खबर है कि अब हर ट्रेन को अनाउंसमेंट सिस्टम से लैस किया जाएगा. सिस्टम बहुत-कुछ वैसा ही होगा, जैसा कि अभी मेट्रो ट्रेनों में देखने को मिलता है. अगला स्टेशन कौन-सा है, अगला प्लेटफॉर्म किस ओर है. और भी बहुत-कुछ. लेकिन असल सवाल ये है कि क्या ट्रेनों में वो सबकुछ बताया जाएगा, जो भोले-भाले यात्रीगण जानना चाहते हैं? उचित तो यही है कि जब तक सिस्टम आए, उससे पहले ही हम अपनी जरूरतें रेलवे को बता दें.
धीरे-धीरे रे मना
अब इसमें अचानक रोमांचित हो जाने वाली कोई बात नहीं है. सबकुछ धीरे-धीरे ही होगा. पहले ये सुविधा इकोनॉमी कोच में मिलेगी, फिर बाकी जगह इसका विस्तार होगा. यह भी ठीक ही है. लाजिमी भी. कहीं भी विकास रातोंरात पैदा नहीं हो जाता. टाइम लगता है. कबीर बाबा पहले से जानते थे. लोग बात-बात में अधीर हो उठते हैं, इसलिए सबको चेता दिया था- धीरे-धीरे रे मना! तो सब्र के साथ इंतजार कीजिए. जैसे लेट-फेट ट्रेनों की करते आए हैं. फिलहाल अपनी लिस्ट पर फोकस करते हैं.
टॉयलेट खाली है कि नहीं?
ये जरूरी सवाल है. बताया जा रहा है कि हर कोच में दोनों छोर पर एलईडी स्क्रीन पर डिस्प्ले होता रहेगा कि टॉयलेट खाली है भरा. लेकिन इतना भर जानने से यात्रियों को कोई खास फायदा नहीं होगा. लोग जानना ये भी चाहेंगे कि वैकेंट का सिंबॉल देखकर अगर पांच-सात पैसेंजर एकसाथ दौड़ पड़े, तो फिनिश लाइन तक सबसे पहले कौन पहुंचा? किसकी दावेदारी पहले बनेगी? विवाद के निपटारे के लिए कोई रिकॉर्डिंग और रिप्ले सिस्टम होगा कि नहीं? और खाली या भरा का क्या मतलब? हमें ये भी जानना है कि टॉयलेट दूसरे किसी के इस्तेमाल करने लायक बचा भी है या नहीं?
ट्रेन क्यों रुकी है?
ट्रेन एक ही जगह बहुत देर से क्यों रुकी है, ये जान लेने से भी उसकी चाल पर कोई असर नहीं होता. रुकी है, तो रुकी है. वजह जान लेने भर से थोड़े ना ट्रेन चलने लगेगी! लेकिन फिर भी जानकारी के अपने फायदे हैं. कारण कई तरह के तर्कों पर कसे जाते हैं. लोग चर्चा करते हैं, आचोलना करते हैं. आलोचना या निंदा करने के सुख के आगे तो सारा रस बेकार! यह एक तरह से जले पर बरनॉल का काम करता है. टाइम काटने में सहूलियत होती है, सो अलग. इसलिए ट्रेन रुकने की वजह पता चलना जरूरी है.
और कहां-कहां रुकेगी?
गाड़ी का ठहराव कहां-कहां है, सब जानते हैं. ऐप पर सब पता चल जाता है. लेकिन जानना ये है कि ट्रेन नियत स्टेशनों के अलावा और कहां-कहां रुकने वाली है? कई बार ट्रेन की स्पीड वहां भी काफी कम हो जाती है, जहां स्टॉपेज नहीं है. कन्फ्यूजन पैदा होता है. अपना देश विशाल है. दिल्लियों के पास कई गाजियाबाद हुआ करते हैं. लोग जहां-तहां ट्रेन रुकने की आस में सामान टांगकर गेट पर खड़े हो जाते हैं.
लोको पायलट कैसा है?
ट्रेन के लोको पायलट या ड्राइवर के बारे में भी अच्छी तरह पता चलना चाहिए, जैसा कि विमान के उड़ान भरने से पहले बताया जाता है. मन-मिजाज कैसा है? कहीं ड्यूटी के ज्यादा पाबंद तो नहीं? ऐसा तो नहीं होगा कि ड्यूटी के घंटे खत्म होने पर बीच खेत में ही ट्रेन छोड़कर उतर जाएंगे? कभी-कभी ऐसा भी होता है, इसलिए जानना चाहते हैं. और हां, कास्ट के नाम पर भौंहें तानने की जरूरत नहीं है. अब तो सरकार भी खम ठोककर पूछ रही है.
जूते सेफ हैं कि नहीं?
ये बताना थोड़ा मुश्किल तो होगा, पर नामुमकिन नहीं. कोच के एंट्री पॉइंट पर सीसीटीवी कैमरे लगाए जाने की भी चर्चा है. अगर जूते और इससे जुड़ी संदेहास्पद गतिविधियों के बारे में वक्त रहते अनाउंसमेंट हो जाए, तो सफर सुहाना बन जाए. मिडिल क्लास बर्थ के पैसे सोने के लिए देता है, लेकिन जूते चैन से सोने कहां देते हैं! इन जूतों को हल्के में मत लीजिए. अगर आप कभी वॉट्सऐप यूनिवर्सिटी में दाखिल हुए हों, तो जानते ही होंगे कि जब जूते शोरूम में बिकने लगें और किताबें फुटपाथ पर, तो इंसान को किस चीज की ज्यादा जरूरत है. वैसे भी इलेक्शन का टाइम चल रहा है. जूते का इस्तेमाल किसे नहीं मालूम?
वेंडरों के धंधे का क्या?
ये एक बड़े समुदाय के जनहित से जुड़ा सवाल है. कौन-सी ट्रेन कहां खड़ी है, क्यों खड़ी है, क्रॉसिंग है कि नहीं, आगे कहां रुकेगी, कल-परसों कितनी लेट हुई थी, आज कब तक पहुंचेगी- ये सारी जानकारी जब रेलवे ही दे देगा, तो बेचारे वेंडरों के धंधे का क्या होगा? कई लोग तो ट्रेन में चाय-पकौड़े खरीदते ही इसलिए हैं कि उन्हें वेंडरों से एकदम सटीक जानकारी मिलने की आस होती है. इसलिए कुल मिलाकर कोशिश ये होनी चाहिए कि इन बेचारों के धंधे पर ज्यादा असर न पड़े!
बाकी जैसा कि पहले ही बताया जा चुका है, अभी से ज्यादा जोश में आने की जरूरत नहीं है. कबीर बाबा की सीख गुनते रहिए.
अमरेश सौरभ वरिष्ठ पत्रकार हैं... 'अमर उजाला', 'आज तक', 'क्विंट हिन्दी' और 'द लल्लनटॉप' में कार्यरत रहे हैं...
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