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This Article is From Jun 11, 2016

लिएंडर पेस... जो देश का प्यारा है, वो साथियों का दुलारा क्यों नहीं?

Shailesh Chaturvedi
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जून 11, 2016 19:12 pm IST
    • Published On जून 11, 2016 19:11 pm IST
    • Last Updated On जून 11, 2016 19:12 pm IST
1989 से 1990 के कुछ महीनों के भीतर भारतीय खेल जगत ने तीन खिलाड़ियों का आगमन देखा था। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर वे उतरे। धनराज पिल्लै, सचिन तेंदुलकर और लिएंडर पेस- इन तीनों खिलाड़ियों के बारे में कहा जाता है कि मानो वे तिरंगा ओढ़कर खेलते हैं। डेविस कप के दौरान राष्ट्रगान और फहराते तिरंगे के बीच लिएंडर की आंखों में आंसू अक्सर देखे गए हैं। सचिन अपने हेलमेट पर तिरंगा लगाकर खेलते रहे हैं। धनराज पिल्लै की भी सोच ऐसी रही है। इन तीनों का ही करियर काफी लंबा रहा है। धनराज और सचिन तो अब रिटायर हो चुके हैं, लेकिन लिएंडर खेल रहे हैं और जीत भी रहे हैं। तीनों में खेल की भूख गजब की रही है। तीनों अपने-अपने खेल में देश के बेहतरीन खिलाड़ी कहे जाते रहे हैं। लेकिन तीनों पर कभी न कभी 'सेल्फिश' होने के आरोप भी लगे।

अपने ही साथियों की नापसंदगी के मामले में लिएंडर पहले नंबर पर हैं। दरअसल 'सेल्फिश' होने के वो आरोप ही हैं, जिन्होंने लिएंडर को अपने ही साथियों से दूर किया है और जिसकी वजह से उनके साथी साथ खेलने को तैयार नहीं होते। शुरुआत महेश भूपति से ही हुई थी। जो स्वीकार नहीं कर पाए कि लिएंडर उनसे बड़े खिलाड़ी हैं। और लिएंडर के लिए यह मानना आसान नहीं कि अगर एक जोड़ी खेल रही है, तो उसमें वो नंबर एक नहीं हैं। उनकी यह सोच दूसरे खिलाड़ी के लिए मानना मुश्किल होता जाता है। चाहे वो भूपति हों, सानिया, सोमदेव देववर्मन, रोहन बोपन्ना या और कोई।

लिएंडर की सोच और उसकी वजह से नापसंदगी का स्तर इतना बढ़ गया कि रोहन बोपन्ना ने चोटिल साकेत मैनेनी को चुनने का फैसला किया। यह जानते हुए कि अभी तक साकेत पूरी तरह फिट नहीं हैं। वापसी के बाद उन्होंने कुछ खास नहीं किया है, जबकि लिएंडर ग्रैंड स्लैम जीतकर आए हैं। इसीलिए टेनिस संघ ने उनकी सोच से अलग फैसला किया।

टेनिस संघ का फैसला है लॉजिकल
भारतीय टेनिस संघ का फैसला बाहर बैठकर यकीनन लॉजिकल लग रहा है। टेनिस में अगर दो खिलाड़ी डबल्स के टॉप 50 में हों, तो उनका साथ खेलना ही लॉजिकल कहलाएगा। भारतीय टेनिस संघ यानी आइटा ने तय कर दिया कि रोहन बोपन्ना और लिएंडर पेस डबल्स खेलेंगे। बोपन्ना को यह समझना चाहिए कि अगर वो टॉप टेन में नहीं होते, तो भी लिएंडर के साथ मिलकर क्वालिफाई कर लेते। यहां तक कि रैंकिंग के लिहाज से उनकी जोड़ी एशिया में नंबर एक है, तो उन्हें कॉन्टिनेंटल कोटा भी मिल जाता। ऐसे में लिएंडर को स्कीम से बाहर किया नहीं जा सकता। टेनिस संघ के बाकी फैसलों के लिहाज से महिला डबल्स में कोई दुविधा नहीं थी। दुविधा मिक्स्ड डबल्स में भी नहीं थी, लेकिन तमाम लोग नियमों की जानकारी न होने की वजह से सस्पेंस बढ़ा रहे थे।

आखिर क्यों हैं लिएंडर से नाराजगी
चार साल पहले लंदन ओलिंपिक में भी कोई लिएंडर के साथ नहीं खेलना चाहता था। चार साल बाद भी सोच नहीं बदली। इतने लंबे करियर और इतना कुछ हासिल करने वाले खिलाड़ी के साथ क्या ऐसा होना सही है? क्या माना जाए इसे। खिलाड़ियों का गैंग-अप होना? जहां एक का बहिष्कार करने की कोशिश हुई। हमेशा से महेश भूपति बाकी खिलाड़ियों की पसंद रहे हैं। इसे ग्लोबोस्पोर्ट से भी जोड़कर देखा जा सकता है, जो भूपति की कंपनी है। इसके साथ खिलाड़ी जुड़ते रहे हैं, लेकिन इस बार ऐसा नहीं है।

लिएंडर से नाराज खिलाड़ी हमेशा से मानते रहे हैं कि लिएंडर भरोसे लायक नहीं हैं। वो मानते रहे हैं कि अपने फायदे के लिए लिएंडर कभी भी किसी की भी बलि चढ़ा सकते हैं। वो कभी किसी खिलाड़ी के लिए खड़े नहीं होते, जब तक उनका फायदा न हो। वो झूठे हैं। उनके लिए खुद के अलावा और कोई मायने नहीं रखता। दरअसल सिर्फ अपने बारे में सोचना और खुद को बाकियों से बेहतर मानना एक वजह है, जिसने लिएंडर को कोर्ट में इतनी कामयाबियां दी हैं। वरना कोर्ट में चपलता और अच्छी वॉली जैसे कुछ शॉट्स छोड़ दिए जाएं तो बड़ा खिलाड़ी बनने कि लिए जिन बातों की जरूरत होती हैए वो उनमें नहीं हैं। न बड़ी सर्विस, न बड़े ग्राउंड स्ट्रोक्स। इसके बावजूद उन्होंने इतनी कामयाबियां पाई हैं, तो यह उनका खुद को लेकर रवैया ही है, जिसमें बाकियों की अनदेखी होती है।

ऐसे कुछ आरोप धनराज पिल्लै पर भी लगे। सचिन तेंदुलकर पर स्टैंड न लेने और अपनी पोजीशन के साथ कोई समझौता न करने के आरोप लगे। लेकिन यह कम लोग ही कहते हैं कि वो साथी खिलाड़ियों की मदद नहीं करते। यहीं शायद लिएंडर बाकी दोनों से अलग जा खड़े होते हैं। उन्हें बाकी दोनों से कम पसंद किया जाता है।

अपने से जूनियर खिलाड़ी को कप्तान बनाए जाने पर एक बार धनराज पिल्लै ने टिप्पणी की थी। उन्होंने कहा था, 'ये अपने नाती-पोतों को बताएगा कि मैं उस टीम का कप्तान था, जिसमें धनराज पिल्लै खेलता था।' सचिन तेंदुलकर का बैटिंग ऑर्डर बदलना किस कदर मुश्किल रहा, सब जानते हैं। आखिरकार कप्तान सौरव गांगुली को हार माननी पड़ी। लिएंडर पेस के बारे में भी उनके आलोचक यही कहते हैं। चर्चा उनसे शुरू होकर उन पर ही खत्म होती है। जहां लिएंडर हों, वहां सारे फैसले लिएंडर के होते हैं। उन्हें हर जगह चीजों को अपने पक्ष में मोड़ने का महारथी कहने वाले कम नहीं हैं। धनराज, सचिन और लिएंडर के बीच एक फर्क है। धनराज और सचिन के साथ खेले खिलाड़ियों को उनसे नाराजगी हो सकती है, लेकिन वो हमेशा दोनों को टीम में देखना चाहेंगे। लिएंडर को उनके साथी टीम में नहीं देखना चाहते। न साथ खेलना चाहते हैं।

अपनी नाराजगी से बड़ा है देश का सम्मान
लेकिन अभी मामला अपने या साथी के सम्मान का नहीं, देश के सम्मान का है। चार साल पहले भी यही ड्रामा हुआ था। तब फर्क था कि पेस, भूपति और बोपन्ना तीनों की रैंकिंग अच्छी थी। इस बार सिर्फ बोपन्ना टॉप टेन में हैं। लेकिन नापसंदगी की हद देखिए कि बोपन्ना ने अच्छी तरह समझते हुए भी कि पेस ही इस वक्त उनकी सबसे अच्छी पसंद हो सकते हैं, अपनी प्राथमिकता में उन्हें नहीं रखा। यह जानते हुए कि लिएंडर के पास छह ओलिंपिक का अनुभव है, ओलिंपिक पदक है, 18 ग्रैंड स्लैम का अनुभव है। लेकिन ये सब पेस की नापसंदगी में बोपन्ना ने अनदेखा कर दिया। उन्होंने पेस के खेल को अपने मनमुताबिक नहीं बताया है। लेकिन बोपन्ना को याद होगा कि सर्बिया के खिलाफ डेविस कप में इन्हीं लिएंडर पेस के साथ खेलते हुए दो सेट हारने और तीसरे में सर्विस ब्रेक होने के बावजूद वो मैच जीते थे।

अब बोपन्ना को समझना होगा कि नाराजगी का वक्त निकल गया। एक पदक उन्हें भारतीय खेलों के इतिहास में वो जगह दे सकता है, जो कभी नहीं मिटेगी। दो महीने भी नहीं बचे। बहुत मुश्किल है ऐसे खिलाड़ी के साथ जोड़ी बनाना, जिसे आप पसंद नहीं करते। लेकिन प्रोफेशनल होना इसी को कहते हैं। एक-दूसरे से बात न करते हुए भी लिएंडर और महेश भूपति ने डेविस कप में तमाम मैच जीते हैं। यहां दोनों को 'सेल्फिश' होने की जरूरत है। अपनी बेहतरी सोचना ही इस समस्या से निकाल सकता है।

...तो यही उम्मीद है कि 36 साल के बोपन्ना, 43 साल के लिएंडर के साथ अपनी नाराजगी खत्म करेंगे। लिएंडर के खेल के जज्बे को देखकर तो आप पूरे भरोसे से नहीं कह सकते कि वो अगला ओलिंपिक नहीं खेलेंगे। लेकिन बोपन्ना का शायद आखिरी ओलिंपिक होगा। उसे यादगार बनाने का एक ही तरीका है। नाराजगी भुलाना। कहना आसान है, करना मुश्किल। लेकिन ओलिंपिक पदक की उम्मीदों को बढ़ाने के लिए मुश्किल चीजें करनी ही होंगी।

(शैलेश चतुर्वेदी वरिष्‍ठ खेल पत्रकार और स्तंभकार है)

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं। इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति एनडीटीवी उत्तरदायी नहीं है। इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं। इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार एनडीटीवी के नहीं हैं, तथा एनडीटीवी उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है।

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