बरसों पहले केसर की एक छोटी सी पोटली हमारे छोटे से घर की रसोई में कई दिन और महीने अपनी खुशबू बिखेरती रही. लाल-कत्थई रंग की वह सुंदर सी पोटली हमारे लिए वरिष्ठ लेखिका पद्मा सचदेव लेकर आई थीं. यह क़रीब 20-25 साल पुरानी बात है.
उनके पास एक पोटली और होती थी- संस्मरणों की पोटली। बल्कि यह पोटली नहीं पूरी दुनिया थी। उस दौर के भारत के सार्वजनिक जीवन के किस क्षेत्र में उनका परिचय नहीं था? वे नेताओं को जानती थीं, कलाकारों को जानती थीं, खिलाड़ियों को जानती थीं, संगीतकारों को जानती थीं- और अपने सहज स्वभाव से सबसे एक आत्मीय रिश्ता जोड़ लेती थीं. आज के सेल्फ़ी-समय में भी हम लोगों के पास इस दौर की बड़ी हस्तियों के साथ उतनी तस्वीरें नहीं होंगी जितनी पद्मा सचदेव के पास तब हुआ करती थीं. उनके पास किस्से भी तमाम हुआ करते थे. इंदिरा गांधी, लता मंगेशकर, अमिताभ बच्चन, शेख अब्दुल्ला- और ऐसी तमाम बड़ी हस्तियों के साथ उनके निजी संस्मरण थे. उनकी एक किताब इंदिरा गांधी पर भी थी जिसके कवर पर इंदिरा गांधी के साथ उनके युवा दिनों की तस्वीर थी. किताब का नाम था- 'इंदिरा गांधी: मेरी मां.' 'जनसत्ता' में हम उनसे लिखवाया करते थे- हमेशा इस उम्मीद में कि वे कुछ ऐसा लिखेंगी जिसका अनुभव दूसरों के पास नहीं होगा- और वे कभी भी निराश नहीं करती थीं.
शोहरत उन्होंने डोगरी और हिंदी की लेखिका के रूप में कमाई. उन्हें डोगरी के लिए साहित्य अकादेमी सहित कई पुरस्कार मिले. माना जाता है कि डोगरी में आधुनिक साहित्य रचने वाली वे पहली लेखिका रहीं. बाद के वर्षों में उन्हें सोवियत लैंड, सरस्वती सम्मान जैसे कई और भी पुरस्कार मिले. लेकिन यह सच है कि उनके लिखे का मैं बहुत मुरीद नहीं था. बेशक, कई बार उसमें मिलने वाली कश्मीरियत की खुशबू अपना एक असर छोड़ती थी और एक तरह की ऊष्मा उनकी किताबों का सबसे पठनीय तत्व हुआ करती थी. लेकिन मुझे लगता है कि जिस तरह का साहित्य मुझे पसंद है, जितनीगहराई की अपेक्षा मैं अपने लेखकों से करता हूं, उसमें उतरने का धीरज और स्वभाव उनमें नहीं था. इसके बावजूद उनका विपुल साहित्य पाठकों को बहुत बड़े पैमाने पर आकर्षित करता रहा, बांधता रहा. शायद इसकी वजह उस तरल और सहज संवेदनशीलता में थी जो लगातार हमारे समय में और हमारी भाषा में कम हो रही है. वे दरअसल किसी एक बिंदु पर उतरने की जगह नदी की तरह दूर तक जाने में भरोसा करती थीं. बाद के वर्षों में जलावतनी का जो एक साझा दुख उनकी रचनाओं में चला आया, वह भी पाठकों को जोड़ता रहा. 'बूंद-बावड़ी', 'जम्मू जो एक शहरथा', 'अब न बनेगी देहरी' जैसी किताबों में इस कसक को पहचाना जा सकता है.
लेकिन एक और बात थी जिनकी वजह से मैं उनका मुरीद था. वे मुझसे बहुत बड़ी थीं. उनसे मेरा परिचय तब हुआ जब वे अपने जीवन के उत्तर काल में दाखिल हो चुकी थीं. मैं सिर्फ कल्पना करता था कि जब वे युवा रही होंगी और सत्तर और अस्सी के दशकों में मुंबई में 'धर्मयुग' के लिए घूमती हुई तमाम तरह की रिपोर्ट लिखती रही होंगी या इंटरव्यू लेती रही होंगी तो कैसी लगती होंगी. वह बहुत आकर्षक शख्सियत रही होंगी. अगर उस दौर में चौबीस घंटे के टीवी चैनल होते तो शायद वह स्टार ऐंकर और रिपोर्टर होतीं- आज के ऐंकरों और रिपोर्टरों से इस मायने में बेहतर कि उनके पास साहित्य, कला, संस्कृति और समाज की कहीं बेहतर और गहरी समझ थी.
दूसरी बात यह थी कि वे अपने पेशेवर संबंधों को निजी रिश्तों में बदलने का हुनर जानती थीं. यह काम भी बहुत लोग करते हैं लेकिन ज़्यादातर के दिमाग में तब ऐसे रिश्तों के नफ़ा-नुक़सान का हिसाब ज़्यादा हुआ करता है. लेकिन पद्मा जी से देर तक मुलाकात के बाद यह समझ में आता था कि वे किसी हिसाब से रिश्ता नहीं बनाती हैं. यह उनके स्वभाव का हिस्सा है. यही वजह है कि उनके रिश्ते पेशेवर दुनिया के बाद भी बने रहे और जिन लोगों ने कभी उनका संपर्क रहा, वे हमेशा उनको याद करते रहे.
बेशक, कई बार वैचारिक और तात्कालिक मुद्दों पर उनकी तटस्थता कुछ निराश करती थी लेकिन यह कम नहीं था कि इस जलते हुए समय में वे बेशर्मी से सत्ता के साथ खड़ी नहीं हो गईं और कुछ दूसरे कश्मीरी मूल के लेखकों की तरह सांप्रदायिक कट्टरता की खोल में दाखिल नहीं हो गईं.
इधर के वर्षों में उनसे मिलना नहीं हो पाया था. उनकी तबीयत बीच-बीच में ख़राब हो जाया करती थी. लेकिन जब भी उनका फोन आता, हमेशा उत्फुल्लता से भरा आता. जैसे शरीर की पीड़ा को वे अपने मन का स्पर्श करने की इजाज़त न दे रही हों.
किसी एक आयोजन की एक घटना मुझे याद है. मैं प्रेक्षागृह से बाहर था. अचानक वे प्रेक्षागृह से लगभग दौड़ती सी निकलीं- वे बुरी तरह हांफ रही थीं. मैं घबरा कर उनके पास पहुंचा- क्या हुआ? उन्होंने लड़खड़ाती आवाज़ में कहा- जल्दी से चीनी दो मुझे. अचानक मुझे वहां चाय की मेज़ पर शुगर के क्यूब पड़े मिले. मैंने चार-पांच क्यूब उठाए और उनको पकड़ाया. उन्होंने एक साथ गटक लिया. करीब 5 मिनट वह कुर्सी पर बैठी रहीं. फिर हंसने लगीं- 'आज जान बच गई, चीनी कम हो गई थी.' वे सामान्य हो चुकी थीं, लेकिन मैं हैरान था. मैंने कहा, आप इस हाल में निकलती क्यों हैं? अब तक वे इस घटना से मुक्त हो चुकी थीं- ठहाका लगाकर कहा- 'निकलना तो पड़ेगा न.'
ये पद्मा सचदेव थीं- जीवट और उल्लास से भरी हुई. सार्वजनिकता में साझा करती हुई. उनके हिस्से के दुख थे जो उनकी रचनाओं में चुपके से बोलते थे- लेकिन कभी-कभी इतनी मद्धिम आवाज़ में कि उनको समझना पड़ता था. शायद कई बार मैं समझ नहीं पाया.
अब वे हमेशा-हमेशा के लिए निकल चुकी हैं. उनकी दी हुई कुछ किताबें शायद मेरे पास हों. जो केसर उन्होंने दिया था वह कब का ख़त्म हो चुका, लेकिन उसकी खुशबू हमारे जीवन में उनके स्मृति के साथ बनी रहेगी.
प्रियदर्शन NDTV इंडिया में एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर हैं...
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