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This Article is From Sep 02, 2014

मोदी सरकार के सौ दिन

Ravish Kumar
  • Blogs,
  • Updated:
    नवंबर 20, 2014 12:35 pm IST
    • Published On सितंबर 02, 2014 21:19 pm IST
    • Last Updated On नवंबर 20, 2014 12:35 pm IST

नमस्कार... मैं रवीश कुमार। यह पहली सरकार है, जिसके सौ दिन पूरे होने से हफ्ता भर पहले ही सौ दिन के कामकाज का हिसाब किताब हो रहा है। जब अठारह घंटे चलकर न्यूज़ चैनल चौबीस घंटे के कहला सकते हैं, तो चार पांच दिन पहले से सौ दिन क्यों नहीं मन सकता। वैसे आज यानी मंगलवार को 100 दिन पूरे हो गए हैं।

इंटरनेट पर 1999 के कई लेख मिले हैं जो अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के सौ दिन पूरे होने पर लिखे गए थे। पत्रकारिता के शिलालेखों से ज्ञात होता है कि सौ दिन मनाने की परंपरा ट्वीटरागमन, फेसबुकागमन और कई अर्थों में चैनलागमन से पहले की है।

जापान दौरे पर सधे हाथों से ड्रम बजाकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इतना तो बता ही रहे हैं कि सबकुछ उनके नियंत्रण में हैं और जितना आप उनके बारे में जानते हैं शायद वह पूरा नहीं हैं। ड्रम की तरह अभी कुछ और जानना बाकी है। जापान में होकर भी वे अपने तमाम भाषणों में सौ दिन का ज़िक्र कर ही दे रहे हैं। उनके दौरे के पल-पल की जानकारी मीडिया के तमाम माध्यमों से प्रसारित हो रही है। वह जितने जापान में हैं, उससे कहीं ज़्यादा हिन्दुस्तान में हैं। 100 दिन की चर्चा उनके तमाम भाषणों में है।

जापानी चैंबर्स ऑफ़ कॉमर्स के प्रतिनिधियों से कहते हैं कि पिछले 100 दिन के मेरे कार्यकाल को अगर देखा जाए, तो मैं राष्ट्रीय राजनीति में नया था इतने बड़े पद के लिए। मैं प्रोसेस में कभी नहीं रहा था। छोटे से राज्य से आया था, इन सब मर्यादाओं के बावजूद भी 100 दिन के भीतर जो इनिशिएटिव हमने लिए हैं, उसके परिणाम आज साफ नज़र आ रहे हैं।

सेक्रेट हार्ट यूनिवर्सिटी में भी कहते हैं कि 100 दिन हुए हैं सरकार को। मेरी जो कैबिनेट है उसमें 25 प्रतिशत महिलाएं हैं। इतना ही नहीं हमारी जो विदेशमंत्री हैं वह भी महिला ही हैं।

दो सितंबर को उद्योगपतियों से बात करते हुए कहा कि पहले 100 दिन में ही उनकी सरकार ने रेड टेप यानी लाल फीताशाही को काफ़ी कम किया है और व्यापार से जुड़ी अड़चनों को दूर किया है।

इससे पहले एक सितंबर को प्रधानमंत्री ने ऐसी ही एक सभा में कहा कि गुजराती होने के नाते पैसा मेरे ख़ून में है। कॉमर्स और बिज़नेस मेरे ख़ून में हैं। बिज़नेस में आपको रियायत नहीं चाहिए, बल्कि माहौल चाहिए।

मनमोहन सिंह अर्थशास्त्री के रूप में जाने गए, मगर कभी यह कहने का साहस नहीं कर पाए कि बिज़नेस या पैसा मेरे ख़ून में है। वैसे ख़ून में बिजनेस है, ऐसी बात कहने का माद्दा मोदी के समकालीन नेताओं में भी नहीं हैं। बिजनेस मतलब सरकार काम पर है।

बीजेपी के प्रवक्ताओं के बयान में भी यह बात बार−बार आती है कि पहले दिन से काम ही तो कर रहे हैं। ज़ाहिर है प्रधानमंत्री ख़ुद ही पेश कर रहे हैं कि उनका मूल्यांकन अर्थव्यवस्था के मानकों पर किया जाए। रक्षा, बीमा, रेल में विदेशी निवेश की मात्रा बढ़ाने का फैसला लेकर सरकार ने यह संकेत दिया कि वे राजनीतिक विरोध के बावजूद जोखिम उठा सकते हैं।

इस साल अप्रैल-मई-जून के दौरान जीडीपी की दर 5.7 प्रतिशत हुई है। दो साल में पहली बार यह आकंड़ा पार हुआ है, जिसने सरकार का आत्मविश्वास बढ़ा दिया है। अरुण जेटली ने कहा है कि आने वाले दिनों में विकास दर में और तेज़ी आएगी। वित्तमंत्री ने कहा कि विदेशी निवेशकों का नज़रिया तेज़ी से बदला है।

महंगाई के बारे में प्रकाश जावड़ेकर ने कहा कि सौ दिन में कम करने का वादा यूपीए ने 2009 में किया था, हमने नहीं। हमने लगाम कसनी शुरू कर दी है। एक डेढ़ साल में फर्क दिखेगा।

वहीं कांग्रेस और आम आदमी पार्टी ने पूछा है कि काला धन कहां हैं। चुनाव के दौरान सुब्रमण्यम स्वामी और राजनाथ सिंह ने कहा था कि साठ से सौ दिन में 120 लाख करोड़ ले आएंगे। सोशल मीडिया पर यह भी पूछा जा रहा है कि काले धन को लेकर चुनाव से पहले मुखर रहने वाले बाबा रामदेव अब क्यों नहीं बोल रहे?

अब आते हैं राजनीतिक फ्रंट पर। यह आलोचना हुई कि सिर्फ और सिर्फ प्रधानमंत्री ही दिखाई देते हैं। प्रकाश जावड़ेकर कहते हैं कि यह टीम मोदी की कामयाबी है। सारे मंत्री मिलकर काम कर रहे हैं।

उत्तर प्रदेश बीजेपी के आक्रामक बयानों के संदर्भ में पूछा जा रहा है कि दस साल तक नफरत-हिंसा की राजनीति को मुल्तवी करने के प्रधानमंत्री के आह्वान का क्या हुआ?

राज्यपालों को हटाने और प्रधानमंत्री के सरकारी कार्यक्रमों में मुख्यमंत्रियों की हूटिंग को लेकर भी विवाद हुआ।

राजनाथ सिंह ने अपने परिवार के प्रति कथित आरोपों को अफवाह बताकर मामला सार्वजनिक कर दिया, तो सफाई पीएमओ और बीजेपी दोनों तरफ से आई। कांग्रेस ने पूछा है कि प्रधानमंत्री ने यूपीए के घोटालों को मुद्दा बताकर चुनाव लड़ा आज वे बतायें कि कौन सा घोटाला था।

एक मोर्चा विदेश नीति का भी है और एक पहलू आधार कार्ड जैसी यूपीए की कई नीतियों की निरंतरता का भी और इन सबके बीच प्रधानमंत्री का ख़ुद को बार-बार बाहरी बताना।

जब सरकार के तीस दिनों पर मीडिया ने सौ दिन टाइप कार्यक्रम चलाने शुरू किए तो उन्होंने 26 जून को अपने ब्लॉग में लिखा था कि मैं दिल्ली में एक बड़ी चुनौती का सामना कर रहा हूं। लोगों के कुछ समूह बने हुए हैं, जिन्हें बदलाव लाने की मंशा और उसकी गंभीरता को समझा पाने में कठिनाई आ रही है। ये वे लोग हैं, जो सरकार के भीतर और बाहर भी हैं। मुझे लगता है कि इस सिस्टम को मज़बूत करने की ज़रूरत है।

प्रधानमंत्री जापान में भी बाहरी होने की बात कह रहे हैं और पंद्रह अगस्त के दिन लाल किले से भी कहा कि मैं दिल्ली की दुनिया का इंसान नहीं हूं। मैं यहां के राज काज को भी नहीं जानता। यहां की एलिट क्लास से तो मैं बहुत अछूता रहा हूं, लेकिन एक बाहर के व्यक्ति ने दिल्ली आकर पिछले दो महीनों में एक इनसाइडर व्यू लिया तो मैं चौंक गया। ऐसा लगा कि सरकार के अंदर भी दर्जनों अलग-अलग सरकारें चल रही हैं। हरेक की जैसे अपनी अपनी जागीर बनी हुई है। एक डिपार्टमेंट दूसरे से भिड़ रहे हैं। मैंने इन दीवारों को गिराने की कोशिश शुरू की ताकि एकरस सरकार हो।

बार-बार बाहरी होने की बात लेकिन सत्ता पर नियंत्रण की पूर्ण ख़बरों के बीच अगर कोई नई कार्यसंस्कृति बनी है, तो क्या वह सरकार के प्रति आपकी समझ को भी नए तरीके से बनाती है। क्या 16 मई के पहले सरकार के न होने और उसके बाद सरकार के होने के अहसास के फर्क के आधार पर मूल्यांकन किया जा सकता है। क्या मोदी यह अहसास दिलाने में सफल हुए हैं कि दिल्ली में एक सरकार है जो है और चल रही है। जो जितना करती है उतना या उससे ज्यादा बोलती है। किसी को संवाद का अतिरेक लग सकता है, मगर कोई यह तो नहीं कह सकता कि संवाद नहीं है।

(प्राइम टाइम इंट्रो)

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