मीडिया, बॉलीवुड और राजनीति की नामी शख्सियतों के विरुद्ध यौन उत्पीड़न के खुलासों के मामलों को कानूनी समाधान कैसे मिलेगा...? महिला आयोग ने रस्मी तौर पर कारवाई की है, लेकिन #MeToo से जुड़े मामलों में सोशल मीडिया के भारीभरकम अभियान के बावजूद पुलिस, अदालत और सरकार की चुप्पी निराशाजनक है...
निर्भया कांड के बाद कानून में बदलाव के बावजूद सिस्टम सुस्त
#MeToo की तरह 2012-13 के दौर में निर्भया रेप मामले के खिलाफ सोशल मीडिया में महिलाओं की सुरक्षा को लेकर देशव्यापी अभियान शुरू हुआ था. जनाक्रोश से डरकर सरकार ने जस्टिस वर्मा कमेटी की रिपोर्ट के आधार पर आपराधिक कानूनों में बदलाव करते हुए महिलाओं को घूरने या पीछा करने के खिलाफ भी सख्त प्रावधान बना दिए थे. नए कानून के अनुसार #MeToo के अधिकांश मामलों में दोषियों को कठघरे में खड़ा किया जा सकता है, परंतु इस कानून को 2013 से पहले के मामलो में लागू नहीं किया जा सकता. सख्त कानून बनाने के बावजूद आपराधिक मामलो में फैसलों की अदालती प्रक्रिया अब भी जटिल और सुस्त है. सिस्टम की पूरी तेज़ी के बावजूद निर्भया मामले के अभियुक्तों को अभी भी सज़ा नहीं मिली, तो फिर #MeToo के मामलों का हश्र क्या होगा...?
पुलिस में शिकायत के बावजूद #MeToo के मामले कैसे निपटेंगे
तनुश्री दत्ता ने नाना पाटेकर के खिलाफ 10 साल पहले सिने एंड टीवी आर्टिस्ट्स एसोसिएशन (CINTAA) में शिकायत दर्ज कराई थी. इसके बाद राज ठाकरे की सेना ने तनुश्री पर हमला किया था, जिसके खिलाफ तनुश्री के पिता ने पुलिस में FIR दर्ज कराई थी. #MeToo के नए दौर में ब्रेकिंग न्यूज़ के बाद तनुश्री ने यौन उत्पीड़न के पुराने मामले में फिर पुलिस में शिकायत दर्ज कराई है. सिविल मामलों में 12 साल की कानूनी लिमिटेशन होती है, परन्तु आपराधिक मामलो में ऐसी कोई समय सीमा नहीं होती. #MeToo के कई मामले 20 साल पुराने हैं. सवाल यह है कि पुलिस ऐसे मामलों में क्या और कैसे जांच करेगी...? पुलिस FIR दर्ज कर भी ले, तो अदालत में इतने पुराने मामले कैसे टिकेंगे, जहां गवाहों के बयान और सबूतों के आधार पर ही कार्रवाई होती है...? सुप्रीम कोर्ट के नए चीफ जस्टिस रंजन गोगोई ने कहा है कि न्यायिक प्रक्रिया में विलंब की वजह से लोगों को ताउम्र न्याय नहीं मिल पाता. तो फिर #MeToo अभियान में सामने आई पीड़ित महिलाएं कानून और अदालती व्यवस्था पर कैसे भरोसा करें...?
सुप्रीम कोर्ट की विशाखा गाइडलाइन्स
कार्यक्षेत्र में महिलाओं का उत्पीड़न रोकने के लिए विशाखा मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा अगस्त, 1997 में फैसला दिया गया था. सरकारी और निजी क्षेत्रों में महिलाओं को उत्पीड़न से बचाने के लिए आंतरिक समिति के गठन और अनुशासनात्मक दंड के लिए इस फैसले में प्रावधान किया गया था. #MeToo के अधिकांश मामलों में वरिष्ठ संपादक या निर्माता ही यौन शोषण में शामिल हैं. जब मेढ़ ही फसल को खाने लगे, तो फिर विशाखा जैसे नियमों का पालन कैसे सुनिश्चित हो...? मीडिया और बॉलीवुड जैसे कार्यक्षेत्रों में महिलाओं के शोषण को रोकने हेतु सुप्रीम कोर्ट के फैसले का कड़ाई से पालन कराने के लिए सरकार अब भी यदि चेते, तो #MeToo अभियान को सार्थकता मिल सकती है.
पीड़िता के नाम को उजागर करना अपराध
जम्मू एवं कश्मीर में कठुआ रेप और हत्या मामले में पीड़ित बच्ची के नाम को उजागर करने के लिए दिल्ली हाईकोर्ट ने अप्रैल, 2018 में अनेक मीडिया हाउसों पर 10-10 लाख रुपये की पैनल्टी लगाई थी. पीड़िता की मृत्यु और मां-बाप की सहमति के बावजूद निर्भया के असली नाम को अभी तक उजागर नहीं किया जाता. सुप्रीम कोर्ट ने ऐसे मामलो में पीड़िताओं के वास्तविक नाम की बजाय 'एक्स' या 'वाई' नाम से मुकदमों की कार्यवाही पूरी की. #MeToo मामलों में केंद्र सरकार के मंत्री एमजे अकबर के विरुद्ध आरोप लगाने वाली महिला ने अपना नाम और घटनाक्रम सोशल मीडिया में सार्वजनिक किया है. देश में मानहानि के विरुद्ध भी अनेक आपराधिक और सिविल कानून हैं, जिनके अनुसार दिल्ली हाईकोर्ट ने बाबा रामदेव की जीवनी के विवादित अंशों के प्रकाशन और पुस्तक की बिक्री पर प्रतिबंध लगा दिया. #MeToo अभियान में पीड़िताओं के नामों को उजागर करने और निर्दोष लोगों की मानहानि पर कानून के उल्लंघन पर क्या कारवाई होगी, इस पर भी अब बहस होनी चाहिए.
विराग गुप्ता सुप्रीम कोर्ट अधिवक्ता और संवैधानिक मामलों के विशेषज्ञ हैं...
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This Article is From Oct 10, 2018
#MeToo पीड़िताओं का नाम उजागर करने का अपराध - क्या करेगा कानून...?
Virag Gupta
- ब्लॉग,
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Updated:अक्टूबर 10, 2018 16:19 pm IST
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Published On अक्टूबर 10, 2018 16:19 pm IST
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Last Updated On अक्टूबर 10, 2018 16:19 pm IST
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