निधि का नोट : क्‍या आम हो गई आम आदमी पार्टी?

नई दिल्‍ली:

प्रशान्त भूषण, योगेन्द्र यादव, आनंद कुमार को सोमवार देर रात पार्टी से ही निकाल दिया गया। ये वो चेहरे हैं जिन्होंने अपनी वैचारिक गहराई से आम आदमी पार्टी को गम्भीरता दी। भ्रष्टाचार के खिलाफ खड़े आंदोलन के दिनों में इन नेताओं ने जो यकीन दिलाया उसका अरविन्द केजरीवाल को एक बड़ा नेता बनाने में अहम योगदान था। ये वो नाम थे जो टीवी चैनलों के स्टूडियो में पंहुच कर पहले कांग्रेस और फिर बीजेपी की धज्जियां उड़ाते। जन लोकपाल

की लड़ाई हो या फिर नरेन्द्र मोदी के प्रचार का मुकाबला, इनलोगों ने जम कर काम किया।

लोकसभा चुनाव आए तो नरेन्द्र मोदी देश भर पर छा गए। हरियाणा में योगेन्द्र यादव की करारी शिकस्त हुई। नरेन्द्र मोदी का असर अरविन्द केजरीवाल ने खुद महसूस किया। दिल्ली की सत्ता छोड़ने पर माफी मांगी और बनारस की लड़ाई के लिए अपनी कमजोरियों से वाबस्ता हुए। सिर्फ 4 सीटों पर सिमटी आप के राजनितिक भविष्य पर प्रश्न चिन्ह लग चुका था।

अरविन्द केजरिवाल ने इन लम्हों में कांग्रेस का फिर से साथ लेकर सरकार बानने की कोशिश की और शायद यहीं से शुरू हो गया आपसी मतभेद का सिलसिला। प्रशान्त भूषण पक्ष में नहीं थे, बाद में लीक किये विडियो ये बयां कर रहे थे, योगेन्द्र यादव की राजनीतिक क्षमता हरियाणा के नतीजों से साफ           हो ही गई थी।

शायद अरविन्द जान चुके थे कि अब वैचारिक, बौद्धिक प्रतीकों से आगे बढ़ने का समय आ गया है। जैसे अण्णा ने भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई को आंदोलन का रूप दिया या फिर अरुणा राय के साथ जो आरटीआई के क्षेत्र में सीढ़ी मिली। अब एक और सीढ़ी चढ़ने का समय आ गया था और अरविन्द ने दिल्ली चुनावों के संचालन की बागडोर अपने हाथों में ले ली। उनको मात देने की कोशिशें भी हुईं। जितनी भी हुई हो अरविन्द केजरीवाल उन सब पर भारी पड़े। दिल्ली में ऐतिहासिक जीत दर्ज की और सरकार में एक भी मंत्रालय अपने पास नहीं रखा।

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बहरहाल दिल्‍ली सरकार काम करती हुई दिखना चाह रही है। बिजली के बिल हों या फिर अब किसान का मसला, अरविन्द केजरीवाल की राजनितिक गाड़ी आगे बढ़ चली है। आगे कौन इसमें बने रहे या नहीं ये देखना दिलचस्प रहेगा।