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This Article is From Oct 25, 2016

केंद्रीय विद्यालय के सिलेबस में अगड़ों-पिछड़ों पर चैप्टर किसने डाला?

Kranti Sambhav
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अक्टूबर 25, 2016 09:35 am IST
    • Published On अक्टूबर 25, 2016 09:31 am IST
    • Last Updated On अक्टूबर 25, 2016 09:35 am IST
मैं उस केंद्रीय विद्यालय को नहीं पहचान पाया जिसका वीडियो थोड़े दिनों पहले देखा. बिहार के मुजफ्फरपुर से आया था वह वीडियो जिसमें कुछ छात्र एक छात्र को पीट रहे थे. स्कूलों में छिटपुट लड़ाईयां या मारपीट होती रहती हैं. पर इनके पीछे वजहों का रेंज पेंसिल या इंस्ट्रुमेंट बॉक्स के टूटने से शुरू होकर गर्लफ्रेंड-ब्वॉयफ्रेंड तक जाता था. पर उस वीडियो में पिटाई की वजह कुछ और रही. पिटने वाला छात्र दलित था. पीटने वाले छात्रों पर आरोप है कि वे साल भर से उस दलित छात्र को पीट रहे थे. अक्सर उसके मुंह पर थूकते थे. समाज में विकृति और हिंसा बढ़ी है, परिवारों में बढ़ी है और बच्चों में भी यह बढ़ी है. पर इस वीडियो ने कई स्तर पर मुझे बुनियादी सवालों से रूबरू करवा दिया.

पहचाना मैंने उस केंद्रीय विद्यालय को भी नहीं था, जब वहां से निकलने के कई साल बाद, एक स्टोरी के सिलसिले में अपने पुराने स्कूल गया था. सीबीएसई  के नतीजों में शानदार प्रदर्शन था केंद्रीय विद्यालय संगठन का और स्टोरी यही थी. स्कूल जाने पर पता चला कुछ साल पहले जिस स्कूल को छोड़कर निकला था वह कितना बदल चुका था. पानी टंकी की जगह टेनिस कोर्ट, जहां हम ब्रेड पकोड़े के लिए लाइन लगाते थे वहां पर स्विमिंग पूल बन चुका है. जहां लड़कियां एलास्टिक से कोई गेम खेला करती थीं वहां पर क्रिकेट के नेट लगे थे. पता चला कि कुछ  केवी(केंद्रीय विद्यालय) में तो घुड़सवारी भी सिखाई जाती है. केंद्रीय विद्यालय संगठन के अधिकारियों ने बताया कि गर्मी की छुट्टी के दौरान हज़ारों केवी छात्र किसी न किसी कैंप के लिए अपने शहरों से बाहर हैं. यह सब मेरे लिए अकल्पनीय था, रोमांचक था. मेरे वक़्त में अभाव था. कमियां थीं. इंफ़्रास्ट्रक्चर का. खेल के सामानों का. टेबल-कुर्सी का. बिजली का. बास्केटबॉल कोर्ट में बास्केट का.

पहचान तो मैं उस केंद्रीय विद्यालय को भी नहीं पाया था जिसके बच्चे भूरे और थोड़े लाल या कुछेक और गाढ़े रंग के चेक डिज़ाइन वाले कपड़े पहने दिखे थे. मैं जिस स्कूल को जानता था वह सफ़ेद शर्ट और नीली पैंट वाला था. काले जूते होते थे. हफ़्ते में एक दिन सफ़ेद पैंट और सफ़ेद जूतों का होता था. हममें से बहुत  से  केवी छात्र पब्लिक स्कूलों के छात्रों से यूनिफ़ॉर्म को लेकर मद्धम सी कुंठा रखते थे. आज की भाषा में कहें तो कई पब्लिक स्कूलों के यूनिफॉर्म डिजाइनर लगते थे. पर हमारे यूनिफॉर्म की सादगी एक फिलॉसफी जैसी थी. केवी की सबसे बड़ी खूबी थी कि यहां हर स्तर के सरकारी नौकरों के बच्चे एक साथ पढ़ते. बड़ा बाबू, छोटा बाबू के बच्चे, गैजेटेड अफसर और चपरासी के बच्चे. सबके लिए केवी एक कॉमन ग्राउंड था. यह  प्राथमिकता थी. पारिवारिक पृष्ठभूमि से उपजी कुंठा या दंभ के लिए यहां गुंजाईश बहुत कम थी. हमारे इंटरऐक्शन में, दूसरे छात्रों से बर्ताव में वर्ग भेद बहुत सीमित था. स्कूल की बाउंड्री के बाहर एंबैसडर कार और डीटीसी का अंतर स्कूल के अंदर चल कर नहीं आता था. क्लास में पिता के पद को लेकर किसी की धाक या किसी की बेइज्जती नहीं होती थी. मुझे याद नहीं आता कि सरनेम को लेकर हमारी कोई गहन चर्चा हुई हो. जन्म, जाति और सरकारी क्वार्टर एक तात्कालिक सच्चाई थे. दीर्घकालिक सच्चाई सिर्फ हमारे चैप्टर, यूनिट टेस्ट, टीचर की ज्यादतियां और आने वाली परीक्षाएं थीं.

मुजफ्फरपुर वाली घटना ने मुझे इस वजह से भी झटका दिया कि हमारे वक्त के टीचर पढ़ाने में चाहे जैसे भी हों छात्रों से ऐसे अनजान, बेजार नहीं रहते थे. किसी छात्र को साल भर से कोई ऐसे परेशान कर रहा हो और शिक्षकों ने ऐसे नजरअंदाज किया, यह चौंकाने वाला है. स्कूलों में कुंठित शिक्षकों का होना अपवाद नहीं लेकिन बच्चों के लिए एक बुनियादी संवेदना जरूर थी. पढ़ाई को लेकर जैसी भी कड़ाई हो, पर बटन अगर सफेद की जगह काले हो जाएं, सिलाई लाल रंग के धागे से हो जाए तो टीचरों की मौन अनुमति देखी थी, वे ऐसे सफ़ेद शर्ट को भी काफ़ी मानते थे. फिर यह वो वक्त भी था, जब समाज में बराबरी एक आदर्श भी था और एक रियैलटी भी लगती थी. सोचने पर यह भी लगता है कि किसी बड़े कंपनी के सीईओ और चाय वाले दादा दोनों से मैं स्वाभाविकता से बात, शायद इसी वजह से कर पाता हूं कि केवी में पढ़ा था.  

पर अब मन में सवाल उठ रहा है कि मैं अगर आज का छात्र होता तो क्या इतनी निरपेक्षता से किसी इंसान से मिल पाता? या फिर पहले यह देखता कि उसका सरनेम क्या है, उसके पिता का नाम क्या है? जाति क्या है? अगड़ा है या पिछड़ा? किस कैटगरी में आता है ? सवर्ण है या अवर्ण है ?

आज का छात्र होता तो क्या ऐसी व्यवस्था में पढ़ रहा होता जहां पर बराबरी के सपने की लड़ाई में हथियार डाल दिए गए हैं? जब सामाजिक बराबरी म्यूटेट करके सिर्फ राजनैतिक जुमला हो चुका है? एक मिथक हो गया है? क्या मैं रिपोर्ट कार्ड की जगह कास्ट सर्टिफिकेट पर अपने सहपाठी को आंकता? क्या मेरे मित्र भी पीरियोडिक टेबल की जगह मनु और माया पर बहस कर रहे होते? रणवीर सेना और माले पर बयानबाजी कर रहे होते?

एक सवाल यह भी मन में आया कि क्या मैं और मेरे सहपाठी क्या इस वजह से इस चर्चा से निरपेक्ष थे क्योंकि हम दिल्ली में थे? प्रवासियों के शहर में? क्या इसलिए कि मदनलाल खुराना, शीला दीक्षित केवल जाति पर वोट नहीं मांगते थे? या वाकई  हमारे परिवारों में जाति को लेकर मूर्खता नहीं भरी थी, और उन्होंने हमारे दिमाग को जहर से नहीं भरा था? या फिर नितिन गडकरी का ऑब्जर्वेशन सही था, जो सबको चुभ गया था कि बिहारियों के डीएनए में ही कास्टिज्म है?

आखिर वह कौन सा साल था जब से स्कूलों में सेकेंड नेम फर्स्ट हो गया? और यह तय किसने किया? परिवारों ने या नेताओं ने? ये फ्लोचार्ट किसने तय किया कि आरक्षण के समर्थन और विरोध में पहले छात्रों को भिड़ाया जाएगा, फिर दो दशक के बाद अगड़ों को आरक्षण देने की मुहिम चलाई जाएगी? जाति व्यवस्था को मिटाने के नाम पर जातियों की आइडेंटिटी को इतना गाढ़ा कर दिया जाएगा कि हम एक दूसरे को जाति से ही पहचानेंगे?

फिर यह सवाल उठता है मन में कि मेरी पीढ़ी जाति-व्यवस्था को लेकर डिनायल में थी या मेरी पीढ़ी ज़्यादा प्रगतिशील थी?

वैसे एक और सवाल मन में आता है जो डराता है. कहीं ऐसा तो नहीं कि उस वक्त में भी ऐसा ही होता था. एक लड़का पिटता था और मैं आज के सहपाठियों की तरह नजर फेर के आगे बढ़ जाता था और उस अपराध बोध को छुपाने के लिए अपने सहपाठियों और शिक्षकों की तारीफ करते हुए ब्लॉग लिख रहा हूं? कहीं स्मृतियों के साथ मैं धोखा तो नहीं कर रहा...

क्रांति संभव NDTV इंडिया में एसोसिएट एडिटर और एंकर हैं...

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