसपी ज़ियाउल हक़ को घेर कर मार दिया। बात मुआवज़े की नहीं है। बात है मनोबल की। वर्दी मजबूरी नहीं है। वर्दी वाले को भी नागरिक अधिकार प्राप्त हैं। मथुरा में एसपी मुकुल द्विवेदी का अंतिम संस्कार कर दिया गया। पत्रकार से लेकर नागरिक तक सबने कहा साहब अच्छे आदमी थे। राजनीति और प्रशासन के गठजोड़ का शिकार हो गए। उत्तर प्रदेश पुलिस का अदना हो या आला हो अगर वो इन तस्वीरों को देख रहा है कि अपने ईमान और ज़मीर में भी झांक कर देखे। पूछे कि उनकी इस हालत के लिए कौन ज़िम्मेदार है और अगर इन हालात के वे कारण हैं तो क्या वे कुछ करेंगे या फिर भूल जायेंगे। वो जानते हैं इन दो मौतों के पीछे का सच क्या है। मैं इंतज़ार कर रहा हूं कि वो अब ऑफ रिकॉर्ड की बातों को ऑन रिकॉर्ड करेंगे। संतोष यादव इन छुट्टियों में अपने बेटे को कंप्यूटर और वैदिक गणित सिखाना चाहते थे ताकि उसकी गिनती दुरुस्त हो जाए। मुकुल द्विवेदी के परिवार की तस्वीरों को देखकर क्या ये उम्मीद की जा सकती है कि राष्ट्रपति से नियुक्ति पत्र लेकर आने वाले तमाम आईपीएस अपने इस सहयोगी की मौत की परिस्थितियों की जांच के लिए खड़े होंगे।

वहीं एसओ संतोष यादव के घर जौनपुर में मातम है। परिवारवालों का रो-रोकर बुरा हाल है। मथुरा की घटना के बाद कई स्तरों के पुलिस वालों से बात करते हुए लगा कि उनका मनोबल टूट गया। वो बोलते-बोलते ख़ुद को कोसने लगते हैं। कहीं थाने में इंस्पेक्टर की जगह सब इंस्पेक्टर प्रभारी है, तो कई जगहों पर एक ही जाति के थानेदार बिठा दिये गए हैं। कई जगहों पर आईपीएस अधिकारी को ज़िला नहीं मिल पाता, मगर कई प्रमोटी अफसरों के पास ज़िले का चार्ज है। किसी ने बताया कि कई साल से प्रमोशन नहीं हुआ है। ज़ाहिर है इन बातों के प्रति उत्तर प्रदेश या किसी भी प्रदेश की पुलिस अब सहनशील हो चुकी है। पुलिस ने अपने भीतर की व्यवस्था को इतना खोखला कर लिया है कि कभी भी कोई भी सिपाही या अधिकारी उसका शिकार हो सकता है। ये सब जानते हैं। क्या सब ये नहीं जानते थे कि 2 जून से पहले मथुरा सिटी मजिस्ट्रेट ने आदेश दिया था कि 16 अप्रैल की शाम 5 बजे तक स्वाधीन भारत विधिक सत्याग्रही जवाहर पार्क खाली कर दे। 2015 से हाईकोर्ट का आदेश था कि इस पार्क को खाली कराया जाए। मगर प्रशासन की हालत देखिये। इस पार्क के बगल में ही ज़िलाधिकारी का घर है। रोज़ आते जाते देखते ही होंगे कि अवैध कब्ज़ा हुआ है। इसे ख़ाली कराना चाहिए। मगर लगता है कि फर्क न पड़ने के राष्ट्रीय कर्तव्य के शिकार इन अधिकारियों को फर्क ही नहीं पड़ा होगा।

16 अप्रैल को प्रयास हुआ, मगर फेल हो गए। खुलेआम हथियारों का प्रदर्शन करते रहे और खुद को सत्याग्रही कहते रहे। प्रदर्शनकारियों को सत्याग्रह का मतलब तो नहीं ही मालूम होगा, मगर लगता है प्रशासन को भी नहीं मालूम कि कोई बंदूक लेकर सत्याग्रही होने का दावा करे तो उससे ख़तरनाक कुछ नहीं हो सकता। सिटी मजिस्ट्रेट ने एस एच ओ सदर बाज़ार को आदेश दिया कि ज़मीन ख़ाली कराये। नोटिस जारी करने से पहले ज़िला प्रशासन ने ड्रोन कैमरे से पार्क का सर्वे भी किया था। अतिरिक्त बल भी मंगाया था। 15 अप्रैल के दिन पीटीआई के हवाले से ये ख़बर बिजनेस स्टैंडर्ड में छपी है।

मैं ये जानकारी इसलिए दे रहा हूं ताकि पता चले कि कुछ भी अचानक नहीं हुआ। जवाहर पार्क 16 अप्रैल की शाम 5 बजे तक खाली नहीं कराया जा सका। तब दैनिक जागरण के मथुरा एडिशन और अमर उजाला ने इसे काफी विस्तार से कवर किया था। 5 अप्रैल के दैनिक जागरण के मथुरा एडिशन के पहले पन्ने पर ख़बर छपी। मथुरा के जवाहर बाग आंदोलनकारियों का तहसील में तांडव। लाठी डंडों से लैस जवाहरबाग के दो दर्जन आंदोलनकारियों ने दुस्साहस दिखाते हुए सोमवार दोपहर 4 अप्रैल दोपहर 3 बजे सदर तहसील पर हमला बोल दिया। तहसील कर्मचारियों, अधिवक्ता और राहगीरों को दौड़ा दौड़ा कर पीटा। तहसील की फाइलें फेंक दीं, फर्नीचर तोड़ डाला और वाहनों को निशाना बनाया। आधे घंटे तक तांडव मचाते रहे और फोर्स पहुंचने के पहले भाग गए। तहसील कर्मचारी 5 अप्रैल से हड़ताल पर चले गए। डीएम ने हड़ताल को अवैध घोषित करते हुए कहा कि वे 16 अप्रैल से काम पर वापस आएं वर्ना उनके खिलाफ कार्रवाई होगी। यानी ये हड़ताल लंबी चली थी।

इस तरह की कई घटनाएं होती रहीं। 22 जनवरी 2015 के दिन ज़िलाधिकारी ने सदर बाज़ार के थाना प्रभारी प्रदीप पांडे को पार्क में भेजा। सूचना था कि ये लोग सुभाष चंद्र बोस की जयंती पर गेट बना रहे हैं। कथित रूप से सत्याग्रहियों ने प्रदीप पांडे को घेर लिया और मारपीट की। अमर उजाला ने 24 जनवरी को छापा कि थाना सदर बाज़ार क्षेत्र में 2 जनवरी की रात को गेट लगाने को मना करने गई सदर पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों पर सत्याग्रहियों ने हमला कर दिया। मामले में दोनों ओर से फायरिंग भी की गई। सदर थाना प्रभारी प्रदीप पांडे ने सैकड़ों लोगों के खिलाफ जानलेवा हमला करने के मामले दर्ज कराए गए। इस मारपीट में प्रदीप पांडे घायल हो गए। घायल प्रदीप पांडे ने इस घटना की एफ आई आर कराई लेकिन आप जानना चाहेंगे कि क्या हुआ। उल्टा प्रदीप पांडे का तबादला कर दिया गया।

जनवरी 2015 में अमर उजाला ने लिखा कि मार्च 2014 में जब इन लोगों का जवाहरबाग में आना शुरू हुआ तो इनकी संख्या 500 से 700 थी। जनवरी 2015 में ये संख्या 3000 के आस पास जा पहुंची। पुरुषों के साथ साथ महिला बच्चे भी शामिल थे।

जवाहर बाग यूपी के उद्यान विभाग की ज़मीन है। अमर उजाला ने लिखा है कि इसमें आम, बेल और आंवला के वृक्ष थे। इस बेहतरीन पार्क को सत्याग्रहियों ने नष्ट कर दिया था। जवाहर बाग के भीतर उद्यान विभाग का दफ्तर था। मगर ये लोग कर्मचारियों से मारपीट करते थे, जिनके कारण उन्होंने कार्यालय जाना बंद कर दिया था। प्रशासन ने एक्शन क्यों नहीं लिया। मौजूदा ज़िलाधिकारी राकेश मीणा काफी दिनों से मथुरा में हैं। तो इतने दिनों में उन्हें समाधान तो निकालना ही चाहिए था। एसएसपी राकेश सिंह भी काफी दिनों से हैं। सवा दो साल पहले जय गुरु देव की मृत्यु के बाद कई गुट दावेदार बन गए। कहा जाता है कि समाजवादी पार्टी के नेता शिवपाल यादव की शह पर जय गुरुदेव के ड्राइवर को गद्दी का प्रभारी बना दिया गया। पंकज इटावा के ही रहने वाले हैं। राम वृक्ष यादव को जवाहर बाग भेज दिया कि आप वहां जाकर धरना प्रदर्शन कीजिए। शिवपाल यादव की क्या भूमिका है ये किसी निष्पक्ष जांच से ही साबित हो सकती है, अगर कहीं जांच निष्पक्ष होती होगी तो, वर्ना राजनीति में किसी को भी कुछ भी कह देने का चलन तो है ही।

अब सवाल है कि धरने पर बैठे इन लोगों का जवाहर बाग में इतना बड़ा तंत्र कैसे विकसित हो गया। किसके कहने पर अंदर गैस सिलेंडर की सप्लाई होने लगी। ट्यूब वेल किसके आदेश से लगा। किसके आदेश से बिजली की सप्लाई दी गई। दैनिक जागरण अखबार ने लिखा है कि जवाहर पार्क के भीतर एक सिस्टम बन गया था। ये लोग पार्क की ज़मीन पर सब्ज़ियां उगा रहे थे। सत्याग्रहियों का पूरा लेखा जोखा रखा हुआ था। घर जाने के लिए छुट्टी का आवेदन देना होता था। बकायदा रजिस्टर में एंट्री होती थी। एंडेवर,सफ़ारी, इनोवा जैसी आधा दर्जन गाड़ियां पार्क के भीतर थीं। मध्य प्रदेश के नंबर की ये गाड़ियां रामवृक्ष यादव की बताई जाती हैं।

हमारे सहयोगी रवीश रंजन शुक्ला ने कई लोगों से बात कर पता लगाया है कि रामवृक्ष यादव का एक फाइनेंसर भी है, राकेश बाबू जो बदायूं का रहने वाला है। पश्चिम बंगाल का कोई चंदन बोस यादव का साथी था, जो हिंसा के लिए उकसाता था। ये लोग संगठित तरीके से उगाही का भी काम करते थे। रामवृक्ष यादव पर मथुरा आने से पहले आठ मामले दर्ज थे। वो हत्या के आरोप में सात महीने में जेल में रहा है। मथुरा आने के बाद सात मामले दर्ज हुए हैं। कई स्थानीय संगठन और राजनीतिक दलों ने प्रशासन पर हमेशा दबाव डाला कि जवाहर पार्क खाली कराया जाए। जवाहर पार्क मुक्ति आंदोलन के नाम से कई संगठनों का भी उल्लेख मिलता है। रामवृक्ष यादव के कब्ज़े से जवाहर पार्क खाली कराने के बाद हमारे सहयोगी रवीश रंजन शुक्ला ने भीतर जाकर जायज़ा लिया था।

ज़िलाधिकारी की कोठी के सामने इस तरह का एक आपराधिक साम्राज्य बसता चला गया। ये लोग शहर में प्रशासनिक कर्मचारियों के साथ मारपीट कर रहे थे। फिर भी प्रशासन ने इतनी तत्परता क्यों नहीं दिखाई। 6 मई के अमर उजाला की खबर है कि मई के पहले हफ्ते में प्रशासन ने झांसी, फैज़ाबाद, सुल्तानपुर और मुरादाबाद से चार कंपनी पीएसी की मंगा ली थी। 20 थानों की पुलिस के साथ बकायदा रिहर्सल भी किया गया। दंगा नियंत्रण, पम्प गन, स्टेन गन, एम पी-5 गन, मिर्ची बम, करंट बम, आस्टन बम, आंसू गैस के गोलों का रिहर्सल हुआ था। खबर के अनुसार जवाहर बाग के लिए 30 कंपनियां मांगी गई थी। दिवंगत एसपी सिटी मुकुल द्विवेदी का बयान था कि इसके लिए शासन से 15 कंपनी रैपिड एक्शन फोर्स की मांगी गई है। गूगल मैप की नज़र से जवाहर बाग पर नज़र रखी जा रही है।

इन ख़बरों से पता चलता है कि जवाहर बाग के भीतर क्या हो रहा है, इसकी जानकारी प्रशासन से लेकर प्रेस और मथुरा के नागरिकों को थी। तमाम तरह की खबरें छप रही थीं, तो क्या सत्याग्रहियों का दुस्साहस इतना बढ़ गया था कि उन्होंने हथियार जमा किए। नेताजी सुभाष चंद्र बोस के नाम पर ये लोग पूरी सेना बनाकर बैठे थे। इतने हथियार कहां से आते हैं। ऐसे लोगों के पास पैसे कहां से आ जाते हैं। कैसे इनका इतना बड़ा साम्राज्य खड़ा हो जाता है। मध्य प्रदेश के सागर में इसने एक अजीब सा अभियान चलाया था कि एक रुपये लीटर में पेट्रोल-डीज़ल मिले, 12 रुपये तोला सोना मिले, गोल्ड करेंसी चलाना चाहता था। क्या ऐसे लोगों की मांगों के सामने प्रशासन इसलिए झुकता है, क्योंकि इनके साथ धार्मिक आधार भी जुड़ा रहता है। जय गुरुदेव का अपना एक धार्मिक साम्राज्य तो है ही। क्या धार्मिक होने के कारण प्रशासन को नहीं सूझता कि इनसे कैसे निपटे।

नवंबर 2014 में हिसार में कोई रामपाल था, रामपाल ने सतलोक आश्रम के भीतर सैंकड़ों लोगों को बंधक सा बना लिया था। हाईकोर्ट का आदेश था कि उसकी पेशी हो मगर दो हफ्ते लग गए पुलिस को आश्रम खाली कराने में। 20,000 लोग आश्रम के भीतर थे। मुख्यमंत्री ने अपील की, हिसार की नाकेबंदी कर दी। खूब गोलियां चलीं। आंसू गैस चले। उल्टा पत्रकारों पर पुलिस ने हमला कर दिया। आश्रम के दम पर पूरे हरियाणा प्रशासन की नाक में दम कर रखा था। यह आदमी चार साल तक अदालत में पेश ही नहीं हुआ। वहां भी मथुरा के वकीलों की तरह हरियाणा बार एसोसिएशन ने अदालत की अवमानना की याचिका दाखिल की थी। अर्धसैनिक बलों की 35 कंपनियां तैनात करनी पड़ी। हवाई सर्वे हुए। समर्थकों ने जजों पर आरोप लगाने वाले बैनर पोस्टर लगा दिये। पता चला कि आश्रम के पास अपने कमांडो हैं। रामपाल ने लोगों को आगे कर दिया। वे पुलिस से लोहा लेने लाठी डंडा लेकर आगे आ गए। बाद में आश्रम खाली करा लिया गया। सतलोक आश्रम तो खाली हो गया मगर उसी हरियाणा में कुछ ऐसे आश्रम हैं, जहां पुलिस जा नहीं सकती। मथुरा के इन सत्याग्रहियों का हाल देखा ही आपने।

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