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This Article is From Nov 26, 2017

जन्‍मदिन विशेष: शायरी कलंदरी का नाम है, मुनव्‍वर राणा से एक मुलाकात

Om Nishchal
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    November 26, 2017 13:46 IST
    • Published On November 26, 2017 13:46 IST
    • Last Updated On November 26, 2017 13:46 IST
शायरी की दुनिया में मुनव्‍वर राणा की अपनी जगह है. देश और दुनियाभर में उनके प्रशंसक फैले हैं. लिहाजा किसी काम से लखनऊ जाना हुआ तो लगा कि राणा साब से भी मिल लिया जाए. उन्‍हें फोन किया तो बताया कि आज ही कुवैत से लौटे हैं. आ जाइये शाम को. मिलते हैं घर में ही. लालकुंआ लखनऊ में ढींगड़ा अपार्टमेंट में उनकी रिहाइश है, ऑफिस भी जिसे उनके पुत्र तबरेज राणा देखते हैं. शाम हम एक दोस्‍त के साथ उनके मुकाम पर पहुंचे तो वे जैसे अपने ऑफिस की कुर्सी पर ऊंघ रहे थे. शायद यह लंबे सफर की थकान थी. मुनव्‍वर राणा से एक अरसे बाद मिलना हुआ तो उनकी बीमारी व तबीयत के बारे में पूछा जिसका कुछ अंदाजा भी था. वे गए तीन चार सालों में अस्‍पताल की आवाजाही से थक चुके हैं और तबीयत ठीक होने का नाम नहीं लेती. राणा साब कहने लगे ओम जी बीमारी के दिनों लिखी गज़ल के कुछ अशआर सुनिये... 

ऐसे उडूं कि जाल न आए खुदा करे
रस्‍ते में अस्‍पताल न आए खुदा करे

अब उससे दोस्‍ती है तो फिर दोस्‍ती रहे
शीशे पे कोई बाल न आए खुदा करे

ये मादरे वतन है मेरा मादरे वतन
इस पर कभी जबाल न आए खुदा करे.


बताने लगे, गए कुछ सालों में सात बार घुटना खुल चुका है, पर कामयाबी नहीं मिली. देखता हूं कमरे में तो वहां बगल में ही उनकी छड़ी रखी है, पास में वाकर और व्‍हील चेयर. सारा माजरा समझ आ जाता है कि देश में अभी घुटनों के डॉक्‍टर इतनी कामयाबी से इलाज नहीं कर सकते कि एक आदमी को चलने फिरने लायक तक बना सकें और मुशायरों में राणा साब को बुलाने के लिए रोज ही कहीं न कहीं से बुलावे आते रहते हैं. हालत यह है कि अकेले जा नहीं सकते. लिहाजा उनके एक सेक्रेट्री इस काम में उनकी मदद करते हैं. अभी हाल ही में देहरादून में वैली ऑफ वर्ड्स इंटरनेशनल लिटरेचर एंड आर्ट्स फेस्‍टिवल में अपनी आत्‍मकथा 'मीर आ के लौट गया' के लिए पुरस्‍कार लेने पहुंचे तो देखा मंच पर वाकर के सहारे वे आए और पुरस्‍कार कुबूल कर पोडियम पर खड़े होकर आधा घंटे शायरी सुनाते रहे. 


इस बीच चाय आयी और हम चाय की चुस्‍कियों के बीच बात करते रहे. कहने लगे, देर से आपका इंतजार कर रहे थे कि आप लोग आएं तो साथ चाय पी जाए. बातचीत चाय से भी ज्‍यादा मीठी कि एक बार राणा साब के सम्‍मुख हों तो आप उनकी आत्‍मीयता की बारिश में भीगे बिना नहीं रह सकते. कहने लगे, चाय हो या शराब, दोस्‍त के इंतजार में नशा और बढ़ जाता है. नए लोगों पर बात चलती हैं तो लखनऊ के एक नए शायर अभिषेक शुक्‍ल का नाम लेते हैं. कहते हैं नए लोग बहुत ताज़ादम हैं शायरी में. अच्‍छा लिख रहे हैं. पर कुल मिलाकर हालात बहुत अच्‍छे नहीं. सबने अपनी अपनी चौकियां बना ली हैं. बड़ो के प्रति सम्‍मान नहीं है. वे अपने आप में खुदा हो गए हैं. कहने लगे, ओम जी शायरी कलंदरी का नाम है. यह समाज के सुख दुख से ताल्‍लुक रखती है. आज छोटी उम्र में ही लोग चाहते हैं किताब छप जाए वे जल्‍दी मशहूर हो जाएं. मुझे जब साहित्‍य अकादेमी पुरस्‍कार मिला तो लोगों ने पूछा. इस पुरस्‍कार को लेकर आप क्‍या कहना चाहेंगे तो मैंने कहा कि हमने अपने बुजुर्गों की इतनी जूतियां सीधी की हैं कि नई नस्‍ल के लोगों को तो याद भी नहीं रहेगा कि हमारे बुजुर्ग जूतियां पहनते थे. तो शायरी अफसरी नहीं है, यह जूतियां उठवाने का नाम नहीं है, जूतियां उठाने का नाम है. शायरी वन डे क्रिकेट मैच नहीं है कि खेल का फैसला शाम तक हो जाना है. कौन बड़ा है, कौन छोटा यह तय होने में बरसों की मेहनत काम करती है. ऐसा होता तो नजीर या कबीर को अंगूठी में नगीने की तरह जगमगा नहीं रहे होते. इन्‍हें घर इलाका जोड़ना पड़ा. गज़ल लिखने वालों की सदियों की परंपरा है. यह एक दो दिन में नहीं बनी. बड़े शायरों को देखिए. विनम्रता उनकी बादशाहत के आगे नहीं जाने पाती. और आज मुसलमान लड़कों को देखिए. उस्‍ताद के चेहरे पर धुंआं फेंक देंगे. राणा नए शायरों में संस्‍कारों की कमी पर बात कर रहे थे तथा यह चिंता उनकी पेशानी पर झलक रही थी. 

वे बोले, नए शायरों में बहुत हड़बड़ी है, वे तहजीब भूलते जा रहे हैं. समाज में कितना अंधेरा है, समाज को उनसे उम्‍मीद है. जबकि वे दो चार गजले हीं लिख कर अपने को मीर और गालिब या कबीर समझने लगे हैं. 

राणा के उस्‍ताद शायर वाली आसी रहे हैं. उन्‍हीं के ठीहे पर उनके शागिर्द सारे इकट्ठा होते थे. पूछता हूं, उस दौर को कैसे याद करते हैं. राणा कहते हैं, हम शायरी को परिवार की तरह समझते हैं. जब खुशी का मौका आया हम इकट्ठा होते थे. यहां गवर्नर से लेकर बस कंडक्‍टर तक सभी साथ खड़े होते हैं. साहित्‍य में छोटे से छोटा भी अहमियत रखता है और बड़े से बड़ा भी. हमने नाम लिखने के लिए नहीं पढ़ा है. किसी का लेखन उसका चेहरा होता है. लिखा भले ही जयादा न हो पर हमारे अपने आब्‍जर्वेशन्‍स हैं. हमारे पास हीरे की दुकान भले न हो, पर हम पारखी सबसे बड़े हैं. यह हमारा हुनर है. यह इन बुजुर्गों के पैर दबाने से आया है. नई नस्‍ल के लोगों के पास यह हुनर कहां है. 

वे टोंक के एक मुशायरे का जिक्र करने लगे जहां लोग शायरों को बहुत नवाज़ते हैं, इज्‍जत बख्‍शते हैं. पर यही नवाजना शायरों को खराब करता है. उनमें मैं का गुरुर आ जाता है. हम माइक पर खड़े होते हैं तो समझते हैं कि हम बड़े खुश नसीब हैं कि हमे सुनने के लिए कहां कहां से लोग तशरीफ लाए हैं. कितने लोग हैं ऐसी खुशनसीबी देख नही पाते. आज दुनिया समझती हैं कि हमारा कद बड़ा है. पर हमें मालूम है कि हमारा कद इसलिए बड़ा है कि हम वाली आसी के कंधे पर खड़े हैं. वह हमें अपने कंधे पर बिठाए हुए हैं. उस्‍ताद का मानना यह था कि शायरी में किसी बड़े घराने या कम्‍युनिटी की जरूरत नहीं है. वे गुरुभाई खुशवीर सिंह शाद को याद करते हैं. भारत भूषण पंत को याद करते हैं. आज वे कहते हैं लोगों को अपने को शायर समझने की बीमारी लग गयी है. पर हां पूछा जाए कि किससे डरते हो तो मैं यही कहूंगा कि मुझे अपने उस्‍ताद की शायरी से डर लगता है. पंत से डरता हूं और मन ही मन सोचता हूं कि काश उसे ओवरटेक कर सकता. अन्‍य दोस्‍त शायरों में वे इंदु श्रीवास्‍तव प्रभात शंकर का नाम लेते हैं. रवि सक्‍सेना का नाम लेते हैं. वे कहते हैं, अपने शेर तो ऐसे सुनाता हूं जैसे कोई बुजदिल अपनी बहादुरी के किस्‍से सुनाए. 

रवि सक्‍सेना के दो शेर सुनाते हैं वे...
अहले फन सब तेरी शोहरत का सबब जानते हैं
कैसे लगती है किताबों में नकब, जानते हैं. 


आलोचकों के दबदबे पर बात आई तो राणा ने रवि सक्‍सेना का यह शेर पेश किया...
मेरे सब अशआर अब नक्‍काद के हाथो में हैं
फूल से बच्‍चे मेरे जल्‍लाद के हाथो में हैं.


आलोचकों की बात आते ही राणा बड़े इतमिनान से कहते हैं कि खास तौर पर उर्दू अदब में कि यहां शुरू से ही आलोचक की साइकिल में गद्दी नहीं होती. साइकिल चल रही है क्‍योंकि लेखक वहां अपना हाथ लगाए हुए रहते हैं. भारत भूषण पंत का एक शेर उन्‍हें याद हो आया है: 

सूरज से अपने नामों नसब पूछता हूं मैं
उतरा नहीं है रात का नश्‍शा अभी तलक.


राणा कहते है नए हिंदी गज़ल लिखने वालों को बुजुर्ग शायरों को पढ़ना चाहिए जो अभी से अपने को बुजुर्ग समझने लगे हैं. 

फिर बात उनके इधर के लेखन पर मुड़ चली. पूछा नया क्‍या लिखा है तो उनकी शायरी में हाल की जद्दोजहद उभर आई. बोले लो, हाल ही में लिखा है. फिर एक मतला सुनाया...

बड़ी कड़वाहटें हैं इसीलिए ऐसा नहीं होता
शकर खाता चला जाता हूं मुंह मीठा नहीं होता


दो ओर मतले उन्‍होंने पेश किए...
पहले भी हथेली छोटी थी और अब भी हथेली छोटी है
कल इससे शकर गिर जाती थी अब इससे दवा गिर जाती है

उनके होंठो से मेरे हक़ में दुआ निकली है
जब मरज फैल चुका है तो दवा निकली है



राणा ने मां से बेहद लगाव रहा है. मीर आ के लौट गया है में घर परिवार की दास्‍तान में मां की यादों को बहुत खूबसूरती से पिरोया है उन्‍होंने. मां पर लिखी जज्‍बाती शायरी से ही वे देश दुनिया में मकबूल हुए. इधर जब मां का इंतकाल हुआ तो अक्‍सर लोग उनसे मां की उम्र पूछते. हालांकि यह पूछने की कोई बात नहीं है पर रवायतन हर आदमी दिल बहलाने के ख्‍याल से यह सवाल पूछता ही है. राणा साब कहते हैं कि ओम जी तब यह नहीं पूछना चाहिए कि मां की उम्र कितनी थी बल्‍कि यह पूछनी चाहिए कि अम्‍मा की जरूरत कितनी थी. वे कहते हैं कुछ लोग बुजुर्गों को अपने ड्राइंग रूम में एंटीक की तरह सहेजे रहते हैं कुछ लोग और कुछ लोगों के लिए वे कबाड़ की तरह होते हैं. वे मुझसे रामदरश मिश्र का हालचाल पूछते है. बताता हूं कि एकदम ठीक हैं तो कहते हैं ऐसा इसलिए कि उनके बच्‍चों ने उन्‍हें एंटीक की तरह संभाल कर रखा है. फिर वे मां पर अपनी गजल के दो शेर सुनाते हैं...

उम्र बेटे से कभी मां की न पूछी जाए
मां तो जब छोड़ के जाती है तो दुख होता है.

पहले ये काम बड़े प्‍यार से मां करती थी
अब हवा मुझको जगाती है तो दुख होता है. 


इन दिनों वे ज्‍यादातर लखनऊ रहते हैं जहां उनकी पत्‍नी, बेटा तबरेज राणा, बहू, पोता व पोती रहते हैं. पांच बेटियां हैं जिनमें से 4 लखनऊ में हैं एक पटना में ब्‍याही है. पोते के लिए वे कहते हैं, ''इस घर में हम दोंनो बराबर के हैं. घर में हम दोनों का कहना कोई नहीं मानता है. पोते को व हमें दोनों को रोना पड़ता है अपनी बात मनवाने के लिए. पोती साढ़े तीन साल की है पर उसका दावा है कि वह अम्‍मा है. मां गुजरीं तो वह दो साल की थी सो पोती का नाम मां के ही नाम पर आइशा रखा है.''


मैंने 'मीर आ के लौट गया' आत्‍मकथा की चर्चा छेड़ी और कहा कि इसमें अपने वक्‍त के बहुत से किरदारों दोस्‍तों अदबी शख्‍सियतों को याद किया है आपने. क्‍या प्रतिक्रिया है इस पर लोगों की? तो कहने लगे कि भगवान राम की कथा इसलिए महान नहीं है कि वे मर्यादा पुरुषोत्‍तम हैं बल्‍कि इसलिए कि इसमें शबरी भी मौजूद है. उन्‍होंने मां कैकेयी का हुकुम नहीं टाला तो शबरी का अनुरोध भी नहीं ठुकराया. वे कहने लगे, आत्‍मकथा में सब 'मैं' ही 'मैं' हो तो वह कथा तो हो सकती है, आत्‍मकथा बिल्‍कुल नहीं. राणा की आत्‍मकथा इस साल की बेहतरीन पुस्‍तकों में एक हैं जिसे हाल ही में देहरादून में वैली आफ वर्ड्स लिटेरेचर अवार्ड से नवाज़ा गया है. इन दिनों वे इस आत्‍मकथा का दूसरा भाग लिखने में लगे हैं पर मुशायरे के न्‍यौते थमते नहीं. वे कहते हैं कि जरा सेहत ठीक हो जाए तो इंशा अल्‍ला अगले विश्‍व पुस्‍तक मेले में यह खंड भी प्रकाशित हो कर आ जाए. 
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डॉ ओम निश्‍चल हिंदी के सुपरिचित कवि आलोचक हैं. 
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डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति NDTV उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं. इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार NDTV के नहीं हैं, तथा NDTV उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायीनहीं है.

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