नमस्कार... मैं रवीश कुमार। 90 के दशक में कार्यपालिका के ख़िलाफ शुरू हई न्यायिक सक्रियता 2014 के साल में उसी कार्यपालिका के सामने अपना मुकम्मल बचाव तक नहीं कर सकी। इस इम्तहान में कार्यपालिका ने अपना खोया हुआ नियंत्रण वापिस ले लिया या फिर न्यायपालिका पहले से और बेहतर हो गई है, इस पर कानून के विद्वान लंबे समय तक बहस करेंगे।
केंद्रीय कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने राष्ट्रीय न्यायिक आयोग के लिए संविधान संशोधन बिल पेश करते हुए उसे ऐतिहासिक बताया। संविधान कानून और संस्थाओं पर नज़र रखने वाले लोकतांत्रिक प्राणियों के लिए वाकई आज का दिन ऐतिहासिक है। किस रूप में ऐतिहासिक है, यह बहस का विषय हो सकता है।
सुप्रीम कोर्ट और 24 हाईकोर्ट के जजों की नियुक्ति तबादला और प्रमोशन के लिए एक आयोग बनेगा जिसका संक्षिप्त नाम होगा एनजेएसी, यानी राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग के मुखिया होंगे भारत के प्रधान न्यायधीश। कानून मंत्री, सुप्रीम कोर्ट के दो वरिष्ठ जज, दो प्रतिष्ठित नागरिक इसके सदस्य होंगे। प्रतिष्ठित सदस्य कौन होंगे, कैसे बनेंगे और कब तक रहेंगे, इसकी शर्तें दी गईं हैं।
एनजीएसी को संवैधानिक दर्जा दिया गया है, ताकि सरकार इसमें कोई फेरबदल न कर सके। एनजीएसी के 6 में से 2 सदस्य किसी उम्मीदवार पर सहमत नहीं है, तो नियुक्ति नहीं होगी। राष्ट्रपति एनजीएसी का प्रस्ताव पुनर्विचार के लिए लौटा सकते हैं, लेकिन पैनल ने सर्वसम्मति से प्रस्ताव भेजा तो राष्ट्रपति को मानना होगा। सुप्रीम कोर्ट का वरिष्ठ जज ही प्रधान न्यायधीश बनेगा, लेकिन वह नियुक्ति कमेटी की बैठक में भाग नहीं लेगा।
अगर आज लोकसभा में कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद को बोलते सुना हो तो आपने उनके भीतर के वकील और राजनेता को एक दूसरे से खूब होड़ करते देखा होगा। अच्छा भाषण दिया। नए आयोग के दो नागरिक सदस्यों की नियुक्ति जो कमेटी करेगी उसका एक सदस्य नेता विपक्ष हो या लोकसभा में सबसे बड़ी पार्टी का नेता होगा यानी कानून मंत्री ने कांग्रेस की परेशानी भी कम कर दी। यह प्रावधान लोकपाल से लेकर चुनाव आयोग की नियुक्तियों के लिए भी नज़ीर बनेगा।
कानून मंत्री ने कहा कि नया बिल संसद और न्यायपालिका की शक्तियों के समान बंटवारे और आदर पर टिका है, मगर नए आयोग में प्रधानता न्यायपालिका की बनी रहे, इसके लिए प्रमुख तो चीफ जस्टिस होंगे ही, दो जज भी होंगे। साथ ही जिन दो व्यक्तियों की नियुक्ति के लिए कमेटी बनेगी उसके भी सदस्य चीफ जस्टिस ही होंगे। आयोग जो प्रस्ताव भेजेगा सरकार स्वीकार करेगी।
पूरे भाषण में रविशंकर प्रसाद इस बात को लेकर सतर्क थे कि कहीं उनकी किसी बात का मतलब न्यायपालिका के अधिकार क्षेत्र में दखलंदाज़ी न समझ लिया जाए। इसलिए उन्होंने इस बात का विस्तार से ज़िक्र किया कि आज इस बिल को पेश करने से पहले बीस सालों में चार बार संविधान संशोधन के प्रयास हुए हैं, सात बार विभिन्न कमेटियों ने विस्तार से सुझाव दिए हैं।
कानून मंत्री ने संविधान निर्माता डॉक्टर आंबेडकर को कोट किया कि कैसे वे जजों की नियुक्ति के मामले में राष्ट्रपति, भारत के प्रधान न्यायधीश और संसद में से किसी भी एक को सर्वोच्च अधिकार देने के पक्ष में नहीं थे। साल 1993 के सुप्रीम कोर्ट के जिस फैसले से कोलेजियम सिस्टम की शुरुआत होती है। वह फैसला देने वाले दिवंगत जस्टिस जेएस वर्मा के उस बयान का ज़िक्र भी किया गया, जिसमें उन्होंने कहा था कि न्यायपालिका ने उनके फैसले का गलत मतलब समझ लिया।
रविशंकर प्रसाद कहते हैं कि 1950 से 1993 तक जजों की नियुक्ति की पुरानी व्यवस्था ने बहुत अच्छा काम किया। आज कोलेजियम से पहले का कोई जज नहीं है। मैं सवाल पूछता हूं कि आज वीआर कृष्ण अय्यर जैसे जज क्यों नहीं हैं। एचआर खन्ना जैसे जज क्यों नहीं हैं? बीजन मुखर्जी, वीवीएन बोस एसआर दास जैसे जज कहां हैं? उस सिस्टम में कमियां थीं तो लेजेंड भी आए।
जब रविशंकर प्रसाद ये उदाहरण दे रहे थे तो मुझे ध्यान आ रहा था कि केंद्र या राज्य सरकारें अपने पैनल पर वकीलों की नियुक्ति पेशेवर तरीके से करती है या राजनीतिक पसंद के आधार पर। उसे भी क्यों न पारदर्शी बनाया जाए। मैं इस योग्य तो नहीं हूं पर क्या हमारे कानून मंत्री यह कह रहे हैं कि मौजूदा कोलेजियम सिस्टम में यानी 1993 के बाद से कोई ऐसा जज ही नहीं बना, जिसका नाम लिया जा सके। क्या 1993 के बाद से सुप्रीम कोर्ट ने ऐतिहासिक फैसले नहीं दिए। टू जी घोटाले से लेकर अन्य घोटालों में नेताओं से लेकर उद्योगपतियों को जेल भेजने की दास्तान क्या इस सिस्टम में दर्ज नहीं है।
कानून मंत्री एक और उदाहरण देते हैं, जबलपुर हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस जीपी सिंह जिनकी किताब की मिसाल दी जाती हैं, वह सुप्रीम कोर्ट में नहीं आ सके। इस पर सोचना होगा। कानून मंत्री ने पूर्व जस्टिस काटजू के किसी भी आरोप या उदाहरण का ज़िक्र नहीं किया, लेकिन उनके अपने उदाहरणों के जवाब में कोई यह पूछ सकता है कि क्या सुप्रीम कोर्ट में वे लोग जज बन गए, जो चीफ जस्टिस जीपी सिंह से कम काबिल थे।
जब 2012 में सुप्रीम कोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस एसएच कपाडिया रिटायर हुए तब फोर्ब्स पत्रिका ने लिखा था 'जस्टिस कपाडिया पिलग्रिम ऑफ जस्टिस' यानी न्याय का तीर्थयात्री। हिन्दू ने सितंबर 2012 में लिखा कि कपाडिया का कार्यकाल ऊंचे ओहदों पर भ्रष्टाचार को निशाना बनाने के लिए याद किया जाएगा। इंडिया टुडे ने लिखा कि न्यायपालिका में भरोसे को बहाल कर जस्टिस कपाडिया रिटायर हो गए। डीएनए ने लिखा 'अ चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया हू ब्रीद्स इंटेग्रिटी'।
यह भी ध्यान में रखियेगा कि कुछ चीफ जस्टिस पर सीधे या अप्रत्यक्ष रूप से आरोप भी लगे। हाल के दिनों में जस्टिस काट्जू ने न्यायपालिका में भ्रष्टाचार के कई प्रसंगों का ज़िक्र किया और कई मामलों में बताया कि कोलेजियम के मुखिया के नाते चीफ जस्टिस ने कदम नहीं उठाये। एक मामले में उन्होंने पूर्व प्रधान न्यायधीश कपाडिया का भी ज़िक्र किया है।
सोमवार को सुप्रीम कोर्ट में कोलेजियम सिस्टम के खिलाफ जनहित याचिका पर सुनवाई थी। इस सिस्टम के बचाव में मौजूदा चीफ जस्टिस आर एम लोढा ने कहा कि जानबूझ कर एक अभियान के तहत न्यायपालिका की छवि खराब की जा रही है। मैं इस कोलेजियम सिस्टम से नियुक्त जजों के पहले बैच का हूं और जस्टिस नरिमन आखिरी जज होंगे। अगर कोलेजियम सिस्टम फेल हो गया है, तो हम सब फेल हो गए हैं।
जल्दी ही कोलेजियम सिस्टम इतिहास बन जाएगा। क्या नया सिस्टम वो सब इतिहास बनाने में सक्षम होगा जो कथित रूप से कोलेजियम से नहीं बना। आप जानते हैं कि 1993 के बाद से सुप्रीम कोर्ट का कोलेजियम जजों की नियुक्ति करता है। अब राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग करेगा।
(प्राइम टाइम इंट्रो)