नए संसद भवन को लेकर सार्वजनिक रूप से हुई बहस अब तक बेहद ध्रुवीकृत और लगभग एकतरफा रही है. इस नए ढांचे की वास्तुकला और कलात्मक प्रासंगिकता, इसकी लागत, नई दिल्ली के शहरी परिदृश्य में इसकी स्थापना, औपनिवेशिक काल में तामीर हुई इमारतों का मुस्तकबिल और यहां तक कि नए भवन के उद्घाटन से जुड़ी कानूनी पेचीदगियों पर भी बेहद सलीके से चर्चा की गई है. गैर-BJP दल, उदारवादी बुद्धिजीवी, कलाकारों और टाउन प्लानरों का एक वर्ग इस पहल के आलोचक रहे हैं, जबकि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली BJP सरकार ने परियोजना के आर्थिक स्थायित्व को रेखांकित करते हुए इसका बचाव किया है.
हालांकि नए संसद भवन के भारतीय राजनीति पर दीर्घकालिक प्रभाव, विशेषकर जनप्रतिनिधित्व के विचार के संबंध में, पर गंभीरता से ध्यान नहीं दिया गया है. ऐसा लगता है, वर्ष 2024 के आम चुनाव का संभावित नतीजा ही नई इमारत को एक उपलब्धि के रूप में स्वीकार करने या बेहद खर्चीली गतिविधि के तौर पर इसे पूरी तरह खारिज कर देने के लिए संदर्भ का एकमात्र बिंदु बन गया.
नया संसद भवन महज़ एक इमारत नहीं है; यह एक ऐसा स्थान बनने जा रहा है, जहां भारतीय लोकतांत्रिक परंपरा के भविष्य की धाराओं को पोषित किया जाएगा, उन्हें आकार दिया जाएगा. इन निहितार्थों को समझने के लिए हमें सभी मुद्दों को दो अहम गुच्छों में बांटकर उन पर ध्यान देना होगा - (अ) हमारे संवैधानिक लोकतंत्र की प्रकृति और इसमें संसद का महत्व. (ब) संसदीय प्रतिनिधित्व की उत्तर-औपनिवेशिक राजनीति की वास्तविकताएं.
संवैधानिक लोकतंत्र और सांसदों की संख्या
हमारे संविधान की दो विशेषताएं यहां प्रासंगिक होंगी.
सबसे पहले समझें, भारतीय संविधान की सबसे ज़रूरी खासियतों में से एक है लोगों के प्रतिनिधित्व का विचार. भारत लोकतांत्रिक गणराज्य है, क्योंकि यहां जनता की पहचान ही वास्तविक संप्रभु के रूप में की जाती है. बहरहाल, लोगों की यह धारणा कतई बयानबाज़ी तो नहीं है, क्योंकि जनप्रतिनिधित्व के विचार को संस्थागत रूप से व्यवहार्य बनाने के लिए संविधान ने हमें बेहद दिलचस्प फॉर्मूला दिया है.
संविधान के अनुच्छेद 81 के अनुसार, लोकसभा में राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों के क्षेत्रीय निर्वाचन क्षेत्रों से प्रत्यक्ष चुनाव के ज़रिये चुने गए सांसदों की निश्चित संख्या होगी. बहरहाल, सांसदों की कुल संख्या निश्चित नहीं है. प्रत्येक राज्य या केंद्रशासित प्रदेश को सीटों का आवंटन उसकी जनसंख्या के अनुपात में निर्धारित किया जाना होता है, सो, इसका सीधा-सा अर्थ हुआ कि लोकसभा में सांसदों की सटीक संख्या निर्धारित करने के लिए देश के बदलते जनसांख्यिकीय प्रोफाइल को अंतिम मानदंड के रूप में लिया जाना होगा. ठीक इसी अर्थ में देखें, तो सांसदों की निरंतर बढ़ती संख्या के लिए निर्मित विस्तारित स्थान का तर्क जनप्रतिनिधित्व के दृष्टिकोण से जायज़ है.
दूसरे स्थान पर, हमारा संविधान गतिशील और समावेशी राजनीति की स्थापना के लिए सिद्धांत-आधारित, लेकिन लचीली रूपरेखा प्रस्तावित करता है. यह ढांचा इसी बात पर आधारित है कि प्रशासनिक और राजनीतिक संस्थानों को इस तरह डिज़ाइन किया जाना चाहिए, ताकि वे हमेशा बदलते रहने वाली संदर्भ-विशिष्ट राजनीतिक मांगों का उत्तर बन सकें.
इसी कारण से सबसे अधिक प्रतिनिधिपरक और कानूनी रूप से उत्तरदायी विधायी निकाय होने के नाते संसद को संविधान की लोकतांत्रिक भावना का पालन करते हुए स्थापित संस्थानों के पुनर्गठन, विस्तार, संशोधन या यहां तक कि उन्हें बदलने का भी अधिकार होता है. 'संविधान की मूल संरचना' का सिद्धांत संसद की संशोधित शक्तियों के दायरे को निर्धारित करने के लिए मार्गदर्शक बल रहा है. तकनीकी अर्थ में देखें, तो नए संसद भवन की पहल इसी संवैधानिक विशेषता से मेल खाती है. आखिर, 1950 के दशक में इसी सिद्धांत पर चलते हुए इंपीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल बिल्डिंग को भी संसद भवन में तब्दील कर दिया गया था. इसलिए, नई इमारत को उसी के विस्तार के रूप में देखा जा सकता है.
संख्याओं की राजनीतिक गाथा
इन संवैधानिक सिद्धांतों को बाद में जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1950 द्वारा विस्तार दिया गया. भारत के नवगठित चुनाव आयोग (ECI) ने पाया कि 1941 की जनगणना चुनावी इकाइयों के परिसीमन के उद्देश्य से काफी पुरानी थीं. इस समस्या से निपटने के लिए जनगणना आयुक्त को जनसंख्या अनुमान तैयार करने को कहा गया, और उसके बाद उन अनुमानों के आधार पर 489 लोकसभा सीटें चिह्नित की गईं.
सांसदों की संख्या आने वाले वर्षों में बदलती रही. 7वें संशोधन के लागू होने के बाद 1956 में राज्यों का पुनर्गठन महत्वपूर्ण क्षण था, जिसने संसद के विन्यास को महत्वपूर्ण तरीके से प्रभावित किया. दोनों ही सदनों - लोकसभा और राज्यसभा - में सांसदों की संख्या बढ़ी. उदाहरण के लिए, दूसरी लोकसभा में 500 सांसदों का प्रावधान था, जबकि छठी लोकसभा में 544 सीटें थीं.
अंततः 1976 में आपातकाल के दौरान इस लचीलेपन को खत्म कर दिया गया. तत्कालीन इंदिरा गांधी सरकार ने लोकसभा सीटों की संख्या तय करने के लिए 42वां संशोधन अधिनियम बनाया, जिसने संविधान के अनुच्छेद 81 में संशोधन किया और स्थापित किया कि वर्ष 2000 के बाद की गई पहली जनगणना को लोकसभा में सीटों के आवंटन के आधार के रूप में मान्यता दी जानी चाहिए [संविधान (42वां संशोधन) अधिनियम, 1976 | भारत का राष्ट्रीय पोर्टल]. लोकसभा की वर्तमान ताकत, 543 सांसद, इसी विचार पर आधारित है.
दिलचस्प बात यह है कि इसके बाद की सरकारों ने लोकसभा सीटों की फ़्रीज़िंग पर फिर विचार करने के प्रति झुकाव नहीं दिखाया, खासकर जनप्रतिनिधित्व के दृष्टिकोण से. [संविधान (84वां संशोधन) अधिनियम, 2001 | भारत का राष्ट्रीय पोर्टल] ने अनुच्छेद 81 में फिर संशोधन करके समयसीमा बढ़ा दी. परिणामस्वरूप कट-ऑफ की तारीख अंततः 2026 हो जाती है.
क्या नया संसद भवन लोगों की लोकतांत्रिक आकांक्षाओं के अनुरूप है...?
हां और नहीं...
तकनीकी पहलू से देखें, तो नया संसद भवन निश्चित रूप से अधिक सांसदों को बिठा सकता है. आधिकारिक वेबसाइट के अनुसार नए लोकसभा हॉल में 888 सीटों तक की क्षमता है, जबकि पहले से बड़े राज्यसभा हॉल में भी 384 सीटों तक की क्षमता है. हमें जानकारी दी गई है कि लोकसभा हॉल में संयुक्त सत्रों के लिए 1,272 सीटें भी हो सकती हैं. इसका सीधा-सा अर्थ है कि नया भवन इस धारणा के साथ बनाया गया है कि भविष्य में सांसदों की संख्या निश्चित रूप से बढ़ेगी.
बहरहाल, सांसदों की संख्या बढ़ने की संभावना को जनप्रतिनिधित्व के चश्मे से बिल्कुल नहीं देखा जा रहा है. आधिकारिक वेबसाइट हमें इस परियोजना के लिए कई तकनीकी और आर्थिक औचित्य बताती है, विशेषकर साइट के FAQ (अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न) हिस्से में. फिर भी यहां संवैधानिक जनादेश या लोगों की प्रेरणा को लेकर कुछ भी नहीं कहा गया है.
यदि यह पहल जनप्रतिनिधित्व के मुद्दे पर राजनीतिक वर्ग के यथास्थितिवादी रवैये को चुनौती देने में विफल रहती है, तो नया संसद भवन केवल राजनीतिक प्रतीकवाद के कार्य के रूप में याद किया जाएगा.
हिलाल अहमद सेंटर फ़ॉर द स्टडी ऑफ़ डेवलपिंग सोसायटीज़ में एसोसिएट प्रोफेसर हैं...
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