इस साल अपने कविता संग्रह 'छीलते हुए अपने को' के लिए साहित्य अकादेमी से सम्मानित नंदकिशोर आचार्य बीते तीन वर्षों में अकादेमी सम्मान प्राप्त हिंदी के सबसे युवा लेखक हैं- महज 74 साल के. वरना बीते साल यह सम्मान 75 साल की चित्रा मुद्गल को मिला और उसके पहले वाले साल 86 साल के रमेश कुंतल मेघ को.
दरअसल, पिछले पांच-सात वर्षों से हिंदी में साहित्य अकादेमी पुरस्कार जैसे छूटे हुए वरिष्ठों को फिर से याद करते हुए दिए जा रहे हैं. इससे यह उदास करने वाला खयाल आता है कि क्या हिंदी लेखकों को साहित्य अकादेमी जैसा मझोला पुरस्कार भी तभी मिला करेगा, जब वे अवकाश प्राप्ति की उम्र के भी 15, 20 या 25 साल पार कर चुके हों? पिछले 12 साल में उदय प्रकाश संभवतः अकेले लेखक हैं जिन्हें 60 साल से कम की उम्र में यह सम्मान मिला. वरना इस दौर में 90 पार के लेखक भी सम्मानित हो चुके हैं. अगर साहित्य अकादेमी सम्मान प्राप्त दूसरी भाषाओं के लेखकों को देखें तो यह वृद्धावस्था सिर्फ़ हिंदी की नियति लगेगी.
निश्चय ही यह बात वरिष्ठ लेखक नंदकिशोर आचार्य या दूसरे लेखकों के प्रति किसी हेठी या अवज्ञा के भाव से नहीं कही जा रही, इसका मक़सद बस इस तथ्य की ओर ध्यान खींचना है कि हिंदी की दुनिया अपने मूर्द्धन्यों को पहचानने और मान्यता देने में न सिर्फ़ शिथिलता, बल्कि संकीर्णता भी बरतती रहती है. नतीजा यह होता है कि लेखक जब बुज़ुर्ग हो जाते हैं, जब उनके लिए साहित्य अकादेमी जैसा सम्मान बेमानी हो जाता है, तब उनको साहित्य अकादेमी प्रदान कर दिया जाता है.
नंदकिशोर आचार्य जी का सच भी यही है. उनकी हैसियत साहित्य अकादेमी से बड़ी है. वे हिंदी की तेजस्वी और स्वाभिमानी परंपरा के लेखक रहे हैं. अपने लिए कुछ मांगना या अपनी पात्रता का भान भी कराना उन्हें अपनी गरिमा के अनुकूल कभी नहीं लगा होगा. तो हिंदी की दुनिया उन्हें सुविधापूर्वक किनारे करती चली गई- शायद इसकी एक वजह यह भी हो कि वे हिंदी की वाम परंपरा से भी बाहर खड़े हैं और दक्षिणपंथ के भी विरुद्ध हैं. वे मूलतः गांधीवादी और समाजवादी विश्वासों के लेखक रहे जिन्हें अज्ञेय जैसे विराट लेखक का बौद्धिक सान्निध्य और लेखकीय साहचर्य हासिल रहा. वे 'चौथा सप्तक' के कवियों में शामिल रहे, हालांकि यह सप्तकों में सबसे कम सराहा गया और इसी के साथ सप्तकों की परंपरा भी निःशेष हो गई.
लेकिन नंदकिशोर आचार्य कई मायनों में हिंदी के अनूठे कवि, लेखक और विचारक रहे. उनका गद्य मूलतः तर्काश्रित रहा, लेकिन आक्रामक नहीं, बहुत सहज ढंग से विचार करता हुआ- और ज़रूरत पड़ने पर रस लेता हुआ भी.'अज्ञेय की काव्य तितीर्षा' उनके गद्य, उनकी आलोचना और विचार पद्धति को समझने के लिहाज से एक प्यारी सी किताब है. इस किताब में वे मर्मज्ञ, रसाग्रही आलोचक के तौर पर उभरते हैं.
अगर नंदकिशोर आचार्य के विपुल रचनाकर्म पर नज़र डालें तो वे मूलतः कवि लगते हैं. कम से कम डेढ़ दर्जन कविता संग्रह उनके नाम हैं. विचार और संवेदना की जिस साझा रस्सी से अक्सर अज्ञेय अपनी कविता बुनते थे, वह अपने सबसे मज़बूत रूप में जिन कवियों को विरासत में मिली है, उनमें नंदकिशोर आचार्य भी हैं. अक्सर यह संवेदना बहुत धीमे से उनके यहां एक दार्शनिक आयाम ग्रहण करती नज़र आती है.
मिसाल के तौर पर :
'कविता सुनाई पानी' शृंखला की अपनी एक कविता में वे लिखते हैं-'एक कविता सुनाई / पानी ने चुपके से धरती को /
सूरज ने सुन लिया उसको / हो गया दृश्य उसका / हवा भी कहाँ कम थी / ख़ुशबू हो गई छूकर / लय हो गया आकाश / गा कर उसे / एक मैं ही नहीं दे पाया / उसे ख़ुद को / नहीं हो पाया
अपना आप .'
एक अन्य ढंग से सोचें तो उनकी कविता मरुथल की प्यास की, उसकी आत्मा की कविता है. इस कविता में मिट्टी या रेत की गंध भी है और स्मृति की सुवास भी. लेकिन उनमें कोई स्मृतिजीवी उछास नज़र नहीं आता, बल्कि एक मंथर और संवेदनशील यात्रा दिखती है जिसमें रेत पर पड़े पांवों के निशान ढूढ़ने का धीरज हो- और जो मिट चुके हैं, उनको भी पहचानने का सब्र हो. ऐसी बहुत सारी कविताएं उनके यहां हैं जिनको पढ़ना संवेदना से विचार, और फिर विचार से दर्शन की यात्रा करना है. किसी एक जगह वे कहते हैं कि ऐसा कोई सच नहीं हो सकता जो सपना भी न हो. दरअसल, यहीं लगता है कि मूलतः यह कवि विचारक है.
निश्चय ही उनकी विचारक भूमिका भी हिंदी में अगर अन्यतम नहीं तो कई मायनों में विशिष्ट है. इसी तरह उनका नाटककार रूप उनके बाकी रूपों से बिल्कुल अलग और अनुपेक्षणीय है. उनके कई नाटक बार-बार खेले और सराहे जाते रहे हैं. यहां भी यह खयाल आता है कि आचार्य जी के विशद व्यक्तित्व की वजह से उनके नाटककार रूप पर जितने स्वतंत्र ढंग से विचार होना चाहिए था, वह हो नहीं पाया. एक संस्था के रूप में साहित्य अकादेमी की कीर्ति पिछले दिनों काफी क्षरित हुई है. जिस दौर में लेखकों पर हमले हो रहे थे, उन दिनों अकादेमी से अपेक्षा थी कि वह इनका विरोध करेगी, लेकिन इस मामले में उसकी ढुलमुल भूमिका देखते हुए बहुत सारे लोगों ने अपने पुरस्कार भी वापस किए. यही नहीं, इसके पुरस्कारों पर भी दक्षिणपंथी रुझानों का असर दिखता रहा.
यह दौर वैसे भी साहित्य और अभिव्यक्ति के लिहाज से ख़ासे संकट का दौर है. लेकिन संस्थाओं के पतन की जो कहानी बाक़ी जगहों पर सत्ता-आरोपित लग रही है, वह साहित्य अकादेमी के संदर्भ में स्व-आरोपित नजर आ रही है. लेखकों के एक स्वायत्त और सशक्त संगठन के रूप में उसकी जो जीवंत भूमिका दिखनी चाहिए, वह दिखाई नहीं पड़ती. लेकिन फिर भी यह लेखकों का संगठन है और इससे उम्मीद नहीं छोड़ी जा सकती. अच्छा लगेगा अगर साहित्य अकादेमी अपने लेखकों के साथ खड़ी हो और इस मुश्किल समय में अगर साझा प्रतिरोध का न सही तो साझा विवेक का मंच बने.
(प्रियदर्शन NDTV इंडिया में सीनियर एडिटर हैं...)
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