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बिहार की राजनीति में अति पिछड़ी जातियों की महिमा, क्या है नीतीश कुमार की सफलता का राज

पंकज चौरसिया
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जुलाई 11, 2025 16:10 pm IST
    • Published On जुलाई 11, 2025 16:02 pm IST
    • Last Updated On जुलाई 11, 2025 16:10 pm IST
बिहार की राजनीति में अति पिछड़ी जातियों की महिमा, क्या है नीतीश कुमार की सफलता का राज

पिछले दो दशक से बिहार की राजनीति में नीतीश कुमार एक स्थायी राजनीतिज्ञ के रूप में सक्रिय हैं. जाति की राजनीति के लिए मशहूर बिहार में उनकी अपनी जाति कुर्मी का कोई बड़ा आधार नहीं है. जातीय सर्वे में कुर्मी आबादी 2.87 फीसदी बताई गई थी. इसके बाद भी नीतीश ने बिहार की जाति-प्रधान राजनीति में एक ऐसा व्यापक सामाजिक गठबंधन तैयार किया है, जिसने उन्हें लगातार सत्ता में बनाए रखा है. साल 1995 में आयोजित 'कुर्मी चेतना रैली' में भाग लेने के बाद भी नीतीश कुमार ने खुद को केवल कुर्मी जाति के नेता तक सीमित नहीं रखा. लालू प्रसाद यादव जैसे कद्दावर नेता के वर्चस्व को चुनौती देने के लिए उन्होंने अति पिछड़ा वर्ग को केंद्र में रखकर 'लव-कुश गठबंधन' (कुर्मी-कोइरी) का बनाकर उसका विस्तार किया. इसमें उन्होंने धानुक जैसी जातियों को भी शामिल किया. इससे उनका जनाधार और व्यापक हुआ.

नीतीश कुमार ने शिक्षा, आरक्षण और कल्याणकारी योजनाओं को अति पिछड़ा वर्ग तक पहुंचा कर इस समूह को एक संगठित समर्थन आधार में बदलने की कोशिश की. उन्होंने इस वर्ग को ध्यान में रखकर कई योजनाएं शुरू कीं, जैसे- मुख्यमंत्री अति पिछड़ा वर्ग मेधा छात्रवृत्ति योजना, जननायक कर्पूरी ठाकुर अत्यंत पिछड़ा वर्ग कल्याण छात्रावास योजना, मुख्यमंत्री पिछड़ा और अति पिछड़ा वर्ग कौशल विकास योजना, मुख्यमंत्री अति पिछड़ा वर्ग सिविल सेवा प्रोत्साहन योजना, प्री-मैट्रिक व पोस्ट-मैट्रिक छात्रवृत्ति योजनाएं. 

इन योजनाओं ने इस वर्ग को राज्य के विकास कार्यक्रमों से जोड़ा और नीतीश कुमार की राजनीतिक साख को मजबूत किया. इसके साथ ही, उन्होंने अति पिछड़ा वर्ग की सूची में नई जातियों को जोड़ने की नीति अपनाई, जिससे यह वर्ग उनके नेतृत्व में एकजुट होता गया. इन परिस्थितियों में, अति पिछड़ा वर्ग अब बिहार की राजनीति में एक निर्णायक शक्ति बनकर उभरा है. इसके बावजूद यह समूह आज भी बड़ी संख्या में नीतीश कुमार का समर्थन करता है.यह स्थिति उन राजनीतिक दलों के लिए एक स्पष्ट चुनौती है, जो दो दशकों से इस जनाधार को तोड़ने या अपने पक्ष में करने का प्रयास कर रहे हैं, लेकिन अब तक सफल नहीं हो सके हैं.

1978 में बिहार के तत्कालीन सीएम कर्पूरी ठाकुर ने पिछड़ी जातियों को पिछड़ा वर्ग और अति पिछड़ा वर्ग में बांट दिया था.

1978 में बिहार के तत्कालीन सीएम कर्पूरी ठाकुर ने पिछड़ी जातियों को पिछड़ा वर्ग और अति पिछड़ा वर्ग में बांट दिया था.

पिछड़ों का बंटवारा करने वाले कर्पूरी ठाकुर

बिहार में 'अति पिछड़ी जातियों' की अवधारणा का संस्थागत निर्माण 'भारत रत्न' कर्पूरी ठाकुर ने किया था. उन्होंने 1978 में आरक्षण नीति को लागू करते समय पिछड़ा वर्ग को दो श्रेणियों- पिछड़ा वर्ग और अत्यंत पिछड़ा वर्ग, में विभाजित करने की ऐतिहासिक पहल की. नाई जाति से आने वाले कर्पूरी ठाकुर राज्य के पहले ऐसे मुख्यमंत्री थे जो अति पिछड़े समुदाय से आते थे. इससे पहले, 1971 में बतौर मुख्यमंत्री उन्होंने सामाजिक और आर्थिक विषमताओं का अध्ययन करने हेतु 'मुंगेरी लाल आयोग' का गठन किया. इस आयोग को राज्य में पिछड़ी जातियों की शिक्षा, रोजगार, व्यवसाय और शासन में भागीदारी की स्थिति का मूल्यांकन करना था. आयोग ने फरवरी 1976 में अपनी रिपोर्ट सौंपी, लेकिन यह लागू नहीं की गई. कर्पूरी ठाकुर के दोबारा सत्ता में आने के बाद, 10 नवंबर 1978 को आयोग की सिफारिशों के आधार पर आरक्षण नीति लागू की गई.

मुंगेरी लाल आयोग ने 128 जातियों को दो श्रेणियों में विभाजित किया- 34 जातियां 'पिछड़ा वर्ग' में और 94 जातियां 'अत्यंत पिछड़ा वर्ग'में. नई आरक्षण नीति में पिछड़े वर्ग को आठ फीसदी, अत्यंत पिछड़े वर्ग को 12 फीसदी, महिलाओं को तीन फीसदी और आर्थिक रूप से पिछड़ों को तीन फीसदी आरक्षण दिया गया. सुप्रीम कोर्ट ने आर्थिक आधार पर दिए गए आरक्षण को असंवैधानिक घोषित कर दिया. 

इस नीति ने बिहार में अत्यंत पिछड़ी जातियों के भीतर राजनीतिक जागरूकता पैदा की और उन्हें राज्य की सत्ता-संरचना में प्रतिनिधित्व का अवसर प्रदान किया. इससे सामाजिक न्याय की राजनीति को नई दिशा मिली, जो प्रतिनिधित्व, भागीदारी और सम्मान पर आधारित थी. ये जातियां सांस्कृतिक रूप से विविध हैं और मुख्यतः व्यक्तिगत सेवा-आधारित कार्यों (नाई, तेली, धोबी, बढ़ई, लोहार आदि) से जुड़ी रही हैं. अधिकांश जातियां न्यूनतम या शून्य भूमि की स्वामित्व वाली हैं. इनमें से कई को आज भी आरक्षण का पूरा लाभ नहीं मिल पाया है.

राजनीतिक चेतना आने के बाद अब अति पिछड़ी जातियां अपने अधिकारों के लेकर सचेत हुई हैं. अब वो सत्ता और शासन में हिस्सेदारी मांग रही हैं.

राजनीतिक चेतना आने के बाद अब अति पिछड़ी जातियां अपने अधिकारों के लेकर सचेत हुई हैं. अब वो सत्ता और शासन में हिस्सेदारी मांग रही हैं.

लोकतंत्र में सांख्यिकीय चेतना

भारतीय लोकतंत्र में राजनीतिक प्रतिनिधित्व संख्या पर आधारित होता है- जहां 'एक व्यक्ति,एक वोट,एक मूल्य' का सिद्धांत जब जातिगत संख्यात्मकता से जुड़ता है, तो वह सत्ता-साझेदारी की दिशा में निर्णायक चेतना का निर्माण करता है. यह चेतना न केवल सामाजिक वर्चस्व को चुनौती देती है, बल्कि जनसांख्यिकीय बल के आधार पर सत्ता में हिस्सेदारी की मांग करते हुए सामाजिक न्याय की वैधता को पुष्ट करती है. जातिगत सर्वेक्षण के बाद अति पिछड़ा वर्ग इस चेतना से तेजी से जुड़ा है. इसका एक प्रमुख कारण यह है कि यह समूह ऐतिहासिक रूप से वर्चस्वहीन रहा है और पिछड़े वर्गों के प्रभुत्वशील जातियों के अधीन राजनीतिक रूप से हाशिए पर रहा है- जहां उसकी आवाजें सत्ता विमर्श में या तो अदृश्य रहीं या मौन कर दी गईं. आज यह वर्ग बिहार की सबसे बड़ी सामाजिक श्रेणी बन चुका है, जिसकी आबादी 35 फीसदी से अधिक है.

अति पिछड़ों के भीतर उभरती यह चेतना अब केवल राजनीतिक प्रतिनिधित्व तक सीमित नहीं है; यह आत्म-सम्मान, सांस्कृतिक मान्यता और वैचारिक नेतृत्व की भी मांग करती है. विश्वकर्मा सम्मेलन,तेली-तमोली सम्मेलन, चंद्रवंशी सम्मेलन, पान सम्मेलन जैसे आयोजन महज सामाजिक गर्व के आयोजन नहीं, बल्कि राजनीतिक प्रतिरोध के प्रतीकात्मक मंच बन चुके हैं- जहां अधीनवर्ग सत्ता से प्रतिनिधित्व और भागीदारी का अधिकार मांगता है, न कि अनुकंपा. आज सभी प्रमुख राजनीतिक दल इस वर्ग को साधने के लिए वर्ग-सापेक्ष कल्याण योजनाओं, राजनीतिक आरक्षण और सांस्कृतिक प्रतीकों का सहारा ले रहे हैं. लेकिन यह ध्यान देना आवश्यक है कि जब अधीनवर्गीय चेतना उभरती है, तो वह केवल लाभ की प्राप्ति तक सीमित नहीं रहती, वह सत्ता संरचनाओं में आमूल परिवर्तन की मांग करती है, जहां वर्चस्व नहीं, साझेदारी और न्याय की राजनीति हो.

अस्वीकरण: लेखक दिल्ली की जामिया मिल्लिया इस्लामिया में शोध छात्र हैं. इस लेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी हैं, एनडीटीवी का उनसे सहमत या असहमत होना जरूरी नहीं है.

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