यह ख़बर 01 मार्च, 2014 को प्रकाशित हुई थी

लालकृष्ण आडवाणी : सफल नेता, असफल बागी?

नरेंद्र मोदी और लालकृष्ण आडवाणी की फाइल तस्वीर

नई दिल्ली:

भारतीय जनता पार्टी के शीर्षस्थ नेता लाल कृष्ण आडवाणी शुक्रवार को गांधीनगर में थे। वह स्थानीय सांसद होने के नाते एक कार्यक्रम में हिस्सा लेने वहां गए थे। पत्रकारों के पूछने पर उन्होंने कहा कि वह गांधीनगर से ही चुनाव लड़ना चाहते हैं।

उन्होंने यह जानकारी भी दी कि बृहस्पतिवार को जारी की गई लोकसभा उम्मीदवारों की पहली सूची में उनका नाम नहीं था। उन्होंने कहा कि पार्टी इस बारे में अंतिम फैसला करेगी। पत्रकारों के बार-बार कुरेदने पर आडवाणी ने कहा कि वह उन्हें खबर दे चुके हैं।

बीजेपी के सबसे बड़े नेता उस सीट से चुनाव लड़ना चाहते हैं, जिसका प्रतिनिधित्व वह 1991 से करते आ रहे हैं, इसमें खबर क्या है? पार्टी के मार्गदर्शक के रूप में उन्हें अपनी इच्छा को सार्वजनिक रूप से प्रकट करने की आवश्यकता क्यों पड़ी? उन्होंने इस सार्वजनिक रूप से जाहिर तथ्य को क्यों दोहराया कि बृहस्पतिवार को जारी पहली सूची में उनकी नाम नहीं है? गांधीनगर से लड़ने की अपनी इच्छा को सार्वजनिक करने के बाद उन्होंने क्यों कहा कि इस बारे में पार्टी अंतिम निर्णय करेगी?

इन सवालों के जवाब 2009 की हार के बाद से आडवाणी के क्रिया-कलापों और गतिविधियों से मिलते हैं। 16 मई, 2009 की शाम को आडवाणी ने लोकसभा चुनावों में हार के बाद लोकसभा में विपक्ष के नेता पद से इस्तीफा दे दिया था। इसे इस रूप में लिया गया कि अब वह सक्रिय राजनीति से पीछे हटकर पार्टी के लिए मार्गदर्शक की भूमिका निभाएंगे, लेकिन पार्टी के मनाने पर वह मान गए और दिसंबर, 2009 तक नेता विपक्ष बने रहे।

बीच में आरएसएस ने लगातार दबाव बनाया कि आडवाणी सक्रिय राजनीति से हटें, लेकिन आडवाणी समर्थकों ने यह सुनिश्चित किया कि सुषमा स्वराज को नेता विपक्ष की कमान सौंपने से पहले उनके लिए संसदीय पार्टी के अध्यक्ष का नया पद सृजित किया जाए, ताकि पार्टी में उनका ओहदा और दखल बरकरार रहे।

नितिन गडकरी को बीजेपी अध्यक्ष बनाकर आरएसएस ने पार्टी पर अपनी पकड़ मजबूत करने का संकेत दिया, तो आडवाणी कई मुद्दों पर गडकरी से टकराते रहे। उन्हें दोबारा कार्यकाल न मिलने के पीछे भी आडवाणी का सख्त विरोध माना गया। बीच में अन्ना हजारे के आंदोलन के दौरान आडवाणी पार्टी के भीतर कहते रहे कि भ्रष्टाचार के मुद्दे पर बीजेपी गंभीर नहीं दिखती। इसी दौरान उन्होंने काला धन वापस लेने के मुद्दे पर आरएसएस की अनिच्छा के बावजूद रथ यात्रा निकाली। मकसद था यह संदेश देना कि वह 2014 के चुनाव के लिए प्रधानमंत्री पद के दावेदार बने हुए हैं।

आडवाणी की बगावत सतह पर तब आई, जब गोवा में जून, 2013 में नरेंद्र मोदी को प्रचार समिति का अध्यक्ष बनाया गया। 10 जून को उन्होंने सभी पार्टी पदों से इस्तीफा दे दिया। पार्टी ने फिर मान-मनौव्वल की, लेकिन वह आरएसएस से ये आश्वासन नहीं पा सके कि प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार चुनते समय उनकी बात सुनी जाएगी। बल्कि संघ ने उनकी इस दलील को भी अनसुना कर दिया कि बीजेपी को अपना प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार दिसंबर, 2013 में होने वाले विधानसभा चुनावों के बाद घोषित करना चाहिए।

13 सितंबर, 2013 को जब मोदी को पीएम उम्मीदवार घोषित किया गया, आडवाणी घर पर ही रहे। उन्होंने बयान जारी कर पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह पर हमला भी किया कि पार्टी ठीक नहीं चल रही।

आरएसएस यह मानता रहा है कि बीजेपी को इस मुकाम तक पहुंचाने में आडवाणी का योगदान बेहद अहम है, लेकिन साथ ही यह आकलन भी है कि 2004 की हार के बाद से बीजेपी अगर पटरी पर नहीं आ पाई है, तो इसकी वजह आडवाणी का शीर्ष नेता के बजाए एक गुट के नेता के रूप में काम करना रहा है। यह कहा गया कि जिस आडवाणी को बतौर शीर्ष नेता दूसरी पीढ़ी के नेताओं के आपसी झगड़े सुलझाने चाहिए थे, वह एक गुट के नेता बन गए हैं।

आरएसएस पार्टी की कमान पूरी तरह से दूसरी पीढ़ी के नेताओं को देना चाहता है। उसकी कोशिश थी कि लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी जैसे दिग्गज नेता बजाए लोकसभा का चुनाव लड़ने के, राज्यसभा में जाएं, ताकि ये संदेश दिया जा सके कि वे अब सक्रिय राजनीति में नहीं, बल्कि पार्टी के मार्गदर्शक की भूमिका निभाएंगे।

कोशिश यह भी है कि आडवाणी और जोशी की सीटें यानी गांधीनगर और बनारस से नरेंद्र मोदी ही चुनाव लड़ें, ताकि पीढ़ी परिवर्तन का संदेश भेजा जा सके। साथ ही, मोदी के बनारस से चुनाव लड़ने से यूपी के साथ बिहार के भी कुछ हिस्सों में फायदा मिले। लेकिन आडवाणी और जोशी दोनों ने राज्यसभा जाने से इनकार कर आरएसएस की योजना को फिर नाकाम कर दिया।

गांधीनगर से ही चुनाव लड़ने का बयान देकर आडवाणी ने गेंद फिर संघ के पाले में डाल दी है। आडवाणी यह भी चाहते थे कि बृहस्पतिवार को जारी पहली सूची में ही उनका नाम घोषित कर दिया जाए, लेकिन पार्टी ने ऐसा नहीं किया।

मोदी के करीबी और उत्तर प्रदेश के प्रभारी महासचिव अमित शाह ने सार्वजनिक रूप से कह दिया कि वह खुद और पार्टी की राज्य इकाई चाहते हैं कि मोदी यूपी से चुनाव लड़ें। यानी इस विवाद पर अंतिम शब्द अभी कहा जाना बाकी है, पर इतना साफ दिखता है कि बतौर नेता बीजेपी को फर्श से अर्श तक पहुंचाने वाले आडवाणी बगावती तेवर दिखाकर पार्टी का कम और स्वयं की छवि का नुकसान ज्यादा कर रहे हैं।


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