दास्तानगोई कर्ण की, दास्तान हिंदुस्तान की

अब हम एक बेदख़ल-बेसबर दुनिया में रहते हैं जहां संगीत हमारे कॉलर ट्यून, रिंगटोन या अधिकतम इयरफोन तक सिमटा हुआ है, साहित्य वाट्सऐप की फूहड़ कविता तक और संस्कृति कुछ बेमानी-बेतुकी सी चीज़ बना दी गई है.

दास्तानगोई कर्ण की, दास्तान हिंदुस्तान की

दास्तानगोई का फ़न कभी महफ़िलों-मजलिसों की जान हुआ करता था. अब न मह़फ़िलें सजती हैं, न मजलिसें लगती हैं, न वे मोहल्ले-टोले- ठिकाने बचे हैं जहां गप हो, क़िस्से सुनाए-दुहराए जाएं और अपने-अपने मिज़ाज के हिसाब से बदले जाएं. ऐसी ही महफ़िलों-मजलिसों में दास्तानगोई बाक़ायदा एक विधा की तरह परवान चढ़ी. अब हम एक बेदख़ल-बेसबर दुनिया में रहते हैं जहां संगीत हमारे कॉलर ट्यून, रिंगटोन या अधिकतम इयरफोन तक सिमटा हुआ है, साहित्य वाट्सऐप की फूहड़ कविता तक और संस्कृति कुछ बेमानी-बेतुकी सी चीज़ बना दी गई है. कुछ फिल्में, कुछ फिल्मी गीत, कुछ टीवी सीरियल, कुछ क्रिकेट और कुछ ढेर सारा कचरा हमारा सांस्कृतिक ज़ेहन बनाते हैं. फास्ट फूड की तरह एक फास्ट कल्चर है जिसकी अपनी चमक-दमक है, लेकिन वह गमक नहीं जो तहज़ीब की लगातार सिंचाई-सिंकाई से पैदा होती थी.

इस उजड़ी हुई बेनूर दुनिया में कुछ लोग हैं जो पुराने ज़मानों को लौटाने, पुरानी विधाओं में नई जान फूंकने में लगे हैं. महमूद फ़ारूक़ी और उनकी टीम को ऐसे ही लोगों में गिना जा सकता है. उन्होंने दास्तानगोई को जैसे नई ज़िंदगी दी है. कुछ समय पहले तक यह कल्पना करना मुश्किल था कि कोई एक या दो लोग बैठकर घंटे-दो घंटे कहानी सुनाएं और लोग सुनते रहें. लेकिन अब नौबत यह है कि उनकी टीम जश्ने अदब में महफ़िल सजाए या अपना अलग कार्यक्रम करे, वहां बैठने की जगह नहीं होती.

इस शनिवार-इतवार को भी दिल्ली के इंडिया हैबिटेट सेंटर में बैठने की जगह नहीं थी. लोग महाभारत के कर्ण की दास्तान सुनने आए थे. कहते हैं, महाभारत वह महावृत्तांत है जिसके बाहर दुनिया में कुछ नहीं है. जो महाभारत में नहीं है, वह कहीं नहीं है. दूसरी बात यह कि महाभारत कहीं से नायकों और खलनायकों की कथा नहीं है, वह संशय में पड़े, अपनी हसरतों से घिरे, अपना-अपना युद्ध लड़ते सैकड़ों चरित्रों की दास्तान है जो मिलकर एक महाभारत लड़ते हैं.

इस महाभारत में कर्ण सबसे नाटकीय चरित्र है. सबसे बड़ा पांडव होने के बावजूद वह सबसे बड़े कौरव का दोस्त है, कुंती का बेटा होने के बावजूद सूतपुत्र कहलाने को अभिशप्त है और जीवन भर इस पीड़ा में जलता है कि लोग लोग उसके शौर्य और पुरुषार्थ नहीं, उसकी जाति के आधार पर उसका मूल्यांकन करते हैं. शायद उसके जीवन की यही विडंबना है जो उसे लेखकों-कवियों और उपन्यासकारों के लिए एक दिलचस्प चरित्र में बदलती है.

दिल्ली के हैबिटेट सेंटर में कर्ण की जो कथा कही गई- वह एक पूरी परंपरा से विकसित कथा थी- वह संस्कृत, अरबी, फ़ारसी, हिंदी, उर्दू, पंजाबी के अलग-अलग स्रोतों से जुटाए गए ब्योरों से बनी थी. कर्ण जैसे मिथकीय चरित्र को पेश करने की कुछ आसानियां हैं तो कुछ मुश्किलें भी हैं. एक जाने-पहचाने किरदार की बनी-बनाई छवि को आप अगर उसके दायरे से बाहर ले जाते हैं तो अलोकप्रिय या अव्याख्येय होने का जोखिम रहता है, लेकिन अगर आप उसको उसी दायरे में रखते हैं तो अप्रासंगिक होने का ख़तरा होता है- इस सवाल से घिरने का कि फिर कर्ण की कहानी कहने की ज़रूरत क्या थी.

महमूद फ़ारूकी ने तीसरा रास्ता चुना है. वे किसी नई व्याख्या के जोखिम में नहीं पड़ते, वे बनी-बनाई परिभाषाओं तक भी सीमित नहीं रहते- वे अलग-अलग परंपराओं-कथाओं को खंगालते हैं और वह मुकम्मल कर्ण निकाल लाते हैं जो अपने समय के हिसाब से भी विश्वसनीय है और हमारे समय के हिसाब से भी प्रासंगिक. वे व्यास और गणेश का प्रसंग याद करते हैं, गीता के कृष्ण का उल्लेख करते हैं, फ़ैज़ी और अबुल फ़ज़ल के महाभारत तक जाते हैं. पिछली सदियों के तोताराम शायान को भी चुनते हैं. पाकिस्तान के विद्वान ख़लीफ़ा अब्दुल हकीम की गीता को भी उद्धृत करते हैं. रामधारी सिंह दिनकर की 'रश्मिरथी' से अपनी दास्तान के महत्वपूर्ण हिस्से बनाते हैं और धर्मवीर भारती के 'अंधा युग' का भी इस्तेमाल करते हैं. इन सबके साथ रहीम और कबीर जैसे मध्यकालीन कवियों के साथ-साथ मीर, गा़लिब और इक़बाल जैसे उर्दू शायरों की पूरी परंपरा दास्तान के बीच छींटी-छौंकी हुई मिलती है.

कहना न होगा कि अगर इसके पीछे बहुत गहरा शोध नहीं तो अध्ययन ज़रूर है. सवाल है, इन सबका हासिल क्या है? एक तो बहुत कसी हुई कहानी जिसे महमूद फ़ारूक़ी ने अपने ख़ास अंदाज़ में पेश किया है. कई भाषाओं के बीच आवाजाही करते अमूमन उनकी ज़ुबान फंसती या लड़खड़ाती नहीं या शब्द अर्थ से महरूम नहीं होते. अरबी-फ़ारसी के कुछ अंशों के समझ में न आने के बावजूद उनका असर महसूस किया जा सकता है. यही बात संस्कृत के अंशों के बारे में भी कही जा सकती है. दूसरी बात यह है कि इस पूरी कहानी में कर्ण का एक किरदार उभरता है- बेशक, वही किरदार जो अब तक लोकस्मृतियों और ग्रंथों के साझा रसायन से तैयार हुआ है. वह ऊंची जातियों और राजसत्ता के पाखंड के विरुद्ध व्यक्तिगत पौरुष और पराक्रम का प्रतीक है. धीरे-धीरे वह दलितों और पिछड़ी प्रतिभा के हनन का भी प्रतीक बनता चला गया है. एकलव्य और कर्ण वे उदाहरण हैं जिनसे लोग बताते हैं कि कैसे प्रतिभाएं कुचली गई हैं. यह अनायास नहीं है कि 'रश्मिरथी' में दिनकर अंगूठे के दान का व्यंग्यपूर्वक उल्लेख करते हैं और महमूद जिन अंशों को चुनते हैं, उनमें से एक यह भी है.

बहरहाल, कर्ण के प्रतीक के साथ जो दूसरा संकट है, उस पर किसी की नज़र नहीं जाती. कर्ण एक स्तर पर टैगोर के 'गोरा' की याद दिलाता है. जीवन भर हिंदूवादी मूल्यों को श्रेष्ठ बताने वाला गोरा अंत में पाता है कि वह एक ईसाई दंपती की संतान है. जीवन भर अपने पिछड़े रहने का दंश झेलने वाला कर्ण असल में राजपुत्र है, सूर्यपुत्र है, क्षत्रियपुत्र है और उसका यह दैवी जन्म उसके हालात पर भारी है जो चुपचाप इस तथ्य की भी पुष्टि कर डालता है कि आप कहीं भी पलें, आपका ख़ून आपके तेज को बचाए रखता है. यह भी अनायास नहीं है कि पिछड़ों और दलितों के जो प्रतीक पुरुष हैं, उनमें कर्ण ही अगड़े तबके को सबसे ज़्यादा स्वीकार्य है.

बहरहाल, ऐसी किसी अलोकप्रिय व्याख्या की उम्मीद हमें महमूद से करनी भी नहीं चाहिए. धार्मिक मिथकों के इलाक़े ख़तरनाक होते हैं और वहां बहुत संभल कर जाना चाहिए- इसके सबक हमारे पास पर्याप्त हैं. महमूद ने अपनी कहानी के लिए जिस कर्ण को चुना है, उसमें भी हमारी सामाजिक व्यवस्था पर टिप्पणी करने की पर्याप्त गुंजाइश है और उन्होंने इस गुंजाइश का इस्तेमाल भी किया है. यह अलग बात है कि 'रश्मिरथी' या किसी दूसरी रचना से ख़ूब परिचित लोग कहीं इस कसक के साथ भी उठे कि काश ये हिस्से भी होते या दूसरे हिस्से होते, लेकिन एक रचना के भीतर यह कसक पैदा करने की खूबी भी उसकी ताकत होती है.

लेकिन इस पूरी दास्तान का एक और बड़ा मतलब है. जितनी तरह की बहुभाषी, बहुसांस्कृतिक सामग्री महमूद फ़ारूकी ने अपनी दास्तानगोई के लिए इस्तेमाल की है, वह बताती है कि इस देश के सांस्कृतिक तार कितने मज़बूत हैं. हमारे समय में लगातार बढ़ती टूटन के बीच इस तार को पहचानना ज़रूरी है. महमूद फ़ारूक़ी असली काम यही करते हैं. वे हमारी पुराकथाओं को भाषिक शुद्धतावाद की जकड़न से बाहर लाते हैं, याद दिलाते हैं कि वे किसी एक परंपरा या धर्म की धरोहर नहीं हैं, उनमें सदियों की साझा स्मृति का पानी मिला हुआ है. एक प्राचीन कहानी को मध्यकालीन संवेदना से जोड़ते हुए वे बिल्कुल आधुनिक समय तक ले आते हैं. दुर्भाग्य से हमारे समय की विडंबनाएं किसी भी दूसरे समय से ज़्यादा हैं. ग्लोबल होती दुनिया में हम जैसे लगातार छोटे हुए जा रहे हैं- ख़यालों की जकड़बंदी में इस कदर बंधे कि न बाहर देखने को तैयार होते हैं न नया कुछ स्वीकार करने को. ख़ास कर पिछले कुछ वर्षों में हिंदुस्तान जैसे अपने ही चाकू से अपना सीना चीरने पर आमादा है- खानपान से लेकर पहचान तक को बिल्कुल हिंसक ढंग से परखने-तौलने और मिटाने पर उतारू.

इस दुनिया में एक शाम एक ऐसी दास्तान सुनते कटे जिसमें हिंदुस्तान की कई सदियों की आवाज़ें-अनुगूंजें शामिल हो जाएं तो यह छोटी बात नहीं है. इस मोड़ पर यह कहानी कर्ण की नहीं रह जाती, उस हिंदुस्तान की हो जाती है जो कर्ण या महाभारत की स्मृति को अलग-अलग दौर में तरह-तरह से बचाता हुआ यहां तक ले आया है और अब भी इसमें अपने हिस्से की रोशनी खोज ले रहा है.

प्रियदर्शन एनडीटीवी इंडिया में सीनियर एडिटर हैं

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