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'कुछ तो लोग कहेंगे' लोगों की चिंता पर सवाल उठाता एक नाटक

Himanshu Joshi
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अप्रैल 18, 2025 20:02 pm IST
    • Published On अप्रैल 18, 2025 17:52 pm IST
    • Last Updated On अप्रैल 18, 2025 20:02 pm IST
'कुछ तो लोग कहेंगे' लोगों की चिंता पर सवाल उठाता एक नाटक

बरसाती रात में एक होमस्टे में अलग-अलग बैकग्राउंड से पहुंचे लोगों की कहानी कैसे मिलती जाती है, पियाली दासगुप्ता सतीश ने अपने नाटक के जरिए यह दिखाते समाज की 'कुछ तो लोग कहेंगे' सोच पर तीखा व्यंग्य किया है. चितरंजन भवन दिल्ली में हुए 'THIS IS HOW WE LIVE'  नाटक की कहानी बरसाती रात में एक होमस्टे में मिले पांच लोगों के इर्दगिर्द घूमती है. इन पांचों की कहानी वही है, जो हम सब की कहानी है. 

लोग, समाज क्या कहेगा? यही सवाल आज हमारे समाज का सबसे जरूरी सवाल बन गया है. लोगों की चिंता में माता-पिता, भाई-बहन, पति-पत्नी, दोस्त-साथी, एक-दूसरे की जिंदगी बदलते हुए देखना चाहते हैं. पांच हिस्सों में बंटे इस नाटक को निर्देशक ने बड़ी ही खूबसूरती के साथ दर्शकों के सामने रखा है.

एक मृत इंसान को भी परिवार के नियम कानूनों में शामिल करते हुए निर्देशक ने जिस तरह नाटक को आगे बढ़ाया वह प्रयोग वास्तव में प्रशंसा योग्य है. दम तोड़ते थिएटर के इस दौर में पियाली दासगुप्ता सतीश अपने निर्देशन से थिएटर के स्वर्णिम दिन फिर लौट आने की उम्मीद जगाती हैं. सदाबहार 'कुछ तो लोग कहेंगे' गीत के साथ जब नाटक खत्म हुआ तो हॉल में तालियों की गड़गड़ाहट बन्द नही हो रही थीं.

साल 1967 से चले आ रहे 'धूमकेतू थिएटर ग्रुप' के द्वारा दिखाए गए इस नाटक के चलते दिल्ली का चितरंजन भवन दो दिन हाउसफुल रहा.

नीलेश और अरुंधति ने चुनौतीपूर्ण किरदार को सहजता के साथ निभाया

नाटक के हर भाग की समाप्ति पर कलाकार गाना गा रहा था, नए भाग की तैयारी करने के लिए इतना समय कलाकारों के लिए काफी था. चौथे और पांचवें हिस्से ने नाटक ने जान फूंकी. दर्शक फ्रेम में रहे दादाजी को देखकर हंसते भी रहते हैं क्योंकि फ्रेम टांगकर किसी मरे इंसान को जिंदा कर संवाद बोलने की कल्पना की भी नहीं जा सकती है. 

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दादा बने नीलेश सिंह ने इस मुश्किल कार्य को आसान कर दिया था, अपनी बंगाली बहु के बारे में दादा जिस तरह बोल रहे थे, वह नाटक के सबसे काबिल कलाकार लगे. नीलेश ने नाटक में अन्य कलाकारों की तरह एक से ज्यादा किरदार निभाए, निर्देशक पियाली दासगुप्ता सतीश ने उन्हें शानदार तरीके से निर्देशित किया है.

शुरुआत से आखिर तक गुड़िया के रूप में दिखी अरुंधति भट्टाचार्य का किरदार भी चुनौतीपूर्ण था पर उसे जिस सहजता के साथ निभाया गया, वह काबिलेतारीफ रहा.

LGBTQ से लेकर लड़का-लड़की के भेद को उठाता नाटक

'Cut all the trees and make road and hotels' संवाद हम नाटक की शुरुआत में ही सुन लेते हैं, हिमालय में हो रहे अनियंत्रित निर्माण कार्य पर यह महत्वपूर्ण है.

नाटक में हम हमारे समाज पर तंज भी सुनते हैं, जब एक लड़की होमस्टे में साथ बैठे बाकी लोगों से कहती है कि हमारे समाज में किसी अनजान लड़के से शादी करवा दी जाती है पर किसी लड़के दोस्त के साथ कहीं जाने पर रोक है. 'शॉर्ट्स पहनो घर तक पहनो कल तुम बोलोगी बिकनी पहन के मॉल जाना' संवाद के जरिए घर से ही लड़कियों पर रोकटोक शुरू होने का मसला उठाया गया है.

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एक कलाकार अपनी बीती जिंदगी को याद करते दिखाता है कि वो Gay है, समाज की वजह से उसको अपना रिश्ता तोड़ कर शादी करनी पड़ती है लेकिन उसकी पत्नी उसे समझती है और उसे अपने दोस्त के साथ जाने के लिए कहती है. इस तरह हम देखते हैं कि निर्देशक इस नाटक के जरिए हमारे समाज में बदलाव की उम्मीद भी रखती हैं.

सबसे महत्वपूर्ण विषय ये है और संवाद जो असर कर गए

विवाह संस्था की बुनियाद पर भी नाटक में विचार किया गया है. एक जोड़े के बीच विचारों की अभिव्यक्ति को वैसा दिखाया गया है, जैसी यह होनी चाहिए. दोनों राजनीति, फिल्मों, विवाह, सेक्स को लेकर खुल कर बात होती है और हर रिश्ते में यह चर्चा जरूरी लगती है. 

नाटक के संवाद अंग्रेज़ी और हिंदी में हैं, दोनों ही भाषाओं में यह जानदार हैं. लड़के का अपने पिता से संवाद 'why does'nt all kind of job get the equal respect' पिता का उस पर ये कहना 'u can't question this structure, our society is built in this structure', किसी की नौकरियों के चुनाव पर हमारे समाज की दखलंदाजी को दिखाता है.

'उनका माइंडसेट चेंज करने की जरूरत है हमारे कपड़े नही' कपड़ों को लेकर हमारे समाज की सोच को खोलकर सामने रख देता है.

(हिमांशु जोशी उत्तराखंड से हैं और प्रतिष्ठित उमेश डोभाल स्मृति पत्रकारिता पुरस्कार प्राप्त हैं. वह कई समाचार पत्र, पत्रिकाओं और वेब पोर्टलों के लिए लिखते रहे हैं.)

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.

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