अप्रैल-मई के दो महीने, जब जिंदगी की गरिमा ही नहीं बची

दो महीने तक आपने देखा कि किसी की ज़िंदगी की कोई गरिमा नहीं बची थी. आम आदमी हो या मुग़ालते में रहने वाले रसूख़दार लोग. सब अस्पताल में बेड खोज रहे थे और ऑक्सीजन का सिलेंडर तक हासिल नहीं कर पा रहे थे. इस अंजाम से गुज़रने के बाद भी अगर आग़ाज़ नया नहीं होगा तो फिर से वही अंजाम होगा. गुजराती अख़बारों और भास्कर समूह ने तमाम राज्यों से मौत के आंकड़े को छिपाने का जो खेल पकड़ा है उसे कुछ अंग्रेज़ी अख़बार भी सीख रहे हैं.

दो महीने तक आपने देखा कि किसी की ज़िंदगी की कोई गरिमा नहीं बची थी. आम आदमी हो या मुग़ालते में रहने वाले रसूख़दार लोग. सब अस्पताल में बेड खोज रहे थे और ऑक्सीजन का सिलेंडर तक हासिल नहीं कर पा रहे थे. इस अंजाम से गुज़रने के बाद भी अगर आग़ाज़ नया नहीं होगा तो फिर से वही अंजाम होगा. गुजराती अख़बारों और भास्कर समूह ने तमाम राज्यों से मौत के आंकड़े को छिपाने का जो खेल पकड़ा है उसे कुछ अंग्रेज़ी अख़बार भी सीख रहे हैं. नोएडा और दिल्ली में पत्रकारों का घनत्व देश में सबसे अधिक होगा। नोएडा से हमारे सहयोगी सौरव शुक्ल ने बताया था कि कैसे मरने वालों का आंकड़ा वास्तविकता से दूर है. लेकिन दिल्ली वालों को आज पता चला है कि इस साल अप्रैल और मई के महीने में जारी होने वाले मृत्य प्रमाण पत्रों की संख्या में बेतहाशा वृद्धि देखी गई है. दिल्ली में पिछले साल के अप्रैल और मई महीने की तुलना में ये 250 प्रतिशत अधिक है. दिल्ली नगर निगम ने दो महीने में 34,750 मृत्यु प्रमाण पत्र जारी किए हैं. लेकिन इन दो महीनों में आधिकारिक तौर पर दिल्ली में 13,201 लोग कोविड से ही मरे हैं. पिछले साल मई में 5,475 की तुलना में इस साल मई में 24,000 मृत्यु प्रमाण पत्र जारी हुए हैं. चार गुना ज़्यादा. पिछले साल अप्रैल की तुलना में इस अप्रैल में करीब ढाई गुना ज़्यादा मृत्यु प्रमाण पत्र जारी हुए हैं, 10750. एक एक आदमी के घर जाकर जांच होनी चाहिए कि कितने लोग कोविड से मरे और कितने लोग इलाज न मिलने के कारण मरे.

अगर हम दिल्ली में ही मरने वालों की संख्या सही सही नहीं जान सकते, तो फिर दिल्ली को झूठ की राजनीति घोषित कर देना चाहिए. पिस्ता का पेड़ होता है. मेरी राय में झूठ की इस जीत पर सेंट्रल विस्ता प्रोजेक्ट के बीच में पिस्ता का बाग़ लगे और बाग़ के बीच दुनिया में कहीं से भी दिखने वाला एक खंभा बने. जिसके भीतर लिफ्ट लगी हो ताकि टॉप पर पहुंचने के बाद लोगों को यह भी पढ़ने के लिए मिले कि “जब भारत में सबके सामने कोविड से लाखों लोग मर गए तब सरकारों ने संख्या हज़ारों में बताई. ऑक्सीजन की कमी से मरने के बाद भी ऑक्सीजन की कोई कमी नहीं है के सरकारी झूठ के साथ-साथ भारत की जनता ने इस झूठ को भी स्वीकार कर लिया कि लाखों लोग नहीं मरे हैं. दुनिया में झूठ की इससे बड़ी जीत दूसरी नहीं हुई है. उसी की याद में यह खंभा है.” आधुनिक सत्य ऑफ इंडिया ASI के नीले बोर्ड पर लिखा होगा. इसे देखने दुनिया भर से सैलानी आएंगे और झूठ के इस खंभे से डॉलर में कमाई होगी. इसके बाद सरकार कानून बना दे और कहे कि अब भारत में सच और झूठ का झगड़ा खत्म हो चुका है. झूठ को ही सच घोषित कर दिया गया है.

पटना के ग्रामीण और शहरी इलाकों में भी भास्कर की टीम ने जब पड़ताल की तो कोविड से मरने वालों की सरकारी संख्या से कहीं ज़्यादा शवों के अंतिम संस्कार हुए हैं. गूगल सर्च कर नहीं पता चला है बल्कि इसके लिए भास्कर को 18 रिपोर्टरों की टीम लगानी पड़ी है तब जाकर झूठ के शामियाने के नीचे का खंभा दिखा है. अभी पूरी चादर नहीं दिखी है.

भास्कर की रिपोर्ट के अनुसार पटना शहर में मई के महीने में तीन श्मशान में ही 1648 शवों का अंतिम संस्कार हुआ है. जबकि सरकारी आंकड़ा 446 का है. भास्कर ने लिखा है कि पटना के तीन घाट पर ही रिकार्ड रखने की व्यवस्था है. बाकी गांवों और कई घाटों पर कोई रिकार्ड नहीं रखा जाता है. यह रिपोर्ट केवल श्मशान घाटों की है. कब्रिस्तान की गिनती नहीं है. ग्रामीण इलाकों में कोरोना से 447 लोगों की मौत हुई है. 3,162 लोगों की मौत हुई जिनकी जांच नहीं हुई मगर कोरोना के लक्षण थे. इस तरह गांव शहर के आंकड़े जोड़ने पर मरने वालों की संख्या 5000 हो जाती है.

पेरु ने कभी दावा नहीं किया कि वो विश्व गुरु बनने के लिए CBSE की परीक्षा की तैयारी कर रहा है लेकिन उस देश ने भी मरने वालों की संख्या पर संदेह किया तो जांच बिठा दी और अब संख्या दोगुनी कर दी गई है. कायदे से जिस तरह इन तीन महीनों में भारत के नागरिकों ने अपमान झेला है, पूरे साल केवल इसी दौर पर बात होनी चाहिए. मार्च और अप्रैल के महीने में लोग लिख रहे थे कि छह लाख का बिल आ गया है तो किसी का 14 दिन में 8 लाख का बिल आ गया है. ब्लैक फंगस की सर्जरी का बिल चार लाख का आ गया है तो बाकी सारा खर्चा मिलाकर 14 लाख का हो गया है. यासिर रहमान ने लिखा है कि दादी के लिए आक्सीजन बेड का 8 दिन का खर्चा 1 लाख 80 हज़ार आया. एक और दादी के लिए चार दिन का खर्चा सवा लाख आया. एक पांच सितारा अस्पताल में चाची दस दिनों तक आईसीयू में थीं तो उनका खर्चा 18 लाख आया. तीनों नहीं बचीं. करुणाकर ने 28 मई को मदद माँगते हुए लिखा है कि मेरे दोस्त के पिता का ब्लैक फ़ंगस की सर्जरी के लिए 4 लाख का बिल आया और कुल ख़र्च 13 लाख 90 हज़ार 900 रुपय का बना है. 

लाखों रुपये देने के बाद तीमारदारों का जो अस्पताल के बाहर अनुभव हुआ है, उसी की एक जनसुनवाई होनी चाहिए. पूरी संसद को बैठ कर सुनना चाहिए कि लोगों पर क्या बीती है. कितने अस्पतालों ने बोरी बोरी भर कर कैश लिए, पता नहीं. आयकर विभाग पता कर सकता है. उनके बैंक खातों की जांच कर सकता है. देख सकता है कि तीन महीनों में अस्पातल में भर्ती हुए कितने मरीज़ों ने चेक या इंटरनेट बैंकिंग से भुगतान किया और कितनों ने कैश में भुगतान किया.

डॉक्टर के प्रति कृतज्ञ होना और अस्पताल की लूट को समझना दोनों दो चीज़े हैं. इससे डॉक्टर को आहत होने की ज़रूरत नहीं है बल्कि उन्हें भी नागरिकों को समझाने में मदद करनी चाहिए कि उनसे किस तरह लाखों रुपये लिए गए हैं. ताकि लोग अधिक से अधिक संख्या में अधिक बिलिंग और कैश में वसूली को लेकर शिकायत करने के लिए आगे आ सकें.

अजीत सिंह जैसे कम लोग होते हैं जो अपने बेटे दिलीप की मौत के बाद ज़िला प्रशासन के पास गए कि दरभंगा के पारस ग्लोबल अस्पताल में 2 लाख 30 हज़ार 500 का बिल दिया है जो अधिक है. इसके पहले अजित सिंह ने अपने बेटे को पटना के यूनिवर्सल अस्पताल में रखा था. वहां अस्पताल मजबूर करता था कि पहले पैसे दो तभी इलाज करेंगे. यही शिकायत दिल्ली में भी कई लोगों ने की है. यूनिवर्सल अस्पताल में 12 दिन इलाज हुआ और बिल आया 9 लाख का. बाद में दरभंगा लाए गए. अजित सिंह का आरोप है कि दरभंगा के पारस ग्लोबल अस्पताल ने मौत के बाद भी बेटे को जीवित बता कर दवा और उपचार का खर्च दिखलाया गया है. अजीत कुमार सिंह ने दरभंगा ज़िलाधिकारी के यहां शिकायत की. जांच के बाद पाया गया कि अजीत सिंह की बात सही है. मरीज़ की मौत के बाद भी बिल बनाया गया है. बिना किसी लक्षण के रेमडेसिविर दे दिया गया. ऐसी दवाओं का बिल लिया गया जिनका रिकार्ड अस्पताल के पास नहीं है. 3 दिन वेंटिलेटर पर रखा और पैसे लिए 9 दिन के.

अजीत सिंह से पूछिए उनका कहना है कि भीख मांग कर पैसे दिए हैं. अजीत सिंह 12 कट्ठा की जोत के किसान हैं. 12 कट्ठा के किसान को 12 दिन में 12 लाख लग गए इलाज पर. इस किसान को बारह लाख रुपये देने पड़े हैं. बेटा भी नहीं बचा. इसलिए कहता हूं कि किसी को जनसुनवाई का प्लेटफार्म बनाना चाहिए. जहां लोग सांसदों को अस्पतालों के किस्से बता सकें. विश्व गुरु भारत की कहानी बता रहा हूं. अपने NRI रिश्तेदार को वीडियो कॉल पर बताइयेगा कि यह घटना डेनमार्क की नहीं है, बेहार के डेरभांगा की है. 

इस तरह क अपमान से गुज़रना पड़ा है लोगों को. दरभंगा हो या दिल्ली, कोविड के दौरान इलाज के खर्चे से भी कई लोग गरीब हो गए. लेकिन कार्रवाई के नाम पर ख़ानापूर्ति है.

अशोक अग्रवाल आए दिन ऐसे ही मामलों से जूझते रहते हैं. अस्पताल वालों को भी पता है कि कोई है जो ग़रीबों के लिए लड़ रहा है. लेकिन हर जगह ऐसा नहीं है. इसलिए ज़रूरी है कि हम बार बार अप्रैल और मई के महीने में लौटें और देखें कि क्यों ऐसा हुआ और क्या हो कि अब ऐसा न हो. लोगों को भरोसा नहीं है कि कार्रवाई होगी. तरह तरह का डर होगा कि अस्पताल फिर से इलाज नहीं करेगा. कुछ समय के बाद मुख्यमंत्री या कोई मंत्री किसी दूसरे शहर में उसी अस्पताल के एक नए सेंटर का उद्घाटन कर रहा होगा. अनुराग द्वारी ने मध्य प्रदेश से जो रिपोर्ट भेजी है वो इस मसले की समझ और बेहतर करती है. आप देख सकते हैं कि प्राइवेट अस्पताल का सरकारों के ऊपर कितना प्रभाव है.

ऐसे नेटवर्क और सांठगांठ के किस्से आपको हर राज्य में मिलेंगे. जब तक आप इस नेटवर्क के खेल को नहीं समझेंगे और सबके लिए अस्पताल की बात नहीं करेंगे, सरकारी अस्पताल की बात नहीं करेंगे, आप खुद को भी जोखिम में डालेंगे.

नांदेड़ के तख़्त सचखंड श्री हुज़ूर अबचलनगर साहिब ने फैसला किया है कि पचास साल में जितना भी दान मिला है उससे एक मेडिकल कालेज और अस्पताल बनाया जाएगा. 25 करोड़ का सोना भी अस्पताल बनाने के काम आएगा. अव्वल तो सचखंड साहिब में पचास साल के दान का हिसाब है, सोना मौजूद है, इसी ईमानदारी से सबको सीख लेनी चाहिए. गुरुद्वारा समिति ने महामारी की चुनौती का सामना करने किे अस्पताल बनाने का निर्णय किया है. दिल्ली सिख गुरुद्वारा मैनज्मेंट कमिटी ने भी दिल्ली में 125 बेड का अस्पताल बनाने के लिए 20 किलो सोना और चांदी दान दिया है. क्या यही काम सबको नहीं करना चाहिए. गुरुद्वारा समिति किसी एक मज़हब के लिए अस्पताल नहीं बना रही है, सबके लिए बना रही है. तो सरकार क्यों नहीं सबके लिए अस्पताल बनाने का आंदोलन शुरू करती है. इसके बाद भी इस खबर से सामना करना पड़ता है कि हेमकुंट फाउंडेशन के बनाए अस्थायी अस्पताल को असमाजिक तत्व तोड़ गए हैं. गुरुग्राम की यह घटना है. हेमकुंट फाउंडेशन ने कहा है कि नई जगह पर अस्पताल बनाएंगे. तोड़ फोड़ के वक्त कोई मरीज़ भर्ती नहीं था.

इसी सवाल को बार बार पूछना है कि सबके लिए सस्ता और अच्छा अस्पताल बनाने के बारे में क्या सोचा जा रहा है. जिस वक्त सरकारी अस्पतालों को ठीक करने की प्राथमिकता होनी चाहिए, उस वक्त आपदा में आइडिया निकाला जा रहा है कि कैसे प्राइवेट सेक्टर के हाथ में सरकारी अस्पतालों को सौंप दें. नीति आयोग का आइडिया देखिए कि ज़िला अस्पतालों से जुड़े मेडिकल कालेज को प्राइवेट पब्लिक पार्टनरशिप के तहत आ जाएंगे. केवल सरकारी अस्पतालों को बेहतर करने और सुलभ करने के लिए आइडिया नहीं आता है.

इसकी भूमिका बांधने के लिए जनवरी 2020 में 250 पेज का दस्तावेज़ तैयार किया गया था. ज़िला अस्पतालों को प्राइवेट हाथों में सौंपने का काम धीरे-धीरे किया जाएगा. प्राइवेट प्लेयर को मेडिकल कॉलेज के डिज़ाइन, निर्माण, अपग्रेडेशन और रखरखाव का काम करना होगा. हर साल 150 MBBS के छात्र लेने होंगे. कहानी घुमा कर बताई जा रही है कि ज़िला अस्पताल में कम से कम 750 बेड होंगे. जिसमें से 300 बेड और बाक़ी बचे 20% बेड गरीबों के लिए होंगे बाकी पर प्राइवेट अपने हिसाब से पैसे लेंगे. यानी अगर 900 बेड का अस्पताल है तो 480 बिस्तर तो प्राइवेट के होंगे.

क्या देश में ग़रीबी कम हो रही है कि हम उनके लिए सरकारी अस्पताल में बेड कम बना रहे हैं. एक साल से आप कोरोना को हरा देने के प्रोपेगैंडा की चपेट में थे इसलिए ध्यान नहीं दिया होगा. अब जब हार कर आएं तो उम्मीद है कि आप ध्यान देंगे और खेल को समझेंगे.

29 मई को आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री जगन रेड्डी के एलान को ठीक से समझिए. किसे अच्छा नहीं लगेगा कि राज्य सरकार 16 मेडिकल कालेज और अस्पताल खोलने जा रही है. लेकिन इसी के साथ अधिकारियों से कहा है कि सभी ज़िलों में सोलह मेडिकल हब बनाने के लिए ज़मीन खोजी जा रही है. सरकार हर ज़िले में पांच से छह निवेशकों को सौ- सौ करोड़ निवेश करने पर निवेशक को पांच एकड़ ज़मीन मुफ्त में देगी. तीस एकड़ ज़मीन फ्री में. हेडलाइन बड़ी छपेगी कि सरकार तीन साल में अस्सी अस्पताल बनाने जा रही है. अगर राज्य को अस्सी अस्पताल की ज़रूरत है लेकिन वह केवल सोलह मेडिकल कालेज और अस्पताल खोल रही है. बाकी प्राइवेट के लिए रास्ता बना रही है.

इतने लोगों को गंवा कर अगर हमने ये सबक सीखा है तो अगली बार लुटने के लिए पैसे बचाने शुरू कर दीजिए. अस्पतालों की लापरवाही औऱ लूट से डॉक्टर भी नहीं बचे हैं. यह सवाल तो है कि क्या कोविड से संक्रमित सभी डाक्टरों को बढ़िया इलाज मिला? क्या उन्हें लाखों रुपये नहीं देने पड़े होंगे? अकेले दिल्ली में 109 डाक्टरों की मौत हुई है. इस बार देश भर में कोविड से 624 डाक्टर की मौत हुई है. बत्रा अस्पताल में आक्सीजन की सप्लाई बंद होने से डाक्टर RK Himthani की मौत हो गई. सब चुप हैं. क्या कभी उन्हें इंसाफ मिलेगा. असम के होजाई में डॉक्टर सेनापति और नर्स ललिता भराली पर 24 लोगों ने बुरी तरह हमला कर दिया. चिकमगलुरु के डॉक्टर दीपक पर चार लोगों ने हमला कर दिया. गुस्सा डाक्टर पर मत निकालिए. गुस्सा है तो सवाल पूछिए कि क्या किया जाए. कैसे सबके लिए इलाज की व्यवस्था की जाए. जो सरकार अपने दस्तावेज़ों में सरकारी अस्पताल को प्राइवेट हाथों सौंपने का जुगाड़ निकालती रहती है उसी सरकार के दूसरे दस्तावेज़ में प्राइवेट अस्पतालों के बारे में क्या लिखा गया है. जानना चाहिए. 2020-21 के आर्थिक सर्वे में कहा गया है कि निजी क्षेत्र में उपचार की गुणवत्ता सरकारी क्षेत्र की तुलना में स्पष्ट रूप से बेहतर प्रतीत नहीं होती है. फिर भी, निजी क्षेत्र में उपचार की लागत ना केवल सामान्य रुप से अधिक है, बल्कि कैन्सर का इलाज करीब चार गुना महंगा है, दिल की बीमारी का इलाज करीब 7 गुना महंगा है और सांस की बीमारी का इलाज 5 गुना से अधिक है.

महामारी के कारण ऐसे बहुत से लोगों को सरकारी अस्पताल जाने का मौका मिला. जाने के अलावा कोई विकल्प भी नहीं था लेकिन तब भी सरकारी अस्पतालों की बात नहीं हो रही है. उनकी संख्या कम रहते या ख़राब रहते हुए आप कभी भी हेल्थ सिस्टम को बेहतर नहीं कर सकते हैं.

कई सरकारी अस्पतालों में लोगों के अच्छे अनुभव भी रहे हैं. कहीं सुविधा ठीक थी तो कहीं कम थी लेकिन उसी के बीच डाक्टर और हेल्थ वर्कर को कमाल का काम करते देखा. लेकिन कई जगहों पर बेहद ख़राब अनुभव भी रहे. न स्टाफ था और न इलाज था. मैं नहीं कह रहा कि प्राइवेट अस्पताल नहीं चाहिए, मैं भी प्राइवेट में ही जाता हूं लेकिन मेरी तरह कई लोग इस बार सरकारी अस्पताल गए. लेकिन बेहतर स्थिति यही है कि सरकारी अस्पताल प्राइवेट से अच्छे हों और उनकी संख्या ज़्यादा हो. आप टैक्स देते किस लिए हैं. सिर्फ जेएनयू का हिसाब मांगने के लिए टैक्स नहीं देते हैं. Am I right? और टैक्स तो हर कोई देता है. बिस्किट ख़रीदो तो भी टैक्स जाता है.

अनगिनत नर्सिंग होम और प्राइवेट अस्पतालों ने तरह तरह से लोगों पर लाखों रुपये के बिल का बोझ डाला है. इसका अदाज़ा आपको अदालतों की टिप्पणियों से हो जाएगा. 24 मई को मद्रास हाईकोर्ट ने राज्य सरकार से कहा कि प्राइवेट अस्पताल की वसूली पर नियंत्रण करें. ताकि सरकारी अस्पतालों में जगह न मिलने पर जान बचाने के लिए प्राइवेट अस्पतालों में भर्ती होने वाले आम नागरिक आर्थिक रूप से बर्बाद न हो जाएं. मद्रास हाई कोर्ट ने 2 जून को भी कहा है कि लोग अच्छा इलाज हासिल करने के लिए कर्ज़ में डूब गए हैं. सरकार इन वित्तीय मुश्किलों का हल निकालने के लिए नीति बनाए.

1 जून को तेलंगाना हाई कोर्ट ने कहा कि लोग इलाज का ख़र्चा भरने के लिए सोना गिरवी रख रहे हैं. 8 मई को हाई कोर्ट ने राज्य सरकार से कहा था कि प्राइवेट अस्पतालों में आक्सीजन बेड, आईसीयू बेड, वेंटिलेटर और एंबुलेंस की दरों को तय करे. 1 जून को बताया गया कि सरकार ने कोई फैसला ही नहीं लिया है. तो इस तरह से लोगों की चिन्ता हो रही है. पीएम केयर्स के तहत ख़राब वेंटिलेटर की सप्लाई की ज़िम्मेदारी भी प्रधानमंत्री की बनती है. इसके बाद भी किसी निर्माता के खिलाफ कार्रवाई की खबर सुनने को नहीं मिली है.

बांबे हाई कोर्ट की औरंगाबाद बेंच ने कहा है कि अगर खराब वेंटिलेटर से किसी की जान जाती है तो उसकी जवाबदेही केंद्र सरकार की है. औरंगाबाद के मेडिकल कालेज में खराब वेंटिलेटर की सप्लाई से अगर किसी की मौत हुई है तो उसकी ज़िम्मेदारी केंद्र सरकार की है. खराब वेंटिलेटर बदल कर नया देने की जवाबदेही भी केंद्र सरकार की है. औरंगाबाद के मेडिकल कालेज GMCH ने अपनी जांच में पाया है कि पीएम केयर्स के तहत जो वेंटिलेटर मिले हैं वो खराब हैं. उनके इस्तमाल से किसी मरीज़ की जान जा सकती है. कोर्ट के कहने के बाद भी ऐसी ज़रूरी ख़बरें गायब कर दी जा रही हैं जबकि कई जगहों से पीएम केयर्स के वेंटिलेटर्स के खराब निकलने की खबरें छपी हैं. क्या आप चाहते हैं कि फिर से लोग के मरने का यही इंतज़ाम और ढर्रा बना रहे.

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पीएम केयर्स के वेंटिलेटर को लेकर कितनी खबरें आ गईं. खराब वेंटिलेटर खरीदने का र्डर किस एक्सपर्ट कमेटी ने दिया. वह एक्सपर्ट कमेटी सार्वजनिक रूप से सफाई क्यों नहीं देती है. क्या ऐसी किसी कमेटी को पता नहीं एक साल से पीएम केयर्स के वेंटिलेटर को लेकर सवाल उठ रहे हैं. इसके लिए पहले आपने कभी सुना है कि सरकारी अस्पताल को वेंटिलेटर दिया गया औऱ वो काम नहीं कर रहा है. पीएम केर्यस के वेंटिलेटर को लेकर सुनाई दे रहा है.