नमस्कार, मैं रवीश कुमार।
भारत में गुरुओं के इतने प्रकार हैं कि तय करना मुश्किल हो जाता है कि सच्चा गुरु कौन है। वो जो सिर्फ गुरु है या वो जो धर्म गुरु है या वो जो बिना सीबीएसई बोर्ड या जी मैट क्लीयर किए विश्व गुरु बनने का एलान करते रहता है। हर दिन यहां कोई न कोई बाबा लांच हो जाते हैं। तय करना मुश्किल हो जाता है कि उनके प्रवचनों में ज्ञान और दर्शन का तत्व है या अंधविश्वास अंधभक्ति के तत्व।
आप इस पूरे हफ्ते टीवी पर देख ही रहे हैं कि हरियाणा के हिसार में क्या हो रहा है। कर्मकांड को चुनौती देने वाले रामपाल का आश्रम एक नए तरीके का कर्मकांड बन गया है। जहां भक्त कम नज़र आते हैं भक्त के नाम पर कोई सेना बन गई है। पुलिस की कार्रवाई चल रही है। काले टी-शर्ट पहनकर कमांडो की झलक देने वाले बाबा कमांडो भी निकलने लगे हैं। पुलिस ने पांच हज़ार से ज्यादा लोगों को आश्रम से निकालने का दावा किया है। पुलिस ने कहा है कि जो भी बाहर निकल रहा है उन्हें बसों में भरकर रेलवे स्टेशन और बस स्टैंड पर छोड़ कर आ रहे हैं। ज्यादा से ज्यादा लोगों के निकालने के बाद ही पुलिस आश्रम में धावा बोलेगी और बाबा को पकड़ेगी।
पुलिस ने सुबह दावा किया कि बाबा आश्रम में ही है। हम ये रिपोर्ट भी पूरी दिखायेंगे लेकिन उससे पहले कर्नाटक ले जाना चाहते हैं। जहां कुछ संत धरने पर बैठे हैं, इस मांग को लेकर सरकार अंधविश्वास और अंध श्रद्धा को खत्म करने के लिए कानून बनाए। नास्तिक माने जाने वाले कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया की सरकार पिछले साल इस मामले में बिल लाने का प्रयास कर रही थी, लेकिन बीजेपी, बजरंग दल और वीएचपी के विरोध और अन्य कारणों से पेश तक नहीं कर सकी।
सिद्दारमैया सरकार इस बिल के बहाने राज्य में परंपरा के नाम पर चली आ रही अंधश्रद्धाओं को भी निशाने पर लेना चाहती थी।
इन बाबाओं को धरने पर बैठा देख यही लगा कि आस्था के क्षेत्र में अब भी संवाद की गुज़ाइश है। सबकुछ पहले से तय नहीं है और जो परंपरा के नाम पर अंधविश्वास है उसे धर्म का आचरण करने वाले साधु संतों के भीतर से भी चुनौती दी जा सकती है। इन लोगों का समर्थन कर्नाटक सरकार के बिल को मज़बूती दे सकता है।
ये सभी अंधविश्वास निरोधक कानून संशोधन बिल का समर्थन दे रहे हैं। ऐसा ही प्रयास महाराष्ट्र में हुआ था जहां डेढ़ दशक तक ऐसे कानून के लिए संघर्ष चलता रहा। मगर कानून जब पास हुआ तो वो नहीं था जैसा होना था। अंतत महाराष्ट्र का कानून अंधश्रद्धा और अंधविश्वास से लोहा नहीं ले सका और जादू टोना निरोधक कानून में बदल कर रह गया।
इसी में बदलाव के लिए संघर्ष करते हुए पुणे के नरेंद्र दाभोलकर गोलियों के शिकार हो गए। आज तक उनके हत्यारे पकड़े नहीं गए हैं। अगर कर्नाटक में यह कानून पास होता है तो देश के लिए नज़ीर बनेगा। सिद्दारमैया को नेशनल लॉ स्कूल और अन्य संस्थानों के विशेषज्ञों की ओर से तैयार बिल का एक ड्राफ्ट मिला है। बिल के निशाने पर विवादित धार्मिक परंपराएं हैं जैसे ब्राह्मणों के खाने के बाद बचे हुए हिस्से पर दलित लोगों का लोटना, इस उम्मीद में कि इससे उनके कई रोग दूर हो जाएंगे।
कर्नाटक के कई मंदिरों में ये परंपरा आम है। कर्नाटक के बागलकोट में छोटे बच्चों को मज़बूत बनाने के लिए उन्हें एक मंदिर की छत से फेंकने की भी कुप्रथा जिस पर सवाल उठते रहे हैं।
इस बिल में काला जादू, जादू टोना, ज्योतिषीय भविष्यवाणियों को भी शामिल किया गया है। नए बिल के तहत इस तरह के अंधविश्वास भरे तरीकों जैसे बलि देना, बीमारी ठीक करने के लिए हिंसक तरीके अपनाना, काला जादू, ख़ुद को चोट पहुंचाने जैसे अंधविश्वासों, ज्योतिष के आधार पर भविष्यवाणियों को अपराध माना जाएगा। ज़ाहिर है बिल में ज्योतिष पर पाबंदी लगाने का प्रस्ताव कई लोगों के गले नहीं उतरा है।
कर्नाटक में अंधविश्वास के एक से एक उदाहरण आपको मिलेंगे। मुख्यमंत्री बनने के बाद येदियुरप्पा मुख्यमंत्री के सरकारी निवास में कभी नहीं रहे क्योंकि उनका मानना था कि रेसकोर्स के घर पर विधायक के तौर पर आते ही उन्हें नेता प्रतिपक्ष का पद मिला था। मुख्यमंत्री का पद छोड़ने तक येदियुरप्पा वहीं रहे। मुख्यमंत्री निवास के ठीक बगल में एक बड़ा बंगला है जो कि राज्य के सबसे वरिष्ठ नेताओं में से किसी एक को दिया जाता है, लेकिन कुमारस्वामी जब मुख्यमंत्री बने तो उनकी पार्टी जेडीएस से पहली बार विधायक बने इक़बाल अंसारी को ये रहने के लिए दिया गया।
इससे वो जितने खुश हुए उतने ही हैरान भी कि आख़िर उन्हें इतना विशाल और वरिष्ठ नेताओं वाला बंगला क्यों दिया गया। बाद में वो तंत्र-मंत्र का सहारा लेते दिखे क्योंकि उन्हें बताया गया कि राजनेताओं ने इसे मनहूस घोषित कर दिया है। जब किसी ने इसे नहीं लिया तो उन्हें ये दे दिया गया।
बाद में जगदीश शेट्टर ने इस अंधविश्वास को तोड़ा। वो इसी घर से स्पीकर और फिर मुख्यमंत्री बने। इस सबके बीच सिद्धारमैया और पूर्व मुख्यमंत्री जगदीश शेट्टर दो ऐसे नेता हैं जिनकी छवि नास्तिक की है जो धर्म से ज़्यादा कर्म में भरोसा रखते हैं।
मंगलयान लॉन्च होने से पहले इसरो के चेयरमैन राधाकृष्णन भी तिरुपति जाकर मिशन की कामयाबी के लिए माथा टेकते दिखे जिस पर कई सवाल खड़े हुए।
साइंटिफिक टैम्परामेंट यानी वैज्ञानिक मिज़ाज विकसित करने को 42वें संविधान संशोधन के द्वारा संविधान के अनुच्छेद 51 (ए)(एच) में जोड़ा गया, ताकि देश के नागरिकों में वैज्ञानिक सोच मानवीयता और जानने− समझने का जज़्बा विकसित किया जा सके।
जवाहरलाल नेहरू ने अपने किताब द डिस्कवरी ऑफ इंडिया में भी वैज्ञानिक मिज़ाज के विचार का वर्णन किया है और उसे विस्तार से समझाया है। उन्होंने कहा कि
- वैज्ञानिक मिज़ाज एक आज़ाद आदमी का मिज़ाज है।
− वैज्ञानिक नज़रिया हमारी सोच की प्रक्रिया का हिस्सा होना चाहिए। ये हमारे जीने का तरीका होना चाहिए। इसी के आधार पर हमें काम करना चाहिए और अपने साथियों के साथ व्यवहार करना चाहिए।
− हम वैज्ञानिक युग में जी रहे हैं, लेकिन हमारे लोगों और उनके नेताओं में वैज्ञानिक मिज़ाज का कोई सबूत नहीं दिख रहा है।
− यहां तक कि वैज्ञानिक जो विज्ञान को प्रैक्टिस करते हैं ज़रूरी नहीं है कि उनका भी वैज्ञानिक मिज़ाज हो।
महाराष्ट्र विधानसभा ने अंधश्रद्धा निर्मूलन बिल पास किया है।
15 साल से ये बिल राज्य विधानसभा में लटका हुआ था
अंधश्रद्धा निर्मूलन क़ानून की मांग से जुड़े समाजसेवी नरेंद्र डाभोलकर की पुणे में हुई हत्या के बाद पिछली पृथ्वीराज चव्हाण सरकार हरक़त में आई। राज्य सरकार ने पहले इससे जुड़ा अध्यादेश पारित किया और फिर विधानसभा में उससे जुड़ा विधेयक पारित करवाया। बाद में विधानपरिषद में भी ये विधेयक पारित हो गया।
इस बिल को Friday the 13th को पास किया गया जिसे कई लोग अशुभ भी मानते हैं। नरेंद्र डाभोलकर ने 1989 में महाराष्ट्र अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति का गठन किया था।
डाभोलकर ने कई संदिग्ध तांत्रिकों और बाबाओं की पोल खोलने का भी काम किया जो भोले भाले लोगों को बहकाते थे। अंधश्रद्धा निर्मूलन क़ानून बनाने के लिए वो लगातार कोशिश करते रहे, लेकिन उनकी हत्या के अगले दिन ही राज्य सरकार ने इससे जुड़ा अध्यादेश पारित किया।
नया क़ानून काला जादू, अंध श्रद्धा, अंध विश्वास, पोंगा पंथ और बलि जैसी सामाजिक बुराइयों को ख़त्म करने के लिए बनाया गया है।
हालांकि इस बात को लेकर सवाल उठते रहे हैं कि क्या सिर्फ़ कानून बनाने से ही समाज को बदला जा सकता है। दहेज प्रथा, नशाबंदी जैसे क़ानूनों के अमल में होने के बावजूद ये सामाजिक बुराई बनी हुई हैं, लेकिन फिर भी इन पर अंकुश तो लगा ही है। सती प्रथा, बाल विवाह, दास प्रथा जैसी सामाजिक बुराइयों को क़ानून के ज़रिए ही काफ़ी प्रभावी तरीके से रोका जा सका है।
(प्राइम टाइम इंट्रो)