दिल्ली में एक गांव है लाडो सराय। यह गांव अब शहर बन चुका है। कच्ची गलियों को सीमेंट से ढाल दिया गया है और नीचे नाले का पानी जाम होता है तो घरों में रिस कर आने लगता है। लाडो सराय पहुंचते ही हमारी व्यवस्था की त्रासदी नजर आने लगती है। चंद रोज पहले यहां डेंगू के कारण एक सात साल के बच्चे अविनाश की मौत हो गई थी। खबरों के मुताबिक अविनाश के पिता लक्ष्मीचंद्र और मां बबीता उसे लेकर कई अस्पतालों में गए लेकिन कई जगहों से मना कर दिया गया। देरी होने के कारण अविनाश को नहीं बचाया जा सका। इस सदमे में बबिता और लक्ष्मीचंद्र ने बिल्डिंग से कूद कर अपनी जान दे दी। इस खबर को पढ़ते हुए मैं खुद को सामान्य नहीं रख पाया। आप जितना सोचिए कि यह अपवाद रहा होगा, लेकिन उतना ही मां बाप की बेबसी आंखों के सामने नाच रही थी। मैं जब लाडो सराय पहुंचा तो तीन-तीन मौत के बाद गलियों में समाज और सिस्टम की त्रासदी नजर आ रही थी, जिसने आक्रोश से भर दिया।
लगे कि लाडो सराय की कभी उपेक्षा नहीं हुई है... प्रवेश द्वार पर ही बने कूड़ा घर के बाहर चूने की लाइन बना दी गई थी। जिससे मीडिया को लगे कि यहां साफ-सफाई होती है। काश ऐसा ही पूरी दिल्ली या किसी भी शहर के साथ होता। तीन-तीन मौत के बाद सिस्टम की यह नौटंकी और परेशान करने वाली थी। गांव के भीतर की दीवारों पर डेंगू से बचने के उपायों वाले पोस्टर लगा दिए गए थे। लोगों ने बताया कि यहां से लाश जाते ही एम सी डी वाले आ गए और पोस्टर लगा गए। पहले नहीं लगाया था। मेरी निगाह एक ऐसे ही पोस्टर पर पड़ी। जनवरी से लेकर सितंबर तक की तारीख लिखी हुई थी। किसी को भी दिख सकता है कि सारी तारीखें एक ही पेंसिल, एक ही लिखावट और एक ही रोज लिखी गईं हैं। जनवरी की लिखावट सितंबर की लिखावट की तरह क्यों नई दिखेगी। कुछ तो रंग में फर्क आना चाहिए था।
सिस्टम का हरकत में आना अच्छा है लेकिन इस तरह सफाई अभियान की तारीखों को लिख कर जाना किसी भी मायने में निर्लज्जता से कम नहीं है। लोगों ने बताया कि पहले फोगिंग हुई नहीं, अब जाकर फोगिंग भी हुई है। गांव से बाहर आने पर लोगों ने दिखाया कि सड़क के किनारे शौचालय बनने लगा है। मजदूर तेजी से काम कर रहे थे। गांव वालों ने कहा कि यह मीडिया के डर से शौचालय बन रहा है। लोगों को दिखाने के लिए। इसके पहले गांव के आस पास कहीं भी सार्वजनिक शौचालय नहीं है। हमें खुले में शौच करना पड़ता है। लाडो सराय के पास एक अच्छा सा पार्क है। बच्चों के लिए बने इस पार्क को मौजूदा सिस्टम के लिहाज़ से काफी अच्छा ही कहा जाएगा। इस पार्क में बायो शौचालय बना हुआ था। उसे देखने चला गया। शौचालय की हालत बदतर हो चुकी थी, कोई रखरखाव नहीं। वहां मच्छरों ने राज कायम कर लिया था।
इसके बाद गांव वालों ने दिखाया कि राष्ट्रमंडल खेलों के दौरान सड़क के किनारे कमरे बनाए गए थे। उनकी जानकारी में यह बात थी कि इसमें बिल वगैरह जमा करने के काउंटर खुलेंगे लेकिन वह अभी तक बंद पड़ा है। चारो तरफ कचरा जमा हो गया है। पास में एक और ऐसा कमरा बना हुआ है। उसका दरवाजा पीछे से खुला हुआ था। अच्छी लाइट लगी थी। जरूर इसके लिए सरकार का लाखों रुपया बर्बाद हुआ होगा और वह बिना किसी काम का फुटपाथ पर पड़ा हुआ है।
यह है हमारे मुल्क की तस्वीर। ऐसा क्या है कि तमाम राजनीतिक बदलावों के साथ नीचे का सिस्टम नहीं बदलता है। जो जहां है वह अपना न्यूनतम काम नहीं करता है। अगर सिस्टम काम करने वाला होता तो सड़क किनारे बने यह दोनों कमरे बेकार नहीं होते। सर्दी के दिनों में ही गरीबों के लिए रैन बसेरे के काम कर सकते थे। यह सारी तस्वीरें हताशा पैदा करने वाली हैं। इसे एम सी डी बनाम दिल्ली सरकार, दिल्ली सरकार बनाम केंद्र सरकार करते-करते हम थक जाएंगे। सारा कुछ सुलझ जाएगा तब भी यह हकीकत नहीं बदलने वाली है। क्या यह शर्मनाक नहीं है कि जिस जगह पर तीन लोगों की मौत हुई हो उस जगह पर अपनी छवि बचाने के लिए एम सी डी लीपापोती कर रही है।
This Article is From Sep 14, 2015
लाडो सराय : लीपापोती के बीच से झांकता सिस्टम का निर्लज्ज चेहरा
Ravish Kumar
- ब्लॉग,
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Updated:सितंबर 14, 2015 19:59 pm IST
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Published On सितंबर 14, 2015 19:46 pm IST
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Last Updated On सितंबर 14, 2015 19:59 pm IST
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