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This Article is From Dec 28, 2016

'लोकतंत्र के हत्यारे' जैसा रहा नजीब जंग का बर्ताव...

Ashutosh
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    दिसंबर 28, 2016 18:55 pm IST
    • Published On दिसंबर 28, 2016 18:07 pm IST
    • Last Updated On दिसंबर 28, 2016 18:55 pm IST
बहुत लंबा अरसा बीत गया है, जब मेरी मुलाकात 'मुन्ना भाई' से हुई थी. आज भी नहीं भुला पाया हूं उसका मेरे गिलास से पानी पीना, और लकड़ी की उस बहुत बड़ी-सी मेज़ पर पुराने ज़माने के किसी 'नवाब' की तरह अकड़ के साथ टहलते रहना, और फिर वहीं मेज़ पर इस तरह सो जाना, जैसे वही पूरे कमरे और अपने मालिक का भी मालिक हो. 'मुन्ना भाई' दरअसल काले रंग की एक बिल्ली है और नजीब जंग इस काली बिल्ली के मालिक. जंग ने खुद मुझे बताया था कि उसका नाम 'मुन्ना भाई' है. मुझे आज तक नहीं पता कि क्या वास्तव में वही उसका नाम है, लेकिन मेरे पास उन पर अविश्वास करने की कोई वजह नहीं है.

यह मेरी उनसे पहली मुलाकात थी. मुझे याद नहीं, मैं वहां क्यों गया था. जो मुझे याद है, वह है नजीब जंग का आचरण और भावहीन गरिमा-भरा व्यवहार. मैं ढंग से बैठ भी नहीं पाया था कि उन्होंने मेरी वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव को लेकर उन्हीं दिनों प्रकाशित हुई पुस्तक के बारे में बात करनी शुरू कर दी. उन्होंने मुझे बताया कि उन्हें अमेरिका से किसी मित्र का फोन आया था, जिसने उन्हें बताया कि यह पुस्तक काफी चर्चित है और उन्हें इसे पढ़ना चाहिए. मुझे आश्चर्यमिश्रित प्रसन्नता हुई. मुझे मानना पड़ेगा कि उन्होंने तुरंत ही मुझसे तार जोड़ लिए थे.

मैं बात करता रहा. राजनैतिक मुद्दों के अलावा हमने उनकी बिल्ली के बारे में बातें कीं, मुझे सर्व की गई कॉफी के बारे में भी बातें कीं. कभी वह बेहद मेहमाननवाज़ लगते, कभी बहस के दौरान बेहद गंभीर हो जाते. उनमें कुछ था, जिसने मुझे उनकी ओर आकर्षित किया, लेकिन साथ ही मुझे चेताया भी कि इस शख्स से कुछ सावधान रहने की ज़रूरत है. कुछ न कुछ था, जो समझ से परे था. फिर भी जब मैं उस कमरे से बाहर आ रहा था, वह बेहद गर्मजोशी के साथ मुझे विदा करने के लिए पोर्टिको तक आए.

मैं वही शख्स था, जिसने आम आदमी पार्टी (आप) की 49 दिन की पहली बार बनी सरकार के कार्यकाल के दौरान उन्हें कांग्रेस का एजेंट कहा था. मैं वैसे भी हमारी सरकार के प्रति उनके व्यवहार की बहुत तीखी आलोचना करता रहा था. यही वह समय था, जब 'आप' सरकार ने रिलायंस इंडस्ट्रीज़ के चेयरमैन मुकेश अंबानी के खिलाफ एफआईआर दर्ज करवाई थी. एन्टी-करप्शन ब्यूरो उस समय दिल्ली सरकार के मातहत काम करता था. एफआईआर में मुकेश अंबानी के अलावा दो केंद्रीय मंत्रियों के भी नाम थे. बताया जाता है कि अंबानी परिवार के साथ नजीब जंग के ताल्लुकात बहुत पुराने है. दरअसल, जंग पर पेट्रोलियम मंत्रालय में वरिष्ठ आईएएस अफसर के रूप में विवादास्पद मुक्ता पन्ना केस में अंबानियों की मदद करने का आरोप लगा था, और उसकी जांच बाद में सीबीआई को सौंपी गई थी. यह भी अटकलें लगाई जाती हैं कि नजीब जंग को नौकरी भी इसी वजह से छोड़नी पड़ी थी, और इसके बाद रिलायंस ने अपने ओवरसीज़ बिज़नेस ऑपरेशनों में नौकरी देकर उन्हें उपकृत किया था. लेकिन ये सब बातें हमारी बाद में हुई चर्चाओं में कभी नहीं उठीं.

जब 'आप' ने 67 सीटों के साथ ऐतिहासिक जनादेश पाकर जीत हासिल की, केंद्र में सरकार बदल चुकी थी. नरेंद्र मोदी ने डॉ मनमोहन सिंह की जगह ले ली थी. राजनीति का रंग बदल चुका था. मुझे लग रहा था कि नजीब जंग के स्थान पर किसी 'संघी' को बिठा दिया जाएगा, लेकिन मुझे हैरानी हुई, जब वह बने रहे. अब बताया जा रहा है कि उन्होंने इस्तीफा देने की पेशकश की थी, लेकिन प्रधानमंत्री ने तब उनसे बने रहने का आग्रह किया था. नजीब जंग के बने रहने ने मेरे कौतूहल को बढ़ा दिया था. वह धर्मनिरपेक्ष होने का दावा करते हैं, पर वह नरेंद्र मोदी तथा उनकी विचारधार के प्रति बेहद वफादार बने रहे. उनकी इस हरकत ने मुझे बेहद हैरान किया था.

जैसे-जैसे समय बीता, मुझे आश्चर्यचकित करने वाली और चीज़ें भी सामने आती रहीं. नजीब जंग बड़ी नफासत से लोकतंत्र की हत्या करने वाले किसी भी शख्स जितना शातिर निकले. मैं पंजाब में था, जब मैं ने उन्हें कहते सुना कि "मैं ही 'सरकार' हूं..." "नल एंड वॉयड" (Null and void) उनका पसंदीदा जुमला बन गया. उन्हें लोकतांत्रिक सरकार द्वारा उठाया गया हर कदम संवैधानिक रूप से गलत लगता था और वह आदतन घोषणा करते थे कि सरकार ने 'कानून का पालन नहीं किया...' उन्होंने दिल्ली पुलिस के कमिश्नर बीएस बस्सी के साथ मिलकर एक ख़तरनाक टीम बना ली. हमें यह समझने में देर नहीं लगी कि वे दोनों अपने उस आका को खुश करने की कोशिश में जुटे हैं, जो देश के सबसे मशहूर पते - 7, रेसकोर्स रोड - पर रहता है. धीरे-धीरे, एक साज़िश का खुलासा होता गया. दिल्ली की सरकार निशाने पर थी. सुपारी दी गई थी कि पहले इस सरकार की छवि बिगाड़ो फिर उसे बर्खास्त कर डालो. मैंने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि अर्द्धसैनिक बलों का इस्तेमाल इतनी ढिठाई से एन्टी-करप्शन ब्यूरो की इमारत कब्जाने के लिए किया जा सकता है. यह एक तरह का तख्तापलट था, जिसकी योजना प्रधानमंत्री कार्यालय में बनी थी.

मुझे जल्द ही एक और शख्स रोमेश भंडारी की याद आई, जो कामयाब राजनयिक थे. वह विदेश सचिव के रूप में सेवानिवृत्त हुए, लेकिन बाद में उन्हें उत्तर प्रदेश का राज्यपाल बना दिया गया था, और उसके बाद भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में वह बेहद काले अक्षरों में दर्ज हुए, जब वह कुछ बागी विधायकों के बूते कल्याण सिंह की चुनी हुई सरकार को बर्खास्त करने में पलभर भी नहीं हिचकिचाए थे, और आखिरकार सुप्रीम कोर्ट को हस्तक्षेप करना पड़ा था. मुझे नजीब जंग बहुत कुछ रोमेश भंडारी जैसे लगते हैं.

वह एक ऐसे व्यक्ति हैं, जो अपने करियर को बचाने और प्रमोट करने के लिए कटिबद्ध हैं. वह यूपीए सरकार द्वारा नियुक्त किए गए थे. जब वह जामिया मिल्लिया इस्लामिया विश्वविद्यालय के कुलपति बने थे, तब वह कथित रूप से 10, जनपथ के करीबी माने जाते थे. नरेंद्र मोदी के सत्ता संभालते ही, उन्हें एहसास हो गया कि यदि उन्होंने उनके आदेशों का पालन नहीं किया, तो वह अपने पद पर बरकरार नहीं रह पाएंगे. यह बात समझ में आते ही उनके तेवर बदले और मुझे यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि उन्होंने अपने हितों का ख़ूब ध्यान रखा. यूपीए द्वारा नियुक्त किए गए राज्यपालों या उपराज्यपालों में वह एकमात्र थे, जो केंद्र में सत्ता परिवर्तन के बाद भी बने रह सके.

मैं नहीं जानता कि उन्होंने अपने गॉडफादर को निराश किया या नहीं, उन्हें पद से हटाया गया है या वह बस थक गए हैं. मेरे जैसे बाहरी व्यक्ति के लिए राजनीति की गूढ़ और जटिल तरकीबें समझना मुश्किल है, लेकिन मुझे यह समझ आता है - जिस तरह की राजनीति और करियर प्रमोशन जंग ने किया, वह वही है, जिससे लोग नफरत करते हैं. गांधी और उनके साथी स्वतंत्रता सेनानियों ने आज़ादी की जंग इसलिए नहीं लड़ी थी कि राजनीति इस स्तर तक पहुंच जाए, और जनसेवा मृगतृष्णा बनकर रह जाए. नुकसान हो चुका है. अब संवैधानिक संस्थाओें में विश्वास की बहाली होने में सालों लगने वाले हैं.

लेकिन उम्मीद अभी बाकी है. हर बार, जब भी राजनेता सोचते हैं कि वह जनता को हल्के में ले सकते हैं, वे गलत साबित हो जाते हैं. लोग कहीं ज़्यादा होशियार हैं. जंग साहब, मेरी शुभकामनाएं हमेशा आपके साथ रहेंगी, लेकिन पूरी विनम्रता के साथ एक सुझाव देता हूं कि तानाशाह हमेशा आम आदमी के सब्र और उसकी छठी इंद्री को कमतर आंकते हैं, सो, उन्हें हल्के में मत लीजिए. यह बात आपको रह-रहकर तकलीफ़ देगी, परेशान करेगी.

आशुतोष जनवरी, 2014 में आम आदमी पार्टी के सदस्य बने थे...

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