दिल्ली दो पहलुओं का शहर है. यह सिर्फ दिलवालों की ही दिल्ली नहीं है बल्कि दिल कचोट कर रहने वालों की भी दिल्ली है. यहां का एक तबका अपने दफ्तर की चारदीवारी में धूप देखने को तरस जाता है तो दूसरा वो भी है जो इस तपती धूप में पसीना बहाता रह जाता है. इन दोनों तबकों को अलग करने वाली लकीर है पैसा. लकीर के उस तरफ अमीरी, थोड़ी कम अमीरी और गरीबी से थोड़े ऊपर वाली स्थिति एकसाथ हाथ बांधे खड़ी है तो दूसरी तरफ है गरीबी. गरीबी कम या ज्यादा नहीं होती, गरीबी गरीबी होती है. कभी रहने-पहनने के लाले तो कभी बच्चों के लिए दो वक्त की रोटी जुटाने की जद्दोजहद, बस यही गरीबी है. बचपन में ऐसी कई कहानियां भी पढ़ी थीं जिनमें घर की हालत खराब होने पर बच्चे कूड़ा बीनने को मजबूर थे तो कई ऐसे भी थे जो अंधेरी झुग्गियों में मां-बाप के साथ चूड़ियां बनाया करते थे. बड़े होकर इन कहानियों को आंखों के सामने सच होते देख लिया. लेकिन, यह वो कहानियां नहीं थीं जिनकी सच होती पटकथा मन को सुकून देती है. यह सच्चाई कड़वी थी और कड़वी रही.
जुलाई का एक दिन. सीलमपुर की दोपहर. मेट्रो से बाहर निकलकर पसरा मोहल्ला. वो मोहल्ला जहां के बच्चे कम उम्र में ही बड़े हो जाया करते हैं. यहां मां को अपने बच्चों के लिए स्कूल ले जाने वाले बेंटो बॉक्स तैयार करने की चिंता नहीं होती, यहां फिक्र होती है कि अगले दिन बच्चा स्कूल जा भी पाएगा या नहीं. शायद यह कहानियां हर किसी की ना हों, लेकिन जिनकी हैं उनकी गिनती कम नहीं है.
सीलमपुर के बच्चे मां-बाप के सपनों की उम्मीद भर नहीं हैं, ये उनके जीने की उम्मीद हैं, ये उनके हर दिन की चुनौतियों के अंत की उम्मीद हैं, ये अपनी मां के दुलारे ही नहीं हैं बल्कि उस मां की वो उम्मीद हैं जिसके सहारे वो धागे काटने का काम करके इन्हें स्कूल भी भेजती है और इनका पेट भी भरती है.
मेरा सीलमपुर जाना वॉलंटियरिंग के जरिए हुआ. बच्चों से बात करते हुए महसूस हुआ कि ये बच्चे उन बच्चों से कई मायनों में अलग हैं जिन्हें हम स्कूल बस से अक्सर उतरते देखा करते हैं. इन बच्चों के लिए परिवार के मायने, पढ़ाई के मायने, प्यार के मायने बेहद अलग हैं. नहीं, यह बच्चों को कमतर दिखाने वाली बात नहीं है बल्कि यह उनके उस अस्तित्व को उजागर करती है जिससे वो शायद खुद अनजान हैं. अक्सर कहा जाता है कि बच्चे अपने माता-पिता की वो उम्मीद होते हैं जिनके सहारे वे अपने सपने पूरे किया करते हैं. लेकिन, सीलमपुर के बच्चे मां-बाप के सपनों की उम्मीद भर नहीं हैं, ये उनके जीने की उम्मीद हैं, ये उनके हर दिन की चुनौतियों के अंत की उम्मीद हैं, ये अपनी मां के दुलारे ही नहीं हैं बल्कि उस मां की वो उम्मीद हैं जिसके सहारे वो धागे काटने का काम करके इन्हें स्कूल भी भेजती है और इनका पेट भी भरती है.
"स्कूल की किताबें दिलाऊं या घर का राशन भरूं"अब घर में गैस जलती है जिसके लिए हरे-नीले नोटों की जरूरत होती है. वही नोट जो हमारे लिए एक बर्गर और पिज्जा खरीदते हैं और उनके लिए उनके बच्चों की किताबें दिलाने और ना दिलाने के बीच का फर्क हैं.
सीलमपुर में पक्के मकान भीं हैं तो रेलवे की पटरियों से दस कदम की दूरी पर बसीं झुग्गियां भीं. इन्हीं मकानों और झुग्गियों के बीच कहीं घर है फराह (बदला हुआ नाम) का. फराह अब ग्यारहवीं क्लास में है और उसके छोटे भाई-बहन प्राइमरी और नौवीं कक्षा में पढ़ रहे हैं. सरकारी स्कूल से ग्याहरवीं क्लास में किताबें नहीं मिलतीं. फराह की मां ने बताया कि वे महीने का चार हजार कमाती हैं और पति से हर हफ्ते 1000 रुपए मिलते हैं पूरे घर का खर्च और राशन भरने के लिए. ऐसे में उनके सामने यह बड़ी दिक्कत है कि वे घर के 6 सदस्यों का पेट भरें या फराह को 400-500 में आने वाली किताबों का सेट दिलाएं. यह कीमत नई किताबों की भी नहीं है बल्कि सेकंड हैंड किताबों की है. वहीं, कॉपियों का खर्च अलग है. फराह की अम्मी ने बताया कि वे पढ़ी-लिखी नहीं हैं. उन्होंने अपनी बहन को जरूर पढ़ाया था. लेकिन, अब वो अपने बच्चों को पढ़ाना चाहती हैं. बच्चों के ट्यूशन की फीस भी इतनी है कि उन्हें ट्यूशन भेजा जाए तो शायद कई दिनों तक घर में चूल्हा जलाना मुश्किल हो जाएगा. चूल्हा तो कहने की बात है, जब चूल्हे पर खाना बनता था तो लकड़ियां फिर भी इंसान फ्री में बीनकर ले आता था, अब घर में गैस जलती है जिसके लिए हरे-नीले नोटों की जरूरत होती है. वही नोट जो हमारे लिए एक बर्गर और पिज्जा खरीदते हैं और उनके लिए उनके बच्चों की किताबें दिलाने और ना दिलाने के बीच का फर्क हैं.

बच्चों के बारे में बात करते हुए फराह की अम्मी की आंखें हर थोड़ी देर में भर जाती हैं. उनका कहना है कि "सबसे मेन चीज तो मां के लिए यही है कि ये भूखे ना सोएं.” बच्चों की यूनिफॉर्म, पढ़ाई की किताबें, घर की दिक्कतें और सबका पेट भरना, फराह की अम्मी के लिए हर दिन एक नई चुनौती के साथ आता है. रुंधे गले से बोलीं, "हर वक्त टेंशन रहती है और मेरे सीने में भी दर्द रहता है. बस ऊपरवाले से यही है कि मेरे सामने मेरे बच्चों का सब हो जाए, ये पढ़ लिख जाएं और बच्चे मेरे सामने ही शादीशुदा भी हो जाएं, बस मेरी उम्मीद यही है कि ये पढ़ लिख लें."
"जो बनना चाहेगी वही बनाएंगे"
नन्ही अफ्शा (बदला हुआ नाम) अभी पांचवी क्लास में आई है. अम्मी ने कहा कि "बाकी तीन बेटियां भी पढ़ीं जिनमें दो की शादी हो गई है और एक अभी सिलाई का काम सीख रही है. लेकिन, छोटी अफ्शा को खूब पढ़ाएंगे, वो जो बनना चाहेगी वो बनेगी. सपना तो यही है कि यह जितना पढ़ना चाहेगी उतना पढ़ाएं, आगे ऊपरवारे की मर्जी है." अफ्शा अपनी बहनों से सिर्फ इस मायने में अलग नहीं है कि वह उनसे उम्र में कई साल छोटी है, बल्कि इस मायने में भी अलग है कि उसे कुछ बनने का वो मौका दिया जाएगा जो उसकी बहनों के लिए पाना मुश्किल था.
"इन्हें देखकर हिम्मत बनती है"अयान (बदला हुआ नाम) के घर तक एक लंबी पतली गली जाती है. गली के कोने पर अयान का घर है जिसके बाहर उसकी खाला और अम्मी धागे काटने का काम करती हैं. धागे काटने के काम से मतलब है कि फैक्ट्रियों से बनकर आने वाले कपड़ों पर एक्स्ट्रा धागे लटकते हैं जिन्हें काटने का काम करना होता है. थोक में आने वाले ये कपड़े इनकी रोजी-रोटी हैं. 100 कपड़ों से धागे काटे जाते हैं तो 70 रुपए मिलते हैं. अयान की अम्मी ने बताया कि दिनभर में 150-200 कमा लेते हैं और यही उनके लिए कमाई का जरिया है.
अयान का एक बड़ा भाई है और पापा नहीं हैं. खाला और अम्मी समेत अयान और बड़ा भाई ही हैं घर में. दोनों भाई पढ़ाई कर रहे हैं और कमाती अम्मी और खाला ही हैं. अयान की अम्मी का कुछ समय पहले बड़े बेटे के साथ ही एक्सीडेंट हुआ था जिस कारण दोनों पैरों में रोड डालनी पड़ी. घर की पूरी जिम्मेदारी कमजोर पैर लेकिन मजबूत कंधों वाली अम्मी पर है. एक बेहद ही बेतुका सवाल मन में आया और मैंने उनसे पूछ भी लिया, कि क्या कभी ऐसा लगा है सबकुछ छोड़ दें क्योंकि संघर्ष ज्यादा है. इस बेतुके सवाल का अयान की अम्मी ने सरल और हिम्मत से भरा जवाब देते हुए कहा, "इतना संघर्ष कर लिया अब क्या हार माननी. अभी जंग ही लड़ रहे हैं यह समझो. जब बच्चे बड़े हो जाएंगे तो शायद जंग खत्म होगी, किस्मत बदलनी हुई तो बदल जाएगी नहीं तो जंग तो चल ही रही है, क्या कर सकते हैं."

बच्चों की समझदारी पर भी अयान की अम्मी ने बताया कि बच्चे जिद नहीं करते. वो समझते हैं कि अम्मी नहीं ला पाएंगी तो वो मांगते भी नहीं हैं. जितना अम्मी कर पाती हैं अपने लाडलों के लिए कर देती हैं. हां, एक दिक्कत है, बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने की. स्कूल किसी तरह भेज भी दें तो ट्यूशन की फीस जुटाना आसान नहीं है.
अपने दोनों बेटों को अयान की अम्मी अपना सबकुछ मानती हैं. कहती हैं, "इनसे बहुत उम्मीदें हैं. कहते हैं बड़ा हो जाऊंगा तो यह करूंगा, वो करुंगा. बच्चे ही हैं जो कुछ हैं, यही हैं सहारा, इनसे ही मेरी हिम्मत बनती है. मैं नहीं होंगी तो मेरे बाद इनका कौन होगा."
बस एक उम्मीदगरीबी और बचपन. बचपन और पढ़ाई. पढ़ाई और भूख. भूख और संघर्ष. संघर्ष और परवरिश. सीलमपुर के लोगों की यह कहानी देश के कोने-कोने में बसे बहुत से लोगों की भी है. लेकिन, यहां वो बच्चे पल रहे हैं जिनके माता-पिता बस यह चाहते हैं कि इन्हें बड़े होकर अपने बच्चों की भूख और उनकी किताबों के बीच किसी एक को ना चुनना पड़े.