हम एक ऐसे समय में रह रहे हैं जहां सत्ता के लिए होने वाली तिकड़मों में कौटिल्य (चाणक्य) याद आते हैं. इसे और से ठीक से पढ़िए, 'सिर्फ' सत्ता के लिए होने वाली तिकड़मों में ही चाणक्य याद आते हैं. यह ठीक है कि चाणक्य (अपनी कूटनीति और कुटिलता के कारण जो कौटिल्य भी कहलाते हैं) सत्ता हासिल करने के लिए किसी भी तरक़ीब को सही मानते थे लेकिन उन्हें सिर्फ यहीं तक सीमित कर देना बहुत बड़ी नादानी/मूर्खता होगी. जो भी उन्हें नकारेगा या उन्हें हिस्सों में अपनाएगा, परिणाम भोगने होंगे. इससे पहले कि हम चाणक्य नीति पर आएं, आइए एक बार सरसरी निगाह से उनसे जुड़े इतिहास को देख लें.
जिस तरह 'समुद्रगुप्त को भारत का नेपोलियन' कहा जाता है, ठीक इसी तरह 'आचार्य चाणक्य' को पश्चिमी विद्वानों ने 'भारत का मैकियावेली' कहा है. यहां यह कहने की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए कि यह तुलना समय के सिद्धांत के उलट जाती है. संभवतः पंडित नेहरू भी इन्हीं विद्वानों से प्रभावित थे. जबकि मैकियावेली के लिए नेहरू जी लिखते हैं; पंद्रहवीं-सोलहवीं शताब्दी का 'मामूली राजनीतिज्ञ' था लेकिन उसने 'द-प्रिंस' नामक मशहूर पुस्तक लिखी.
लगता है पश्चिमी विचारकों की तरह नेहरू जी भी इतिहास का उल्टा चक्र चलाते हुए न सिर्फ चाणक्य की महत्ता कम कर रहे बल्कि मैकियावेली कहकर चाणक्य को ऐनकेन प्रकारेण किसी भी कीमत पर सत्ता पाने वाला, धूर्त राजा का समर्थक ठहरा रहे हैं? लेकिन क्या वास्तव में ऐसा ही था? इसका उत्तर हम दो हिस्सों में देखेंगे.
अपनी किताब 'इनकार्नेशन्स' में सुनील खिलनानी लिखते हैं कि '1904-05 में जब अर्थशास्त्र की पांडुलिपि को खोजा गया तब (पश्चिमी) विद्वानों का मानना था कि प्राचीन काल से भारतीय तो सिर्फ धर्म-अध्यात्म में रत रहने वाले लोग हैं, जिन्हें राजनीति या समाजनीति से बहुत लेना-देना नहीं था. लेकिन जब कौटिल्य का अर्थशास्त्र सामने आया तो पूरी धारणा ही बदल गई. ठीक इसी साल जापान द्वारा रूस को मिली हार ने एशिया और यूरोप के भेद को भी पुनर्परिभाषित किया.'
यानी इन दोनों घटनाओं से इस बात को बल मिला कि न तो बौद्धिकता में और न ही शक्ति-बल के मामले में यूरोप अजेय है या उनके समकक्ष कोई दूसरा नहीं है. (इससे पहले यूरोप में अपनी श्रेष्ठता को लेकर एक दंभ था कि उनके समकक्ष कोई नहीं ठहरता, खासकर एशियाई तो कतई नहीं) चाणक्य और उस समय के भारत की सोच कहां तक जा सकती थी, यह हमें 'अर्थशास्त्र' से पता चलता है. चाणक्य न सिर्फ सत्ता हासिल करने पर जोर देते हैं बल्कि एक राज्य अच्छे ढंग से कैसे चलाया जाना चाहिए, इसे भी विस्तार से बताते हैं.
चाणक्य का राज्य एक शरीर है, जिसके 'सप्तांग' (सात अंग) हैं. सत्ता पाने के बाद शायद यही वो चीजें हैं, जिसकी हमें आवश्यकता अधिक है. चाणक्य राज्य में गुणी राजा तो सबसे प्रमुख है ही, साथ में वे गुणी मंत्रियों (अमात्य) पर भी उतना ही जोर देते हैं. चाणक्य ने गुणवान और बुद्धिमान व्यक्तियों को मंत्री बनाने की सलाह दी है न कि सहपाठियों, संबंधियों या चापलूसों की नियुक्ति होनी चाहिए. राजा को लेकर चाणक्य की अपेक्षा है कि उसे काम, क्रोध, लोभ, मान, मद तथा हर्ष से दूर रहना चाहिए. चाणक्य के अनुसार ये छः चीजें राजा की शत्रु हैं.
इन सप्तांग में एक महत्वपूर्ण अंग है 'जनपद', जिसमें जनसंख्या यानी लोग महत्वपूर्ण होते हैं. इसी अंग से चाणक्य 'जन-कल्याणकारी' राज्य की अवधारणा देते हुए लगते हैं. चाणक्य के राज्य का उद्देश्य व्यक्ति के विकास में पूर्ण मदद करना था. इसके लिए कौटिल्य सुदृढ़ अर्थव्यवस्था पर जोर देते हैं ताकि राज्य में रहने वाले अपने जीवन को सुधार सकें और लक्ष्यों की पूर्ति कर सकें. इस जन-कल्याण को हम उनके 'योगक्षेम' में देख सकते हैं. एक दूसरी किताब में (इसी राजनीति के संदर्भ में) योग-क्षेम को अलग-अलग करके, योग का मतलब जिसे राज्य द्वारा हासिल करना है, और क्षेम का मतलब जो हासिल है, उसकी रक्षा करने से बताया गया है.
आज की राजनीति में राजनैतिक दलों के घोषणा-पत्रों में तो ऐसे जनकल्याण के वादों का उल्लेख मिलता है लेकिन सत्ता पाने के बाद जनता का कल्याण बोझ (freebies) लगने लगता है. खासकर समाज का वह वर्ग जो सत्ता पाने के तमाम उल्टे-सीधे हथकंडों को चाणक्य का नाम देते नहीं थकता, वही वर्ग इसे टैक्स की बर्बादी बताने लगता है. निश्चित रूप से यहां भाजपा और उसके समर्थकों को चाणक्य से अधिक सीखने की आवश्यकता है क्योंकि वर्तमान में यही पार्टी राज्य-दर-राज्य चुनाव हारती जा रही है. (और उसके समर्थकों को पता होना चाहिए कि सिर्फ लोकसभा में प्रचंड बहुमत के बल पर महत्वपूर्ण कानून नहीं बनाए जा सकते)
इसी तरह जब अंतरराष्ट्रीय संबंधों/विदेश नीति की बात होती है तो 'शत्रु राज्य का शत्रु मित्र होता है' के सिद्धांत तक चाणक्य को सीमित कर दिया है, यही उनकी पहचान बना दी गई है. लेकिन यह सच्चाई का सिर्फ 1/12 (बाहरवां) हिस्सा है. क्योंकि 'अर्थशास्त्र' में कुल 12 तरह के पड़ोसी हैं. इन 12 में से सिर्फ दो शत्रुओं से राज्य को सीधा खतरा है और उनके बारे में 6 अलग-अलग सिद्धांत दिए हैं. इन 6 सिद्धांतों में सिर्फ एक सिद्धांत पड़ोसी (दूसरे राज्य) पर विजय प्राप्त करने के लिए युद्ध की सलाह देता है. शेष सिद्धांत सह-अस्तित्व या फिर सरंक्षण की बात करते हैं. अगर विदेश नीति के इन सिद्धांतों को घरेलू प्रांतों (आम बोलचाल में राज्य) के संदर्भ में लिया जाए तो यह सीख ली जा सकती है कि सत्ता चलाने के लिए हमेशा आक्रमण की मुद्रा में नहीं रहना चाहिए. न चाणक्य ने ऐसी सलाह दी है, न आधुनिक राजनेताओं को ऐसी आकांक्षा रखनी चाहिए.
पड़ोसी/प्रतिद्वंद्वी राज्यों से चाणक्य ने युद्ध का समर्थन सिर्फ इसलिए नहीं किया कि विरोधी हार जाए और और उसका विनाश हो जाए बल्कि युद्ध से राज्य की तरक्की होनी चाहिए. फिर चाणक्य अक्लमंद दुश्मन को कुचलने के बनिस्बत उसे अपना हिमायती बनाने के पक्षकार थे. दुश्मन जब हारने लगे तो उससे उदारता बरतने का निर्देश भी चंद्रगुप्त को चाणक्य ही देते हैं. चाणक्य के लिए लोगों के कल्याण के लिए विदेश-नीति सीधे जिम्मेदार थी. लोगों का कल्याण होगा, तभी राज्य शक्तिशाली होगा. यानी इसके उलट यह उम्मीद नहीं की जानी चाहिए कि राज्य के हित में व्यक्तियों को कष्ट उठाने चाहिए. इसका आशय है कि राज्य की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ रहे इसके लिए विभिन्न आर्थिक गतिविधियों को राज्य द्वारा प्रोत्साहन और संरक्षण दिया जाना चाहिए. और यह काम बिना 'योगक्षेम' (जन-कल्याण) के संभव नहीं है.
बहुत हद तक हमें अपने प्रश्न का उत्तर मिल गया है. लेकिन अभी भी कुछ शेष है. वह है नेहरू जी चाणक्य के बारे में और क्या सोचते थे? हालांकि नेहरू जी ने मैकियावेली से चाणक्य की तुलना की है लेकिन चाणक्य की भरपूर तारीफ भी करते हैं. 'डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया' में उन्होंने लिखा; 'अर्थशास्त्र के रूप में हमें ऐसी किताब मिली जिसे लिखने वाला न सिर्फ बहुत विद्वान था बल्कि उसने साम्राज्य को कायम करने, उसे तरक्की देने और उसकी हिफाजत में बहुत खास हिस्सा लिया था.' उन्होंने चाणक्य की विद्वता में स्वीकार करने में कोई कसर नहीं छोड़ी. नेहरू जी लिखते हैं; 'हर माने में चाणक्य मैकियावेली से बहुत बड़ा आदमी था, दिमाग में भी और काम में भी.'' अपना मकसद हासिल करने में शायद ही चाणक्य कभी पसोपेश में रहता हो. वह काफ़ी बेबाक था, साथ ही बुद्धिमान भी था और यह समझता था कि गलत जरियों से मकसद को ही नुकसान पहुंच सकता है.'
थोड़ा ठहरकर विचार करें तो यहां साधन और साध्य का भेद है, जिस पर चाणक्य साधन की पवित्रता पर भी बल दे रहे हैं. यही सिद्धांत बहुत बाद में गांधी जी द्वारा अपनाया जाता है. चाणक्य की प्रशंसा का यह क्रम सिर्फ पहले भाग तक सीमित नहीं है बल्कि अपनी दूसरी किताब 'विश्व इतिहास की झलक' में नेहरू जी मेगस्थनीज उनकी कृति 'इंडिका' की भूरी-भूरी प्रशंसा करते हैं लेकिन ठीक आगे चाणक्य के 'अर्थशास्त्र' को ज्यादा महत्वपूर्ण मानते हैं.
तो इस तरह न सिर्फ सत्ता पर विराजमान भाजपा और उसके सहयोगियों को सत्ता हासिल करने से आगे जाकर चाणक्य से राज्य-संचालन के सिद्धांतों पर ध्यान देने की आवश्यकता है बल्कि कांग्रेस भी जीते गए नए प्रांतों (राज्यों) में लोगों का कल्याण कर आने वाले समय में कुछ और नए राज्यों को जीत सकती है. जब जन-कल्याण पर दोनों में प्रतिद्वंदिता होगी, तभी चाणक्य नीति का सही रूप और उनका राज्य देखने को मिलेगा.
स्रोत: The ArthaShastra- Kautilya
संदर्भ: 1- Incarnations- Sunil Khilnani
2- भारतीय राजनीतिक चिंतन- रुचि त्यागी (दिल्ली विश्वविद्यालय से प्रकाशित)
(अमित एनडीटीवी इंडिया में असिस्टेंट आउटपुट एडिटर हैं)
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) :इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति NDTV उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं. इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार NDTV के नहीं हैं, तथा NDTV उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है.