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This Article is From Apr 25, 2016

CJI ठाकुर का दर्द, जस्टिस भगवती की किताब और न्याय से एक 'मुलाक़ात'

Kalpana
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अप्रैल 25, 2016 13:02 pm IST
    • Published On अप्रैल 25, 2016 11:36 am IST
    • Last Updated On अप्रैल 25, 2016 13:02 pm IST
रविवार को प्रधानमंत्री मोदी ने अपने 'मन की बात' कही और फिर दोपहर में मुख्य न्यायाधीश टीएस ठाकुर एक कार्यक्रम में पीएम के सामने अपने 'मन की बात' कहते हुए रो पड़े।  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सामने जस्टिस ठाकुर ने कोर्ट में जजों की संख्या कम और लाखों मामलों के बोझ पर भर्राए गले से अपनी बात रखी। आमतौर पर हमें जजों के जीवन, उनके काम करने की शैली, उनके काम की चुनौतियों के बारे में बहुत कुछ जानने को नहीं मिल पाता। सामने आता है तो अखबारों और टीवी पर उनके सुनाए फैसले, आदेश और निर्देश या फिर फिल्मों में वकीलों की बहस के बीच जज का 'ऑर्डर ऑर्डर' कहना।

खैर, इसे संयोग ही कहेंगे कि जस्टिस ठाकुर की ख़बर आने से कुछ दिन पहले ही मैंने एक किताब खत्म की जिसका नाम है - My Tryst With Justice. यह भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश पी एन भगवती की आत्मकथा है। काफी दिनों से इसे पढ़ने के बारे में सोच रही थी, खासतौर पर इसलिए क्योंकि जस्टिस भगवती ही वह जज हैं जिनकी अगुवाई में भारत में 'जनहित याचिका' जैसे नवीन प्रयोग को जगह मिल पाई थी। 60 के दशक में जस्टिस भगवती गुजरात हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस रहे और फिर 70 के दशक में उन्हें सुप्रीम कोर्ट का जज नियुक्त किया गया और फिर 1985 में वह देश के मुख्य न्यायाधीश चुने गए। सुप्रीम कोर्ट में अपने कार्यकाल के दौरान ही जस्टिस भगवती ने बाकी जजों के साथ मिलकर जनहित याचिका की धारणा पर काम किया।
 

इस आत्मकथा में जस्टिस भगवती ने अपने बचपन से लेकर रिटायरमेंट के बाद तक के सफर की बात कही है। लेकिन मुझे किताब का वह हिस्सा सबसे ज्यादा दिलचस्प लगा जिसमें उन्होंने अपने उन फैसलों के बारे में बताया जो भारतीय समाज के लिए मील का पत्थर साबित हुए। जैसे कि 1972 में जब वह गुजरात हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस थे, उस दौरान उनके पास एक केस आया था जिसमें सरकार द्वारा गुजराती किताब 'माओ त्से तुंग के वक्तव्य' पर प्रतिबंध लगाने को चुनौती दी गई थी। भगवती बताते हैं 'मैंने सरकार के इस प्रतिबंध को असंवैधानिक बताया और ऐसा पाया कि यह सरकार नहीं लोग तय करेंगे कि उन्हें वामपंथ या माओ त्से तुंग के फलसफे में यकीन करना है या नहीं।'

इस मामले में जस्टिस भगवती ने जो फैसला सुनाया था. वह मौजूदा दौर में काफी प्रासंगिक है, उन्होंने कहा था 'मेरा ऐसा मानना है कि इन वक्तव्यों को 'देशद्रोही' कहते हुए खारिज कर देने का मतलब है, ज्ञान के दरवाज़ों को बंद कर देना। एक ऐसे फलसफे का सिर्फ इसलिए बहिष्कार कर देना क्योंकि वह समाज के पोषित नियमों को चुनौती देता है और जीवन जीने के एक नए तरीके को अपनाने की बात कहता है। वह तरीका जो उन मौजूदा तरीकों से अलग है जिसके लोग आदी हो चुके हैं।' मुख्य न्यायाधीश ने ज़ोर दिया कि 'यह सरकार नहीं लोग तय करेंगे कि उनके लिए क्या सही है, क्या गलत और वह अपने विवेक और बुद्धिमानी से सही फैसला ले सकें इसके लिए जरूरी है कि सभी तरह के विचारों का खुला प्रचार हो सके।' जस्टिस भगवती का यह फैसला जनता को 'छोटा और नादान बच्चा' समझने की सरकार की सोच को खारिज करता है।

और फिर जब जस्टिस भगवती ने सुप्रीम कोर्ट में कार्यभार संभाला तब उन्होंने जनहित याचिका (PIL) के ज़रिए गरीबों तक उस न्याय को पहुंचाने का रास्ता खोला जो अभी तक अमीरों की बपौती बना हुआ था। भगवती लिखते हैं कि सुप्रीम कोर्ट बनने के तीन दशक बाद तक मूलभूत अधिकारों के लिए सर्वोच्च न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाने का हक़ सिर्फ रसूख़दारों के पास था। भारत की ज्यादातर जनसंख्या ने कोर्ट के गौरव और महिमा के बारे में सुना तो बहुत था लेकिन उसके न्याय का स्वाद कभी चखा नहीं था। जागरुकता और दृढ़ता की कमी, ऊपर से संवैधानिक और कानूनी हक़ को पाने के तरीकों तक गरीबों की पहुंच ही नहीं थी, ऐसे में कमज़ोर वर्ग के लिए कोर्ट से उम्मीद रखना बेकार की बात थी। यह 'मुकदमे का खेल खेलना' सिर्फ पैसैवालों के बस की ही बात थी।

अपनी न्यायिक सक्रियता (judicial activism) के लिए लोगों के बीच पहचाने जाने वाले जस्टिस भगवती बताते हैं कि उन्होंने सुप्रीम कोर्ट की एक बेंच का प्रतिनिधित्व करते हुए यह पाया कि जरूरी है कि कोर्ट अपने परंपरावादी नियम से थोड़ा अलग हटकर न्याय को ज्यादा से ज्यादा लोगों के बीच पहुंचने का काम करे। इसलिए अगर किसी भी व्यक्ति या व्यक्ति के समूह के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन हो रहा है और वह सामाजिक, आर्थिक या शारीरिक वजहों से न्याय के लिए कोर्ट का दरवाज़ा नहीं खटखटा पा रहा है तो जनता का कोई भी सदस्य या सामाजिक संस्था उस पीड़ित के लिए हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर सकता है।

यही नहीं जनहित याचिका को और आसान बनाने के लिए जस्टिस भगवती और उनकी टीम ने एक और नायाब कदम उठाया। अगर आप किसी गरीब को न्याय दिलाने में मदद करना चाहते हैं लेकिन पैसे और समय की कमी और कोर्ट की लंबी प्रक्रिया आपको ऐसा करने से रोक रही है तो सब कुछ साइड में रखकर कोर्ट के नाम सिर्फ 'एक चिट्ठी' लिखकर भी आप पीड़ित की शिकायत को न्यायालय तक पहुंचा सकते हैं। कानून की नज़र में इस एक चिट्ठी को ही पूरी प्रक्रिया मान लिया जाएगा और इसके आधार पर कोर्ट मामले की सुनवाई शुरू कर देगा।

चीफ जस्टिस भगवती की यह किताब वैसे तो उनकी आत्मकथा है लेकिन मेरे लिए न्याय प्रक्रिया की कुछ जटिलताओं को समझने का यह एक आसान तरीका निकला। कोर्ट के लंबे लंबे और 'समझ-से-बाहर' लगने वाले फैसलों और उनके पीछे की कहानियों को सरल करके जस्टिस ने हमारे सामने रखा है। लेकिन अच्छा होता अगर जस्टिस भगवती इस किताब में इमरजेंसी के दौर में उनकी बेंच द्वारा लिए गए उस एक फैसले पर भी बात करते जिसके लिए उनकी आलोचना होती आई और जिसके लिए उन्होंने 30 साल बाद एक साक्षात्कार में माफी भी मांगी थी।

दरअसल 1976 में इमरजेंसी के दौरान सुप्रीम कोर्ट को तय करना था कि अगर व्यक्ति अपनी 'हिरासत' को चुनौती देने वाली याचिका दायर करता है तो क्या कोर्ट उसकी सुनवाई कर सकता है। सभी हाईकोर्ट ने इस मामले में हां कहा था लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने ना में गर्दन हिलाई और इस याचिका की मांग को रद्द करके इमरजेंसी के दौर में मूलभूत अधिकारों को निलंबित करने के इंदिरा गांधी सरकार के अधिकार को सही करार दिया। सुप्रीम कोर्ट की बेंच में पांच में से चार जजों ने सरकार के हित में फैसला सुनाया था जिसमें से एक जस्टिस भगवती थे। एक जज जिन्होंने सरकार के खिलाफ मत दिया था वह थे जस्टिस एच आर खन्ना...अगली किताब उन्हीं की पढ़ी जाएगी...

- कल्पना एनडीटीवी ख़बर में कार्यरत हैं

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं। इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति एनडीटीवी उत्तरदायी नहीं है। इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं। इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार एनडीटीवी के नहीं हैं, तथा एनडीटीवी उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है।

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