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This Article is From Oct 28, 2020

प्रधानमंत्री की मगही और भाषाओं का दर्द

Priyadarshan
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जनवरी 06, 2021 18:25 pm IST
    • Published On अक्टूबर 28, 2020 22:14 pm IST
    • Last Updated On जनवरी 06, 2021 18:25 pm IST

बिहार में पटना की रैली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मगही बोलने की कोशिश करते नज़र आए. बिहार की तीन प्रमुख भाषाओं में मगही कुछ लटपटाई हुई सी भाषा है. उसमें न भोजपुरी वाली अक्खड़ता है और न मैथिली वाला माधुर्य, बल्कि इसकी जगह एक घरेलूपन है जिसमें प्रेम और क्रोध दोनों एक सीमा के भीतर ही प्रगट होते हैं. ऐसी भाषा में राजनीति मुश्किल होती है. ऐसी भाषा की नक़ल भी आसान नहीं होती. इसलिए प्रधानमंत्री जितनी आसानी से भोजपुरी या मैथिली का लहजा अख़्तियार कर ले सकते थे, मगही का नहीं कर पाए.

हालांकि यह कोई नाकामी नहीं है. प्रधानमंत्री या उनके सहायकों को एक अलग भाषा के रूप में मगही का मान रखने का इतना ख़याल रहा कि उन्होंने अपना संबोधन मगही में शुरू करने की कोशिश की, यह भी छोटी बात नहीं है. लेकिन भाषाएं दरअसल सिर्फ़ इसलिए नहीं होतीं कि उन्हें बोला जाए या समझा जाए, वे तभी सार्थक होती हैं जब उन्हें महसूस किया जाता है. दुर्भाग्य से हमारी मौजूदा राजनीति में बहुत कम नेता ऐसे बचे हैं जिनकी भाषा महसूस करने योग्य है.

ख़ैर, इस विषयांतर में न जाएं. मगही पर लौटें. भोजपुरी और मैथिली बोलने वालों के मुक़ाबले मगहीभाषी लोग कुछ ज़्यादा घरघुस्सू रहे हैं. भोजपुरी बोलने वाले दुनिया के कई हिस्सों में मिल जाते हैं, मैथिली बोलने वाले देश के कई हिस्सों में मिल जाते हैं, लेकिन मगही बोलने वाले बिहार के ही अलग-अलग हिस्सों में ज़्यादातर सिमट कर रह गए. भोजपुरी और मैथिली अपनी भाषिक हैसियत को लेकर बहुत संवेदनशील भाषाएं हैं और अपने लिए तरह-तरह की मांग करती रहती हैं. मैथिली तो अब आठवीं अनुसूची में शामिल हो गई भाषा है. लेकिन मगही भाषी लोगों ने अपने लिए ऐसी कोई मांग कभी नहीं की. इसके बावजूद कि उनकी संख्या करीब सवा करोड़ के आसपास ठहरती है.

जबकि मगही एक पुरानी और समृद्ध भाषा रही है. इसे मागधी भी कहते रहे. कभी आकाशवाणी पटना से मागथी नाम का एक कार्यक्रम भी हुआ करता था. अब पता नहीं होता है या नहीं. इसकी अपनी कैथी लिपि भी रही. बेशक, मैथिली भी कभी तिरहुता लिपि में लिखी जाती रही और भोजपुरी के लिए अलग-अलग लिपियों का इस्तेमाल होता रहा है. लेकिन कैथी और तिरहुता अब लोप की ओर बढ़ती लिपियां हैं- देवनागरी ने उनको विस्थापित कर दिया है. मगही भी धीरे-धीरे दरअसल विस्थापित होती भाषा ही है.

बिहार चुनाव में अब तक भोजपुरी और मैथिली का इस्तेमाल होता रहा. 'का बा' और 'ई बा' के भोजपुरी सवाल-जवाब के बीच 'अल्लम-गल्लम गावै छै' के साथ मैथिली ने इसमें दख़ल दिया. अब सीधे प्रधानमंत्री के श्रीमुख से उच्चरित मगही भी चुनाव प्रचार में दर्ज होने का सौभाग्य प्राप्त कर चुकी है.

लेकिन भोजपुरी, मैथिली या मगही का राजनीति में इस्तेमाल क्या बताता है? यही कि ये बस वोट मांगने या काटने वाली भाषाएं रह गई हैं. बहुत कुछ हिंदी की भी यही नियति रह गई है- कायदे से दूसरी भारतीय भाषाओं की. वरना यह देश अंग्रेज़ी का हुआ जा रहा है. वह शासन की भी भाषा है और संसाधनों की भी. जो लाखों-करोड़ों की योजनाएं बनती हैं, घोषणाएं होती हैं, वे मैथिली-भोजपुरी और मगही बोलने वाले गरीबों तक किसी अंग्रेजी बोलने वाले अफ़सर और अंग्रेज़ी में काम करने वाली व्यवस्था के तहत ही पहुंचती हैं.

हालांकि यह हम सबके लिए जानी-पहचानी बात है. लेकिन बिहार के चुनाव के संदर्भ में यह एक अलग सी टीसती सच्चाई है. ज़्यादा दिन नहीं हुए जब ऐसी तमाम भाषाएं बोलने वालों को हमने सड़कों पर भटकते देखा. वे बेघर कर दिए गए, बेकार बना दिए गए, उन्हीं शहरों-महानगरों में बेगाने बना दिए गए जिनके सबसे ज़रूरी काम वे निबटाते रहे. उन्हें राज्यों की सीमाओं पर रोका गया, उनके लिए किसी पराये की तरह बाड़े बनाए गए, उन्हें प्रवासी माना गया.

ये वे लोग हैं जो बिहार के नेताओं की क़िस्मत तय करेंगे. इनके लिए ही अब भोजपुरी-मैथिली और मगही बोली जा रही है. एक तरह से ये आपस में घुलनशील भाषाएं भी रहीं. मगही कई बार भोजपुरी में समाई मिलती है तो भोजपुरी कई बार मैथिली के आंगन में दाख़िल होती हुई. फिर ये तीनों भाषाएं पुराने दक्षिण बिहार और अब झारखंड आकर तरह-तरह की नागपुरी भाषाओं में घुल-मिल जाती हैं और एक नई भाषा बनाती हैं.

ये दरअसल भाषाएं नहीं, वे लोग हैं जिनसे यह देश बनता है- वे लाचार, कमजोर, एक-दूसरे से अलग दिखने वाले, लेकिन एक-दूसरे के बेहद करीब खड़े लोग. डॉक्टरों की कमी झेल रहे बिहार में ये लोग डॉक्टरों का काम करने की कोशिश में हंसी के पात्र बनते हैं, कोरोना को लेकर अपनी असावधान प्रवृत्ति के लिए अजीबो-गरीब सफ़ाइयां देकर मज़ाक का विषय बनते हैं और अपने हिंदी-अंग्रेज़ी उच्चारण के लिए तो बनते ही हैं.

बहरहाल, यह छोटी सी टिप्पणी लिखने का मक़सद यह याद दिलाना था कि भाषाएं बस शब्दों से नहीं बनतीं, दिल की धड़कनों से भी बनती हैं. भाषाओं की जो अपनी लय और ख़ुशबू होती है जो शब्दों के अंतरालों, उनके खिंचावों और उनकी चुप्पियों में होती है, वह दरअसल उनकी आत्मा बनाती है.

न राजनीति को इस आत्मा से काम है न बाज़ार को और न उस हिंदुस्तान को जिसे इस बाज़ार और राजनीति ने बनाया है. वह सिर्फ भाषाओं का भी एक 'टूल' की तरह इस्तेमाल करती है और इनकी वैध ज़रूरतें भूल जाती है. कभी किसी प्रधानमंत्री को मगही बोलने की कोशिश करते देख जितनी प्रसन्नता होती है, उतनी ही यह याद करके टीस भी होती है कि हमारी भाषाएं अंततः विपन्नता से विलोप की ओर बढ़ती भाषाएं हैं.

(प्रियदर्शन NDTV इंडिया में एग्जीक्यूटिव एडिटर हैं...)

(डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति NDTV उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं. इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार NDTV के नहीं हैं, तथा NDTV उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है.)

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